※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 19 नवंबर 2011

प्रेम का स्वरुप क्या है?





॥श्रीहरिः॥
वास्तवमेँ प्रेमका स्वरुप अनिर्वचनीय है । कुछ कहा नहीँ जा सकता, परंतु उसका कुछ अनुमान किया जाता है । प्रेम होने पर प्रेम करने के लिए कहा नहीँ जाता । लोभी को यह कहना नहीँ पड़ता कि तुम रुपयोँसे प्रेँम करो । कभी बाप-दादे ने भी पारस आँख से नहीँ देखा; परंतु लोभी को पारस बड़ा प्यारा है । नाम सुनते ही मुख खिल उठता है । इसी प्रकार भगवानमेँ प्रेम होनेपर उसका नाम सुनते ही परम आनंद होता है । लोभी को धनकी और कामीको जैसे सुंदर स्त्रियोँकी बातेँ अच्छी लगती हैँ । इसी प्रकार भगवत्प्रेमीको भगवानकी बातेँ प्राणप्यारी लगती हैँ । जैसे अपने प्रेमी मित्रका नाम सुनते ही उस ओर ध्यान चला जाता है और उसकी बातेँ सुहावनी लगती हैँ, वैसे ही भगवत्प्रेमीको भगवानकी बातेँ सुहाती हैँ । प्रेम और मोहमेँ बड़ा अंतर है । प्रेम विशुद्ध है, मोह कामना से कलंकित है । मोहमेँ स्वार्थ है, वह छूट सकता है, प्रेम स्वार्थरहित और नित्य है । बालकका मातामेँ एक मोह होता है, जिससे वह माताके पास तो रहना चाहता है; परंतु उसके आज्ञानुसार काम करनेके लिए तैयार नहीँ रहता । प्रेममेँ ऐसा नहीँ होता । वहाँ तो अपने प्रेमास्पदको कैसे सुख पहुँचे, कैसे उसका कोई प्रिय कार्य मैँ कर सकूँ, इसी बातकी खोजमेँ प्रेमी रहता है । परंतु ऐसे बहुत कम लोग होते हैँ । भगवान और उनके भक्तोँमेँ ही ऐसे भाव प्रायः पाये जाते हैँ ।

हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
उमा राम सम हितु जग माही । गुरु पितु मातु बंधु कोउ नाहीँ ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ लागि करहिँ सब प्रीती ॥