※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

परमार्थसूत्र-संग्रह - चेतावनी


|| श्री हरिः  ||

परमार्थसूत्र-संग्रह  - चेतावनी


* प्रथम तो मनुष्य का शरीर मिलना कठिन है और यदि मिल जाये तो भी भारतभूमि में जन्म होना, कलियुग में होना तथा वैदिक सनातन धर्म प्राप्त होना दुर्लभ है | इससे भी दुर्लभतर शास्त्रों के तत्व और रहस्य बतलाने वाले पुरुषो का संग है | इसलिये जिन पुरुषो को उपयुक्त  संयोग प्राप्त हो गए है, वे यदि परमशांति और  परमआनंदायक परमात्मा की प्राप्ति से वंचित रहे तो इससे बढकर उनकी मूढ़ता क्या होगी |

* चींटी से लेकर देवराज इंद्र की योनी तक को हम लोग भोग चुके है, किन्तु साधन न होने के कारण हमलोग भटक रहे है और जब तक तत्पर होकर साधन नहीं करेंगे तबतक भटकते ही रहेंगे |

* मनुष्य-जन्म सबसे उतम एवं अत्यंत दुर्लभ और भगवान् की विशेष कृपा का फल है | ऐसे अमूल्य जीवन को पाकर जो मनुष्य आलस्य, भोग,प्रमाद और दुराचार में समय बिता देता है वह महान मूढ़ है | उसको घोर पश्चाताप करना पड़ेगा |

* समय बड़ा मूल्यवान है |मनुष्य का शरीर मिल गया, यह भगवान की बड़ी दया है | अब भी यदि भगवद प्राप्ति से वंचित रह गए तो हमारे सामान मुर्ख कौन होगा | हमे अपने अमूल्य समय को अमूल्य कार्य में ही लगाना चाहिये | भगवान की स्मृति अमूल्य है | इस प्रकार नित्य विचार करना चाहिये |

* यह मनुष्य शरीर हमे बार-बार नहीं मिलने का | ऐसे दुर्लभ अवसर को यदि हमने हाथ से खो दिया तो फिर सिवा पछताने के और कुछ हाथ नहीं लगेगा |

* भगवान ने हमे मुक्ति का पासपोर्ट दे दिया है | अब जो कुछ कमी है वह केवल हमारी और से है !

* यह जीवन हमे सांसारिक भोग भोगने के लिए नहीं मिला है |

* बारम्बार विचार करना चाहिये की आप किस लिए आये थे, यहाँ क्या करना चाहिये और आप क्या कर रहे है |

* जब आपका शरीर छूट जाएगा तब शरीर और रूपये किस का आवेंगे? सब कुछ मिटटी में मिल जायेगा |
नारायण   नारायण  नारायण    नारायण    नारायण

परमार्थसूत्र-संग्रह ,जयदयाल गोयन्दका,पुस्तक कोड-५४३,गीताप्रेस, गोरखपुर,उत्तर प्रदेश  

रविवार, 30 दिसंबर 2012

देश के कल्याण के लिए संस्कृत, आयुर्वेद, हिंदी तथा गीता-रामायण के प्रचार की आवश्यकता



|| श्री हरी || 

      संस्कृत में श्रीमद्भभगवद्गीता और हिंदी में श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस – ये दोनों उत्तम शिक्षा देने वाले सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है | इनके अनुसार आचरण करने पर मनुष्य का जीवन उच्चकोटि का हो जाता है | इन दोनों ग्रंथो की प्रशंसा महात्मा गाँधी ने भी बहुत की है | इनको सारे संसार के लिए उपयोगी कहे तो कोई अत्युक्ति न होगी | इनकी शैली बड़ी ही सुंदर है | इनमें श्लोक, छन्द, चौपाई, दोहे आदि काव्य की दृष्टि से भी अत्यंत रसयुक्त,मधुर,सुंदर और विशुद्ध है | अत एव इन दोनों ग्रंथो का सार्वजनिक प्रचार होना बहुत ही आवश्यक है | श्रीमद्भभगवद्गीता  पर जितनी टीकाये, भाष्य और अनुवाद मिलते है, उतने किसी भी संस्कृत या हिंदी के ग्रन्थ पर नहीं मिलते | इससे सिद्ध होता है की यह बहुत उच्चकोटि का ग्रन्थ है | सभी सम्प्रदायवालो ने इसको अपनाया है तथा भारतवर्ष के सभी प्रान्तों में इसका सम्मान है | इसी प्रकार विदेशो में भी इसका बड़ा आदर है | श्रीरामचरितमानस का हिंदी वांग्मय में सबसे बढ़कर है, भारत के सभी प्रान्तों में इसका समादर है | विदेशो में भी लोग इसे मानते है | रूसी भाषा में इसका अनुवाद हुआ है | गीताप्रेस, गोरखपुर में भी  श्रीमद्भभगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस के प्रकाशन को प्रथम स्थान दिया गया है | दोनों ग्रंथ प्रचूर संख्या में छापकर उन्हें सस्ते मूल्य में दिए जाने की चेष्टा की जाती है |

      अत: हमारी सभी पाठक-पाठिकाओं से यह प्रार्थना है कि उन्हें गीता और रामायण के पाठ करने का नियम यथा शक्ति बना लेना चाहिए और उनके अर्थ और भाव को समझकर उसके अनुसार जीवन बनाने की विशेष चेष्टा करनी चाहिए | इससे निश्चय ही कल्याण हो सकता है |

     गीता और रामायण दोनों ही अध्यात्म दृष्टि से तो बहुत लाभ की वस्तु है ही, साथ-ही-साथ संस्कृत और हिंदी के ज्ञान की दृष्टि से तथा बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक और व्यवहारिक लाभ की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है | अत: सरकार से तथा भारतवासी भाइयों और बहनों से हमारी प्रार्थना है कि सांप्रदायिक दृष्टि को छोड़ कर सभी के बौद्धिक , नैतिक, सामाजिक तथा व्यावहारिक लाभ की दृष्टि से इनका प्रचार करें | आज भारतीय संस्कृति की संरक्षिका संस्कृत भाषा के उत्कर्ष के लिए सामयिक परिवेश में विचार विमर्श और प्रचार-प्रसार  की योजना बना कर उसे कार्यान्वित करना नितान्त आवश्यक है | अत: समाज और सरकार – दोनों का प्रधान कर्तव्य है कि इस विषय पर तत्काल ध्यान दिया जाये अन्यथा भारतीय संस्कृति की निधि लुप्त-सी हो रही है | यह राष्ट्र अथवा समाज के लिए एक प्रकार का कलंक और पश्चाताप का विषय होगा |

‘भारती भातु भारते |’
 नारायण   नारायण    नारायण    नारायण    नारायण  

ब्रह्मलीन परम श्रधेय श्री जयदयालजी गोयन्दका

कल्याण अंक वर्ष ८५, संख्या ९, पन्ना न० ८७८, गीताप्रेस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश २७३००५

                         

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

देश के कल्याण के लिए संस्कृत,आयुर्वेद,हिंदी तथा गीता-रामायण के प्रचार की आवश्यकता


|| श्री हरी ||

देश के कल्याण के लिए संस्कृत,आयुर्वेद,हिंदी तथा गीता-रामायण के प्रचार की आवश्यकता

हिन्दुस्तान और हिन्दीभाषा

हमारे इस भारतवर्ष का नाम पहले ‘आर्यवर्त’ था, जिसे हिंदुस्तान भी कहते है | मुसलमान भाई ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग काफ़िर के अर्थ मीन करते हैं, किन्तु हमारे लिए ‘हिन्दू’ शब्द पवित्र और गौरव की वस्तु है | हमारे इस देश का नाम हिन्दुस्तान क्यों पड़ा? हिमालय का ‘हि’ और ‘बिंदु’ का ‘न्दू’ इस प्रकार इन दोनों के आदि और अंत के दो शब्दों को लेकर ‘हिन्दू’ शब्द बना है | हिमालय से तात्पर्य है –उतर में स्तिथ ऊँचा गौरीशंकर पहाड़ (हिमगिरी) और बिंदु से अभिप्राय है – पूर्व और पश्चिम सहित दक्षिण समुन्द्र अथवा यु सैमझो की हिमालय का ‘हि’ और सिन्धु (समुद्र) का ‘न्दू’ लेकर ‘हिन्धू’ शब्द बना है; उसी का अपब्ब्रंश ‘हिन्दू’ शब्द है | हिमालय से लेकर दक्षिण समुन्द्र तक के बीच का जो देश है, उसका नाम है – ‘हिन्दुस्थान’ और जो इसमें बसते है, उनकी जाति है – ‘हिन्दू’ और उनकी भाषा है ‘हिंदी’ | उनका जो धर्म है वह ‘हिन्दुधर्म’ कहलाता है और उनके चाल-चलन, आहार-व्यवाहर  तथा वेश-भूषा  को कहते है –‘हिन्दू-संस्कृति’ | इन सबकी रक्षा से ही हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म की रक्षा हो सकती है |    

अत: हिन्दुस्थान में निवास करने वाले भाइयों को अपनी रक्षा के लिए अपने हिन्दुस्थान की भाषा, वेश-भूषा, खान-पान और चाल-चलन को ही अपनाए रहना चाहिए, विदेशी प्रभाव में आकर इन्हें कभी नहीं बदलना चाहिए | जो जाति अपनी संस्कृति को छोडकर दूसरी जाति की संस्कृति को आना लेती है, वह नष्ट हो जाती है |
हमारी प्राचीन भाषा है –संस्कृत और वर्तमान भाषा है हिंदी तथा हमारी लिपि है –देवनागरी | हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत तो  राष्ट्र भाषा न हो सकी तो हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में अवश्य ही समृद्ध की जानी चाहिए | श्रुति-स्मृति-इतिहास-पुराणौक्त जो अनादी काल से चला आनेवाला सनातन धर्म है,वही हमारी आर्यजाति हिन्दुस्थानियो का सनातन हिन्दू धर्म है | प्रत्येक हिंदुस्थानी भाई को ऐसी चेष्टा करनी चाहिए की जिससे कम-से-कम अपने देश हिन्दुस्थान में तो हमारा हिन्दू-धर्म, हिन्दूजाति, हिन्दीभाषा और हिन्दू-संस्कृति सदा कायम रखे |


नारायण    नारायण    नारायण    नारायण    नारायण  

ब्रह्मलीन परम श्रधेय श्री जयदयालजी गोयन्दका

कल्याण अंक, वर्ष ८५, संख्या ९, पन्ना न० ८७७, गीताप्रेस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश २७३००५
                            

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

देश के कल्याण के लिए संस्कृत,आयुर्वेद,हिंदी तथा गीता-रामायण के प्रचार की आवश्यकता


|| श्री हरी ||

देश के कल्याण के लिए संस्कृत,आयुर्वेद,हिंदी तथा गीता-रामायण के प्रचार की आवश्यकता

आयुर्वेद –विज्ञान

इसी प्रकार आयुर्वेद –विज्ञान का बड़ी तेजी से अभाव होता जा रहा है | आयुर्वेद चिकित्सा, निदान और औषधियो के नाम,रूप,स्वभाव,गुण और उनके निर्माण का जो महान ज्ञान त्रिकाल्ज्ञ ऋषियो को था, वह क्रमश: लुप्त होता ही चला गया | इस समय हमारे अनुमान से प्राय: नब्बे प्रतिशत लुप्त हो चुका है और जो बचा-खुचा है, उसका भी दिन-पर-दिन हास होता जा रहा है | आस्थावान विद्वान वैध उठते चले जा रहे है | जो है, उनके प्रति अनास्था बढ़ रही है | इसी का परिणाम है की आज देश के बड़े-बड़े  वैध भी प्राय: अपने बच्चे को डाँक्टरी पढ़ाते है और स्वयं भी डाँक्टरी दवाओ का व्यवहार करते देखे जाते है | यह निश्चित है की भारतवासियो के लिये आयुर्वेदोक्त देशी औषधियो जितनी लाभप्रद हो सकती हैं, उतनी विदेशी नहीं | कहा भी है - ‘जो जिस देश का प्राणी है, उसके लिए उसी देश से उत्पन्न औषधि हितकारी है |’

इस देश में आयुर्वेद-विज्ञान एक दिन कितना उन्नत था – इसका पता महाभारत की एक कथा से लगता है | महाभारत के आदिपर्व में यह प्रसंग प्राप्त होता है की कश्यप नाम के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे | वे मृत व्यक्ति को भी औषधिओ से जीवित करने की चिकित्सा विधि जानते थे | जब उन्हें पता लगा की राजा परीक्षित को तक्षक नाग डसने वाला है, तब वे परीक्षित के पास जाने के लिए घर से चले | रास्ते में उन्हें तक्षक से भेट हो गयी | मानव-रूप धारी तक्षक के पूछने पर कश्यप ने अपने वहा जानेका हेतु बतलाया की ‘राजा परीक्षित को तक्षक काटेगा तो मैं उन्हें अपनी औषधि से जिला दूँगा |’ यह सुनकर तक्षक ने कहा, ‘मैं ही तक्षक हूँ | मेरे काटे हुए को तुम जीवित नहीं कर सकते |’ कश्यप ने कहा – ‘मैं तुम्हारे डसे हुए को जिला दूंगा |’ इस पर तक्षक बोला – ‘मैं इस वृक्ष को डस कर भस्म करता हूँ , तुम इसे हरा-भरा कर दो |’ तक्षक के काटते  ही वृक्ष जलकर भस्म हो गया | पर कश्यप ने मन्त्र और औषधिओ के बल से पुन: उससे जीवित कर तत्काल हरा-भरा कर दिया | तक्षक ने अपने मान की रक्षा के लिए कश्यप ब्राह्मण को बहुत-सा धन देकर उसे वह से लौटा दिया |

इससे हमे यह ज्ञात होता है की हमारे यहाँ आयुर्वेद ने कितनी अद्भूत उन्नति की थी, जिसके द्वारा मृत मनुष्य ही नहीं, समूल जले हुए वृक्ष को हरा-भरा किया जा सकता था | ऐसी आदरणीय विद्या का शनै: –शनै: लोप हुआ और होता जा रहा है,यह कितने परिताप का विषय है | अब भी यह विज्ञान जिस रूप में वर्तमान है, उस पर यदि सरकार तथा देश् वासी और निष्टावान सद् वैध ध्यान देकर इसके रक्षण, अन्वेक्षण और सवर्धन का प्रयत्न करें, इसके गुणों को प्रकाश में लाये तो इसमें इतने महान गुण छिपे है की उनके लिए सबके सम्मिलित  प्रयत्न की आवस्यकता है | सबको चाहिए की इस और ध्यान देकर आयुर्वेद की रक्षा और उन्नति करके अपने कर्तव्य का पालन करे |

डाँक्टरी दवाओ में प्राय: मॉस, मज्जा, चर्बी, ग्रंथियाँ, मदिरा आदि अपवित्र घ्रणित पदार्थो का सन्निवेश रहता है, जो सब प्रकार से अपवित्र, हिंसापूर्ण  अतएव अवांछनीय है | देशवासियो को चाहिए की विदेशी डाक्टरी दवाईओ को कतई काम में न लेकर चरक, सुश्रुत, वाग्भट आदि द्वारा रचित आयुर्वेदीय शास्त्रों में बतलाई हुई वनस्पति,धातु और रस आदि पवित्र  दवाओ  का सेवन दृढ नियम ले ले | यदि किसी से सर्वथा ऐसा न हो सके तो कम-से-कम यह तो निश्चय करे की जहा तक हो डाक्टरी दवा काम में न लेकर देशी आयुर्वेदिय  दवा के प्रयोग की ही औषधी रूप से चेष्टा रखेंगे | इन ग्रंथो और औषधियो के निर्माणकरता त्रिकालग्य ऋषि और अनुभवी थे, उनका अनुभव और ज्ञान अलौकिक था | ऐसा अनुभव वर्तमान युग के मनुष्य में संभव नहीं है | हमे उन ऋषियो के अनुभव का ज्ञान का सम्मान करके उनसे लाभ उठाना चाहिए |
नारायण    नारायण   नारायण   नारायण    नारायण

ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्री जयदयालजी गोयन्दका

कल्याण अंक वर्ष ८५, संख्या ९, पन्ना न० ८७६, गीताप्रेस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश २७३००५
                           

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

देश के कल्याण के लिए संस्कृत, आयुर्वेद, हिंदी तथा गीता-रामायण के प्रचार की आवश्यकता


|| श्री हरी ||

देश के कल्याण के लिए संस्कृत, आयुर्वेद, हिंदी तथा गीता-रामायण के प्रचार की आवश्यकता

संस्कृत – भाषा


वर्तमान काल में इस देश में संस्कृत-भाषा का दिनोदिन हास होता जा रहा है | इसी क्रम में हास होता गया तो एक दिन हमारे देश में संस्कृत-भाषा का लुप्त प्राय हो जाना भी कोई बड़ी बात नहीं है | पांडवो के राज्य शासन के समय तक तो उस भाषा का बहुत अधिक प्रचार था | निति, धर्म और अध्यात्मविषयक सभी ग्रन्थ संस्कृत-भाषा में ही थे और यही धर्म भाषा थी; क्योकि राजनीतिक कार्य तथा दंड विधान आदि सब मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति आदि स्मृतियो के आधार पर ही किये जाते थे | कानून में अब भी कुछ रूप में इन्ही स्मृतियो के आधार पर दायभाग और दंडविधान किया जाता है | नीति, धर्म और अध्यात्मविषयक साहित्य को देखने से मालूम होता है की संस्कृत भाषा सारे भारत में व्यापक रूप से प्रचलित थी, उसी के प्रताप से इसके सभी प्रान्तो के कोने-कोने में अभ भी संस्कृत-भाषा मिलती है | भारतवर्ष में कोई भी ऐसा प्रान्त और जिला नहीं, जहा संस्कृत भाषा न पायी जाती हो | संस्कृत के जानने वाला कोई भी पंडित कही भी चला जाये, उसे संस्कृत में बात करने वाला कोई-न-कोई मिल ही जाता है एवं भारत के किसी भी प्रान्त में चले जाईये – श्रुति, स्मृति, इतिहास और पुराण एक ही मिलेंगे, कही विशेष भेद नहीं मिलेगा | इससे हमारी संस्कृतभाषा और धार्मिक ग्रंथो की अनादिता, व्यापकता और उपादेयता सिद्ध होती है | इस संस्कृत भाषा के पूर्व की कोई अन्य भाषा या श्रुति, स्मृति, इतिहास-पुराण के पहले का कोई भी धार्मिक ग्रन्थ और संस्कृत वर्णमाला के पूर्व की कोई अन्य वर्णमाला देखने-सुनने में नहीं आती, इससे भी इसकी अनादिता सिद्ध होती है | बौध्हयुग में धार्मिक विरोध के नाते संस्कृत पर प्रहार हुए, फिर भी सम्राट विर्क्रमादित्य और राजा भोज के समय में संस्कृत का बड़ा अच्छा प्रचार रहा | उसके बाद भी कुछ संस्कृत-प्रसार रहा,किन्तु फिर मुसलमानी शासन में संस्कृत भाषा का पर्याप्त हास हुआ |

सुना जाता है की वेदों की कुल ११३१ शाखाये थी, जिनमे अब लगभग १२ ही मिलती है | सामवेद की १०००   शाखाओ में केवल लगभग १२ ही मिलती है | यही दशा वेद के ब्राह्मण, आरण्यक, कल्पसूत्रादी की तथा वेदांग एवं अन्यान्य  धर्मग्रंथो की है | इन सब वैदिक शाखाओ तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थो का इतना हाश कैसे हुआ? इसपर नि:संदेह यह कहा जा सकता है की वैदिक धर्म की विरोधियो तथा विदेशी अत्याचारियो के द्वारा ही हमारी यह सारी अमूल्य  ग्रन्थ-सम्पति नष्ट कर दी गयी | कहा जाता है की उज्जैन के राजा मतादित्य ने हजारो ब्राह्मणों की तमाम पुस्तकों को जलवा दिया था | बौधौ के द्वारा ‘सहाद्रिखंड’ (पुस्तकालय) का नाश किया जाना प्रसिद्द है | मुसलमानों नें अलेक्ज़ेन्ड्रिया के पुस्तकालय को जला दिया था | महमूद और नादिरसाह ने भी संस्कृत के अगणित धर्मग्रंथो का नाश किया | कुछ मुसलमान बादशाहों ने  तो संस्कृत की पुस्तकों को ‘हमाम’ गरम करने के लिए जलाया था | इस प्रकार हमारे इस अमूल्य ज्ञानकोष को ध्वंस कर दिया गया | यों पहले तो इसका अत्याचारियो ने नाश किया, पर उसमे तो हम निरुपाय थे,किन्तु बड़े खेद की बात है की अब बचे-खुचे को हम अवहेलना तथा मुर्खता से नाश कर रहे है |

 परन्तु इसको बचाना हमारा परम कर्तव्य है | संस्कृत-भाषा के बचने से ही धर्म भी बचेगा; क्योकि हमारे जितने भी मूल धार्मिक ग्रन्थ है, उनका आधार संस्कृत-भाषा ही है और यह संस्कृत-भाषा कितनी प्रांजल और मधुर है, इसका तत्व इस अमृतमय भाषा का आस्वादन करने वाले विद्वान ही जानते है | संस्कृत का व्याकरण भी अलोकिक है | जगत की किसी भी भाषा का वैसा सर्वांगपूर्ण व्याकरण देखने में नहीं आता |

इस प्रकार के संस्कृत-भाषा रुपी अलोकिक रत्न का यदि हमारे भारतवर्ष में अभाव में जायेगा तो पुन: इसका प्रादुर्भाव होना बहुत कठिन होगा | अत: सरकार से और देशवासियो से प्रार्थना है की जिस प्रकार यह संस्कृत-भाषा जीवित रहे, इसका उतरोतर अधिक प्रचार हो और यह सर्वागीण समृधि को प्राप्त हो, इसके लिखे सभी को शक्ति-यत्न अनुसार प्रयत्न करना चाहिए |

नारायण    नारायण    नारायण

ब्रह्मलीन परम श्रधेय श्री जयदयालजी गोयन्दका

कल्याण अंक वर्ष ८५, संख्या ९, पन्ना न० ८७६, गीताप्रेस, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश २७३००५

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रभाव


!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

 *  गीता का आरम्भ और पर्यवसान  *

गत ब्लॉग से आगे........

प्रश्न गीता क्या सिखलाती है ?

उत्तरआत्मतत्त्व का ज्ञान और ईश्वर की भक्ति, स्वार्थ का त्याग और धर्मपालन के लिए प्राणोत्सर्ग ! इन चारों में से जो एक गुण को भी जीवन में क्रियात्मक रूप दे देता है एक का भी सम्यक् पालन कर लेता है, वह स्वयं मुक्त और पवित्र होकर दूसरों का कल्याण करने में समर्थ हो जाता है | जिनको परमात्म-दर्शन  की अत्तीव तीव्र उत्कंठा हो जो यह चाहते हो कि हमें शीघ्र-से-शीघ्र परमात्मा की प्राप्ति हो, उन्हें धर्म के लिए अपने प्राणों को हथेली में लिए रहना चाहिये | जो ईश्वर की आज्ञा समझकर धर्म की वेदी पर प्राणों का विसर्जन करता है वस्तुत: उसका प्राण-विसर्जन परमात्मा के लिए ही है | अत: ईश्वर को भी तत्काल उसका कल्याण करने के लिए बाध्य होना पढता है | जैसे गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों ने धर्मार्थ अपने प्राणों की आहुति देकर मुक्ति प्राप्त की, वैसे ही जो धर्म अर्थात् ईश्वर के लिए सर्वस्व होम देने को सदा-सर्वदा प्रस्तुत रहता है उसके कल्याण में संदेह ही क्या है ?
स्वधर्मे निधनं श्रेय: (गीता ३|३५)
    आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर मनुष्य निर्भय हो जाता है, क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह समझ जाता है कि आत्मा का कभी नाश होता ही नहीं |  

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे || (गीता २ | २०)

     जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में किसी का किंचित् भी भय है, तब तक समझ लेना चाहिए की वह आत्मतत्त्व से बहुत दूर है | जिनको ईश्वर की शरणागति के रहस्य का ज्ञान है, वही पुरुष धर्म के लिए ईश्वर के लिए हँसतेहँसते प्राणों को होम सकता है | यही उसकी कसौटी है | वास्तव में स्वार्थ का त्याग भी यही हैं | भगवद्-वचनों के महत्त्व और रहस्य को समझने वाला व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर स्त्री, पुत्र और धनादि की तो बात ही क्या, प्राणोत्सर्ग तक कर देने में तिलभर भी पीछे नहीं रहता सदा तैयार रहता है | जो व्यक्ति धर्म अर्थात् कर्तव्य-पालन  का तत्त्व जान जाता है उसकी प्रत्येक क्रिया में मान-बड़ाई आदि बड़े-से-बड़े स्वार्थ का आत्यंतिक अभाव झलकता  रहता है | ऐसे पुरुषो का जीवन-धारण केवल भगवत्प्रीत्यर्थ अथवा लोकहितार्थ ही समझा जाता है |


प्रश्न- गीता में सबसे बढ़कर श्लोक कौन-सा है ?

उत्तर सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
          अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: || (गीता १८ |६६)

      इस श्लोक में कथित शरण के प्रकार की व्याख्या श्रीमदभगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ३४ एवं अध्याय १८ श्लोक ६५ में भली भाँति की गयी है |


प्रश्न भगवान ने अपने दिये हुए उपदेशों में से गुह्यतम उपदेश किसको बतलाया है ?

उत्तर – ‘मन्मना भव मद्भक्तो  मद्याजी मां नमस्कुरु|’, ‘सर्वधर्मान्परित्यज्यआदि को (गीता १८ | ६५-६६) |


प्रश्न- गीता सुनाने में भगवान का क्या लक्ष्य था?

उत्तरअर्जुन को पूर्णतया अपनी शरण में लाना |

प्रश्न इसकी पूर्ति कहाँ होती है ?

उत्तर अध्याय १८ श्लोक ७३ में-

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि  गतसंदेह : करिष्ये वचनम् तव ||

हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है, मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशय रहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रभाव


!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

गत ब्लॉग से आगे........
        

* गीतोपदेश का आरम्भ और पर्यवसान *

गीता के मुख्य उपदेश का आरम्भ अशोच्यानन्शोस्त्वम् आदि श्लोक से हुआ है | इसी से लोग इसे गीता का बीज कहते हैं, परन्तु कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः’ (|७) आदि श्लोक भी बीज कहा गया है; क्योंकि अर्जुन के भगवत्-शरण होने के कारण ही भगवान् द्वारा  यह गीतोपनिषद् कहा गया | गीता का पर्यवसान समाप्ति शरणागति में है | यथा

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || (गीता १८|६६)

सर्व धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के आश्रय को त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, मैं तुझको सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर |’

प्रश्न भगवान अर्जुन को क्या सिखलाना चाहते थे ?
उत्तर तत्त्व और प्रभाव सहित भक्ति प्रधान कर्मयोग |

प्रश्न गीता में प्रधानत: धारण करने योग्य विषय कितने हैं ?
उत्तर भक्ति, कर्म, ध्यान और ज्ञानयोग | ये चारों विषय दोनों निष्ठाओं (सांख्य और कर्म ) के अंतर्गत है |

प्रश्न गीता के अनुसार परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुषों के प्राय: सम्पूर्ण लक्षणों का, माला की मणियों के सूत्र की तरह आधार रूप लक्षण क्या है ?
उत्तर – ‘समता

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः || (गीता ५|१९)

‘जिनका मन समत्व भाव में स्थित है ; उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया अर्थात् वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं, क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम हैं, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में स्थित है |
मान-अपमान, सुख-दुःख, मित्र-शत्रु और ब्राह्मण-चंडाल आदि में जिनकी समबुद्धि है, गीता की दृष्टि से वे ही ज्ञानी हैं |'.....शेष अगले ब्लॉग में    

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर