॥श्रीहरिः॥
वास्तवमेँ प्रेमका स्वरुप अनिर्वचनीय है । कुछ कहा नहीँ जा सकता, परंतु उसका कुछ अनुमान किया जाता है । प्रेम होने पर प्रेम करने के लिए कहा नहीँ जाता । लोभी को यह कहना नहीँ पड़ता कि तुम रुपयोँसे प्रेँम करो । कभी बाप-दादे ने भी पारस आँख से नहीँ देखा; परंतु लोभी को पारस बड़ा प्यारा है । नाम सुनते ही मुख खिल उठता है । इसी प्रकार भगवानमेँ प्रेम होनेपर उसका नाम सुनते ही परम आनंद होता है । लोभी को धनकी और कामीको जैसे सुंदर स्त्रियोँकी बातेँ अच्छी लगती हैँ । इसी प्रकार भगवत्प्रेमीको भगवानकी बातेँ प्राणप्यारी लगती हैँ । जैसे अपने प्रेमी मित्रका नाम सुनते ही उस ओर ध्यान चला जाता है और उसकी बातेँ सुहावनी लगती हैँ, वैसे ही भगवत्प्रेमीको भगवानकी बातेँ सुहाती हैँ । प्रेम और मोहमेँ बड़ा अंतर है । प्रेम विशुद्ध है, मोह कामना से कलंकित है । मोहमेँ स्वार्थ है, वह छूट सकता है, प्रेम स्वार्थरहित और नित्य है । बालकका मातामेँ एक मोह होता है, जिससे वह माताके पास तो रहना चाहता है; परंतु उसके आज्ञानुसार काम करनेके लिए तैयार नहीँ रहता । प्रेममेँ ऐसा नहीँ होता । वहाँ तो अपने प्रेमास्पदको कैसे सुख पहुँचे, कैसे उसका कोई प्रिय कार्य मैँ कर सकूँ, इसी बातकी खोजमेँ प्रेमी रहता है । परंतु ऐसे बहुत कम लोग होते हैँ । भगवान और उनके भक्तोँमेँ ही ऐसे भाव प्रायः पाये जाते हैँ ।
हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
उमा राम सम हितु जग माही । गुरु पितु मातु बंधु कोउ नाहीँ ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिँ सब प्रीती ॥