※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

भगवान् के रहने के पाँच स्थान




पाँच महायज्ञ: ...... गत ब्लॉग से आगे ......
विशेषतः (अन्तकालमें) जो सोन नदीके उत्तर तटका आश्रय लेकर विधिपूर्वक प्राण-त्याग करता है, वह मेरी समानताको प्राप्त होता है! जिस मनुष्यकी मृत्यु घरके भीतर होती है, उस घरके छप्परमें जितनी गाँठें बँधी रहती हैं, उतने ही बंधन उसके शरीरमें भी बँध जाते हैं! एक-एक वर्षके बाद उसका एक-एक बंधन खुलता है! पुत्र और भाई-बंधू देखते रह जाते हैं, किसीके द्वारा उसे उस बंधनसे छुटकारा नहीं मिलता! पर्वत, जंगल, दुर्गमभूमि या जलरहित स्थानमें प्राण - त्याग करनेवाला मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त होता है! उसे कीड़े आदिकी योनीमें जन्म लेना पड़ता है! जिस मरे हुए व्यक्तिके शवका दाह- संस्कार मृत्युके दुसरे दिन होता है, वह साठ हज़ार वर्षोंतक कुम्बीपाक नरकमें पड़ा रहता है! जो मनुष्य अस्पृश्यका स्पर्श करके या पतितावस्थामें प्राण त्याग करता है, वह चिरकालतक नरकमें निवास करके मलेच्छ-योनिमें जन्म लेता है! पुण्यसे अथवा पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करनेसे मर्त्यलोकनिवासी सब मनुष्योंकी मृत्युके समय जैसी बुद्धि होती है, वैसी ही गति उन्हें प्राप्त होती है!

पिताके मरनेपर जो बलवान पुत्र उनके शरीरको कन्धेपर ढोता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है! पुत्रको चाहिये कि वह पिताके शवको चितापर रखकर विधिपूर्वक मंत्रोचारण करते हुए पहले उसके मुखमें आग दे, उसके बाद सम्पूर्ण शरीरका दाह करे! [उस समय इस प्रकार कहे --] 'जो लाभ-मोहसे युक्त तथा पाप-पुण्यसे आच्छादित थे, उन पिताजीके इस शवका, इसके सम्पूर्ण अंगोंका मैं दाह करता हूँ; वे दिव्यलोकमें जायँ! इस प्रकार दाह करके पुत्र अस्थि-संचयके लिए कुछ दिन प्रतीक्षामें व्यतीत करे फिर यथासमय अस्थि-संचय करके दशाह (दसवाँ दिन) आनेपर स्नानकर गीले वस्त्रका परित्याग कर दे, फिर विद्वान् पुरुष ग्यारहवें दिन एकादशह -श्राद्ध करे और प्रेतके शरीरकी पुष्टिके लिये एक ब्राह्मणको भोजन कराये! 

[२१]

गुरुवार, 29 मार्च 2012

भगवान् के रहने के पाँच स्थान




पाँच महायज्ञ: ...... गत ब्लॉग से आगे ......
ब्राह्मणने पूछा-- देव! आपने पिताके लिये किये  जानेवाले श्राद्ध नामक महायज्ञका वर्णन किया! अब यह बताइये की पुत्रको पिताके जीते-जी क्या करना चाहिये; कौन-सा कर्म करके बुद्धिमान पुत्रको जन्म-जन्मान्तरोंमें परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है! ये सब बातें यत्नपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये! 

श्रीभगवान् बोले -- विप्रवर! देवताके समान समझकर उनकी पूजा करनी चाहिये और पुत्रकी भाँती उनपर स्नेह रखना चाहिये! कभी मनसे भी उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये! जो पुत्र रोगी पिताकी भलीभाँती परिचर्या करता है, उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है और वह सदा देवताओद्वारा पूजित होता है! पिता जब मरनासन्न होकर मृत्युके लक्षण देख रहे हों, उस समय भी उनका पूजन करके पुत्र देवताओंके समान हो जाता है! [पिताकी सद्गतिके निमित्त] विधिपूर्वक उपवास करनेसे जो लाभ होता है, अब उसका वर्णन करता हूँ, सुनो! हज़ार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करनेसे जो पुण्य होता है, वही पुण्य [पिताके निमित्त] उपवास करनेसे प्राप्त होता है! वही उपवास यदि तीर्थमें किया जाय तो उन दोनों यज्ञोंसे करोड़ गुना अधिक फल मिलता है! जिस श्रेष्ट पुरुषके प्राण गंगाजीके जलमें छुटते हैं, वह पुनः माताके दूधका पान नहीं करता, वरं मुक्त हो जाता है! जो अपने इच्छाअनुसार काशीमें रहकर प्राण- त्याग करता है, वह मनोवांछित फल भोगकर मेरे स्वरुपमें लीन हो जाता है! योगयुक्त नैष्ठिक ब्रह्माचारी मुनियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वही गति ब्रह्मापुत्र नदिकी सात धराओंमें प्राणत्याग करनेवालेको मिलती है! 

[२०]

बुधवार, 28 मार्च 2012

पाँच महायज्ञ


: ...... गत ब्लॉग से आगे ...... 


जो श्राद्ध प्रतिदिन किया जाता है, उसे नित्य श्राद्ध माना गया है! जो पुरुष श्रद्धापूर्वक नित्य श्राद्ध करता है, वह अक्षय लोकका उपभोग करता है! इसी प्रकार कृष्णपक्षमें विधिपूर्वक काम्य श्राद्धका अनुष्ठान करके मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त करता है! आषाढ़की पूर्णिमाके बाद जो पाँचवाँ पक्ष आता है, [ जिसे महालय या पितृपक्ष कहते हैं] उसमें पितरोंका श्राद्ध करना चाहिये! उस समय सूर्य कन्याराशिपर गये हैं या नहीं -- इसका विचार नहीं करना चाहिये! जब सूर्य कन्याराशिपर स्थित होते हैं, उस समयसे लेकर सोलह दिन उत्तम दक्षिणाओंसे संपन्न यज्ञोंके समान महत्त्व रखते है! उन दिनोंमें इस परम पवित्र काम्य श्राद्धका अनुष्ठान करना उचित है! इससे श्राद्धकर्ताका मंगल होता है! यदि उस समय श्राद्ध न हो सके तो जब सूर्य तुलाराशीपर स्थित हों, उसी समय कृष्णपक्ष आदिमें उक्त श्राद्ध करना उचित है!

चन्द्रग्रहणके  समय सभी दान भूमिदानके समान होते है, सभी ब्राह्मण व्यासके समान माने जाते हैं और समस्त जल गंगाजलके तुल्य हो जाता है! चन्द्रग्रहणमें दिया हुआ दान और समय की अपेक्षा लाख गुना तथा सूर्यग्रहणका दान दस लाख गुना अधिक फल देनेवाला बताया गया है और यदि गंगाजीका जल प्राप्त हो जाय तब तो चन्द्रग्रहणका दान करोड़ गुना और सूर्यग्रहणमें दिया हुआ दान दस करोड़ गुना अधिक फल देनेवाला होता है! विधिपूर्वक एक लाख गोदान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह चन्द्रग्रहणके समय गंगाजीमें स्नान करनेसे मिल जाता है! जो चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गंगाजीमें डुबकी लगता है, उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त होता है! यदि रविवारको सूर्यग्रहण और सोमवारको चन्द्रग्रहण हो तो वह चुडामणि नामक योग कहलाता है; उसमें स्नान और दानका अनंत फल माना गया है! उस समय पुन्य तीर्थमें पहले उपवास करके जो पुरुष पिण्डदान, तर्पण तथा धनदान कर्ता है, वह सत्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है!

[१९] 

मंगलवार, 27 मार्च 2012

भगवान् के रहने के पाँच स्थान




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श्रीभगवान् बोले - विप्रवर! एक वर्ष, एक मास, एक पक्ष, एक सप्ताह अथवा एक दिन भी जिसने माता-पिताकी भक्ति की हैं, वह मेरे धामको प्राप्त करता है! तथा जो उनके मनको कष्ट पहुँचाता है, वह अवश्य नरकमें पड़ता है! जिसने पहले अपने माता -पिताकी पूजा की हो या न की हो, यदि उनकी मृत्युके पश्चात वह साँड छोड़ता है, तो उसे पितृभक्तिका फल मिल जाता है! जो बुद्धिमान पुत्र अपना सर्वस्व लगाकर माता-पिताका श्राद्ध करता है, वह जातिस्मर  (पूर्व- जन्मोंकी बातोंको स्मरण करनेवाला) होता है और उसे पितृभक्तिका पूरा फल मिल जाता है! श्राद्धसे बढ़कर महान यज्ञ तीनों लोकोंमें दूसरा कोई नहीं है! इसमें जो कुछ दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है! दुसरोंको जो दान दिया जाता है उसका फल दस हज़ार गुना होता हैं! अपनी जातिवालोंको देनेसे लाख गुना, पिण्डदानमें लगाया हुआ धन करोड़ गुना और ब्राह्मणको देनेपर वह अनंत गुना फल देनेवाला बताया गया है! जो गंगाजीके जलमें और गया, प्रयाग, पुष्कर, काशी, सिद्धकुण्ड तथा गंगा- सागर-संगम तीर्थमें पितरोंके लिये अन्नदान करता है, उसकी मुक्ति निश्चित है तथा  उसके पितर अक्षय स्वर्ग प्राप्त करते हैं! उसका जन्म सफल हो जाता है! जो विशेषतः गंगाजीमें तिलमिश्रित जलके द्वारा तर्पण करता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है! अमावस्या और युगादि तिथियोंको तथा चन्द्रमा और सूर्यग्रहणके दिन जो पार्वण श्राद्ध करता है, वह अक्षय लोकका भोगी होता है! उसके पितर उसे प्रिय आशीर्वाद और अनंत भोग प्रदान करके दस हज़ार वर्षोंतक तृप्त रखते हैं! इसलिए प्रत्येक पर्वपर पुत्रोंको प्रसन्नतापूर्वक पार्वण श्राद्ध करना चाहिये! माता -पिताके इस श्राद्ध-यज्ञका अनुष्ठान करके मनुष्य सब प्रकारके बंधनोंसे मुक्त हो जाता है!

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गुरुवार, 22 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान




चैत्र कृष्ण अमावस्या, वि.सं.-२०६८, गुरुवार
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मूक चाण्डाल त्रिभुवनमें सबका कल्याण करनेवाला है! चाण्डाल होनेपर भी वह सदाचारमें स्थित है; इसलिये देवता उसे ब्राह्मण मानते हैं! पुण्यकर्मद्वारा मूक चाण्डालकी समानता करनेवाला इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है! वह सदा माता-पिताकी भक्तिमें संलग्न रहता है! उसने (अपनी इस भक्तिके बलसे) तीनों लोकोंको जीत लिया है! उसकी माता-पिताके प्रति भक्ति    देखकर मैं बहुत संतुष्ट रहता हूँ और इसलिये उसके घरके भीतर आकाशमें सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्राह्मणरूपसे निवास करता हूँ! इसी प्रकार मैं उस पतिव्रताके, तुलाधारके, अद्रोहकके और इस वैष्णवके घरमें भी सदा निवास करता हूँ! धर्मज्ञ! एक मुहूर्तके लिये भी मैं इन लोगोंका घर नहीं छोड़ता! जो पुण्यात्मा हैं, वे ही मेरा प्रतिदिन दर्शन पाते हैं; दुसरे पापी मनुष्य नहीं! तुमने अपने पुण्यके प्रभावसे और मेरे अनुग्रहके कारण मेरा दर्शन किया हैं; अब मैं क्रमशः उन महात्माओंके सदाचारका वर्णन करूँगा, तुम ध्यान देकर सुनो! ऐसे वर्णनोंको सुनकर मनुष्य जन्म-मृत्युके बंधनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है! देवताओंमें भी, माता-पितासे बढ़कर तीर्थ नहीं है, जिसने माता-पिताकी आराधना की है, वही पुरुषोंमें श्रेष्ट है! वह मेरे हृदयमें रहता है और मैं उसके हृदयमें! हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं रह जाता! इहलोक और परलोकमें भी वह मेरे रमणीय धाममें पहुँचकर मुझमें ही लीन हो जाता है! माता-पिताकी आराधनाके बलसे ही वह नरश्रेष्ट मूक चाण्डाल तीनों लोकोंकी बातें जानता है, फिर इस विषयमें तुम्हें विस्मय क्यों हो रहा है? 

ब्राह्मणने पूछा- जगदीश्वर! मोह और अज्ञानवश पहले माता-पिताकी आराधना न करके फिर भले- बुरेका ज्ञान होनेपर यदि मनुष्य पुनः माता-पिताकी सेवा करना चाहे तो उसके लिये क्या कर्तव्य है?

[१७]

बुधवार, 21 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान




चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार
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व्यासजी कहते हैं -- जगतगुरु भगवान् के ऐसा कहनेपर द्विजश्रेष्ट नरोत्तमने फिर इस प्रकार कहा -- 'नाथ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने स्वरुपका दर्शन कराइये!' तब सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र करता एवं ब्राह्मण- हितैषी भगवान् ने नरोत्तमके प्रेमसे प्रसन्न होकर उस पुन्यकर्मा ब्राह्मणको शंख,चक्र, गदा और पद्म धारण किये अपने पुरषोत्तमरूपका दर्शन कराया! उनके तेजसे सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो रहा था! ब्राह्मणने दण्डकी भाँती धरतीपर गिरकर भगवानको प्रणाम किया और कहा - 'जगदीश्वर! आज मेरा जन्म सफल हुआ; आज मेरे नेत्र कल्याणमय हो गये! इस समय मेरे दोनों हाथ प्रशस्त हो गये, आज मैं भी धन्य हो गया ! मेरे पूर्वज सनातन ब्रह्मलोकको जा रहे हैं! जनार्दन! आज आपकी कृपासे मेरे बंधू-बांधव आनंदित हो रहे हैं, इस समय मेरे सभी मनोरथ सिद्ध हो गये; किन्तु नाथ! मूक चाण्डाल आदि ज्ञानी माहात्माओंकी बात सोचकर मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है! भला, वे लोग देशान्तरमें होनेवाले मेरे वृतान्तको कैसे जानते हैं? मूक चाण्डालके घरमें आप अत्यंत सुन्दर ब्राह्मणका रूप धारण किये विराजमान थे; इसी प्रकार पतिव्रताके घरमें, तुलाधारके यहाँ, मित्राद्रोहकके भवनमें तथा इन वैष्णव महात्माके मंदिरमें भी आपका दर्शन हुआ है! इन सब बातोंका यथार्थ रहस्य क्या है? मुझपर अनुग्रह करके बताइये!'

श्रीभगवानने कहा -- विप्रवर! मूक चाण्डाल सदा अपने माता-पितामें भक्ति रखता  है! सुभा देवी पतिव्रता है! तुलाधार सत्यवादी है और सब लोगोंके प्रति समान भाव रखता है! अद्रोहकने लोभ और कामपर विजय पायी है तथा वैष्णव मेरा अनन्य भक्त है! इन्हीं सदगुणोंके कारण प्रसन्न होकर मैं इन सबके घरमें सानन्द निवास करता हूँ! मेरे साथ सरस्वती और लक्ष्मी भी इन लोगोंके यहाँ मौजूद रहती हैं! 

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मंगलवार, 20 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान





चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार
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तुम मेरे भक्त और तीर्थरूप हो; किन्तु तुमने जो बगुलेकी मृत्युके लिये शाप दिया था, उसके दोषसे छुटकारा दिलानेके लिये मैंने ही वहाँ उपस्थित होकर कहा कि 'तुम पुण्यवानोंमें श्रेष्ट और तीर्थस्वरुप महात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ!' तात! उस महात्माका दर्शन करके तुमने देखा ही था कि वह किस प्रकार अपने माता-पिताका पूजन करता था! उन सभी महात्माओंके दर्शनसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे और मेरा संपर्क होनेसे आज तुम मेरे मंदिरमें आये हो! करोड़ों जन्मोंके बाद जिसके पापोंका क्षय होता है, वह धर्मज्ञ  पुरुष मेरा दर्शन करता है; जिससे उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है! वत्स! मेरे ही अनुग्रहसे तुमको मेरा दर्शन हुआ है! इसलिये तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार मझसे वर माँग लो! 

ब्राह्मण बोला --नाथ! मेरा मन सर्वथा आपके ही ध्यानमें स्थिर रहे, सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी माधव! आपके सिवाय कोई भी दूसरी वस्तु मुझे कभी प्रिय न लगे!

श्री भगवान् ने कहा -- निष्पाप ब्राह्मण! तुम्हारी बुद्धिमें सदा ऐसा ही उत्तम विचार जाग्रत रहता है; इसलिये तुम मेरे धाममें आकर मेरे ही समान दिव्य भोगोंका उपभोग करोगे, किन्तु तुम्हारे माता-पिता तुमसे आदर नहीं पा रहे हैं; अतः पहले माता-पिताकी  पूजा करो, इसके बाद मेरे स्वरूपको प्राप्त हो सकोगे! उनके दुःखपूर्ण उच्छ्वास और क्रोधसे तुम्हारी तपस्या प्रतिदिन नष्ट हो रही है! जिस पुत्रके ऊपर सदा माता-पिताका कोप रहता है, उसको नरकमें पड़नेसे मैं, ब्रह्मा और महादेवजी भी नहीं रोक सकते! इसलिये तुम माता-पिताके पास जाओ और यत्नपूर्वक उनकी पूजा करो! फिर उन्हींकी कृपासे तुम मेरे पदको प्राप्त होगे! 

शनिवार, 17 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान




भगवान् के रहनेके पाँच स्थान :..........गत ब्लॉग से आगे.......

उनकी बात सुनकर जब ब्राह्मणने देवमंदिरमें प्रवेश किया तो देखा - वे ही विप्ररूपधारी भगवान् कमलके आसनपर विराजमान हैं, ब्रह्मणने मस्तक झुकाकर  उन्हें प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके दोनों चरण पकड़कर कहा - 'देवेश्वर ! अब मुझपर प्रसन्न  होइये। मैंने पहले आपको नहीं पहचाना था । प्रभो! इस लोक और परलोकमें  भी मैं आपका किंकर बना रहूँ। मधुसूदन  ! मुझे अपने ऊपर आपका प्रत्यक्ष अनुग्रह दिखायी दिया है! यदि मुझपर कृपा हो तो मैं आपका साक्षात स्वरुप देखना चाहता हूँ!'

भगवान् श्रीविष्णु बोले -- भूदेव! तुम्हारे ऊपर मेरा प्रेम सदा ही बना रहता है! मैंने स्नेहवश ही तुम्हें पुण्यात्मा महापुरुषोंका दर्शन कराया है! पुण्यवान महात्माओंके एक बार भी दर्शन, स्पर्श , ध्यान एवं नामोच्चारण करनेसे तथा उनके साथ वार्तालाप करनेसे मनुष्य अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है! महापुरुषोंका नित्य संग करनेसे सब पापोंका नाश हो जाता है तथा मनुष्य अनंत सुख भोगकर मेरे स्वरुपमें लीन होता है! जो मनुष्य पुन्य तीर्थों में स्नान करके शंकरजी तथा पुण्यात्मा पुरुषोंके आश्रमका दर्शन करता है, वह भी मेरे शारीरमें लीन हो जाता है! एकादशी तिथिको -- जो मेरा ही दिन (हरिवासर) है -- उपवास करके जो लोगोंके सामने पुण्यमयी कथा कहता है, वह भी मेरे स्वरूपमें लीन हो जाता है! मेरे चरित्रका श्रवण करते हुए जो रात्रीमें जागता है, उसका भी मेरे शारीरमें ले होता है! विप्रवर! जो प्रतिदिन ऊँचे स्वरसे गीत गाते और बाजा बजाते हुए मेरे नामोंको स्मरण करता है,उसका भी मेरी देहमें ले होता है! जिसका मन तपस्वी, रजा और गुरुजनोंसे कभी द्रोह नहीं करता, वह भी मेरे स्वरुपमें लीन होता है! 

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गुरुवार, 15 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान





चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार
भगवान् के रहनेके पाँच स्थान :..........गत ब्लॉग से आगे.......

व्यासजी कहते हैं -- तदन्तर अद्रोहककी गलीमें जाकर द्विजने उनका दर्शन किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ उनसे धर्ममय उपदेश तथा हितकी बातें पूछीं! 

सज्जनाद्रोहकने कहा -- धर्मज्ञ ब्राह्मण! आप पुरुषोंमें श्रेष्ट वैष्णवके पास जाइये! उनका दर्शन करनेसे इस समय आपका मनोरथ सफल होगा! बगुलेकी मृत्यु तथा आकाशमें वस्त्र न सूखने आदिका कारण आपको विदित हो जायगा! इसके सिवा आपके ह्रदयमें  और भी जो-जो कामनाएँ हैं, उनकी भी पूर्ति हो जायगी! 

 यह सुनकर वह ब्राह्मण द्विजरूपधारी  भगवान् के साथ प्रसन्नता -पूर्वक वैष्णवके यहाँ आया!  वहाँ पहुँचकर उसने सामने बैठे हुए सुद्ध ह्रदयवाले एक तेजस्वी पुरुषको देखो, जो समस्त सुद्ध लक्षणोंसे संपन्न एवं अपने तेजसे देदीप्यमान थे! धर्मात्मा द्विजने ध्यानमग्न हरीभक्तसे कहा- 'महात्मन! मैं बहुत दुरसे आपके पास आया हूँ! मेरे लिये जो-जो कर्तव्य उचित हो, उसका  उपदेश कीजिये!'

 वैष्णवने कहा - देवताओंमें श्रेष्ट भगवान् श्रीविष्णु तुमपर प्रसन्न हैं! इस समय तुम्हें देखकर मेरा ह्रदय उल्लसित -सा हो रहा है! अतः तुम्हें अनुपम कल्याणकी प्राप्ति होगी! आज तुम्हारा मनोरथ सफल होगा! मेरे घरमें भगवान् श्रीविष्णु विराजमान हैं! 

 वैष्णवके यों कहनेपर ब्राह्मणने पुनः उनसे कहा -- 'भगवान् श्रीविष्णु कहाँ हैं, आज कृपा करके मुझे उनका दर्शन कराइये!'

वैष्णवने कहा -- इस सुन्दर देवालयमें प्रवेश करके तुम परमेश्वरका दर्शन करो! ऐसा करनेसे तुम्हें जन्म और मृत्युके बंधनमें डालनेवाले घोर पापसे छुटकारा मिल जायगा! 

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बुधवार, 14 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान





चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान :..........गत ब्लॉग से आगे.

श्रीभगवान् कहते हैं -- ऐसा कहकर महाभाग अद्रोहक अग्निमें प्रवेश कर गये! किन्तु अग्नि उनके शरीर, वस्त्र और केशोंको जला नहीं सका!  आकाशमें खड़े समस्त देवता प्रसन्न होकर उन्हें साधुवाद देने लगे! सबने चारों औरसे उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की, जिन-जिन लोगोंने राजकुमारकी पत्नी और अद्रोहकके सम्बन्धमें कलंकपूर्वक बात कही थी, उनके मुँहपर नाना प्रकारकी कोढ़ हो गयी! देवताओंने वहाँ उपस्थित हो अद्रोहकको आगसे खिंचकर बाहर निकला और प्रसन्नतापूर्वक दिव्य पुष्पोंसे उनका पूजन किया! उनका चरित्र सुनकर मुनियोंको भी बड़ा विस्मय हुआ! समस्त मुनिवरों तथा विभिन्न वर्णोंके मनुष्योंने उन महातेस्जस्वी महात्माका पूजन किया और उन्होंने भी सबका विशेष आदर किया! उस समय देवताओं, असुरों और मनुष्योंने मिलकर उनका नाम सज्जनाद्रोहक रखा! उनके चरणोंकी धूलिसे पवित्र हुई भूमिके ऊपर खेतीकी उपज अधिक होने लगी! देवताओंने राजकुमारसे कहा -'तुम अपनी इस स्त्रीको स्वीकार करो! इन अद्रोहकके समान कोई मनुष्य इस संसारमें नहीं हुआ है, इस समय इस पृथ्वीपर दूसरा कोई ऐसा मनुष्य नहीं हैं, जिसे काम और लोभने परास्त न किया हो! देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, मृग, पक्षी, और कीट आदि सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये यह काम दुर्जय है! काम, लोभ और क्रोधके कारण ही प्राणियोंको सदा जन्म लेना पड़ता है! काम ही संसार-बंधनमें डालनेवाला है! प्रायः कहीं भी कामरहित पुरुषका मिलना कठिन है! इन अद्रोहकने सबको जीत लिया है; चौदहों भुवनोंपर विजय प्राप्त की है! इनके ह्रदयमें भगवान् श्रीवासुदेव बड़ी प्रसन्नताके साथ नित्य विराजमान रहते  है! इनका स्पर्श और दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और निष्पाप होकर अक्षय स्वर्ग प्राप्त करते हैं!'

        यों कहकर देवता विमानोंपर बैठ आनन्दपूर्वक स्वर्गलोकको पधारे! मनुष्य भी संतुष्ट होकर अपने-अपने स्थानको चल दिये तथा वे दोनों स्त्री-पुरुष भी अपने राजमहलको चले गये! तबसे अद्रोहकको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है! वे देवताओंको भी देखते हैं और तीनों लोकोंकी बातें अनायास ही जान लेते हैं!

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मंगलवार, 13 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान



चैत्र कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार
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इस प्रकार छ: मास व्यतीत होनेपर राजकुमारीके पति अद्रोहकके नगरमें आये! उन्होंने लोगोंसे अद्रोहक तथा अपनी स्त्रीके बर्तावके सम्बन्धमें पुछा! लोगोंने भी अपनी-अपनी रूचिके अनुसार उत्तर दिया! कोई राजकुमारके प्रबन्धको उत्तम बताते थे! और कुछ लोग इस प्रकार उत्तर देते थे -- 'भाई! तुमने अपनी स्त्री उसे सौंप दी है और वह उसीके साथ शयन करता है! स्त्री  और पुरुषके संसर्ग होनेपर दोनोंके मन शांत कैसे रह सकते हैं!' अद्रोहकने अपने धर्माचरणके बलसे लोगोंकी कुत्सित चर्चा सुन ली! तब उनके मनमें लोकनिंदासे मुक्त होनेका सुभ संकल्प प्रकट हुआ! उन्होंने स्वयं लकड़ी एकत्रित करके एक बड़ी चिता बनायीं और उसमें आग लगा दी! चिता प्रज्वलित हो उठी! इसी समय प्रतापी राजकुमार अद्रोहकके घर आ पहुँचे! वहाँ उन्होंने अद्रोहक तथा अपनी पत्नीको भी देखा, पत्निका मुख प्रसन्नतासे खिला हुआ था और अद्रोहक अत्यंत विषादयुक्त थे! उन दिनोंकि मानसिक स्थिति जानकार राजकुमारने कहा -- 'भाई! मैं आपका मित्र हूँ और बहुत दिनोंके बाद यहाँ लौटा हूँ! आप मुझसे  बातचीत क्यों नहीं करते?'

अद्रोहकने कहा -- मित्र! मैंने आपके हितके लिये जो दुष्कर्म किया है, वह लोकनिंदाके कारण व्यर्थ-सा हो गया है! अतः मैं अग्निमें प्रवेश करूँगा! सम्पूर्ण देवता और मनुष्य मेरे इस कार्यको देखें!

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सोमवार, 12 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान






चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, सोमवार
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यह सुनकर अद्रोहकने उस विज्ञ राजकुमारसे कहा -- 'भैया! मुझे दोष न देना! इस त्रिभुवन -मोहिनी तुरुणीकी रक्षा करेनेमें कौन पुरुष समर्थ हो सकता है!' 

राजपुत्रने कहा -- मैं सब बातोंका भलीभाँति विचार करके ही आपके पास आया हूँ! यह आपके घरमें रहे, अब मैं जाता हूँ! 
             
      राजकुमारके यों कहनेपर वे फिर बोले -- 'भैया! इस शोभा -सम्पन्न नगरमें बहुतेरे कामी पुरुष भरे पड़े हैं! यहाँ किसी स्त्रीकी सतीत्वकी रक्षा कैसे हो सकती है!'  राजकुमार पुनः बोले -- 'जैसे भी हो रक्षा कीजिये, मैं  तो अब जाता हूँ!' गृहस्त अद्रोहकने धर्म- संकटमें पड़कर कहा -- 'तात! मैं उचित और हितकारी समझकर इसके साथ सदा अनुचित बर्ताव करूँगा और उसी अवस्थामें ऐसी स्त्री सदा मेरे घरमें सुरक्षित रह सकती है! अन्यथा इस अरक्ष्य वस्तुकी रक्षाके लिये आप ही कोई अनुकूल और प्रिय उपाय बतलाइये! इसे मेरी शय्यापर मेरी एक और स्त्रीके साथ शयन करना होगा! फिर भी यदि आप इसे अपनी वल्लभा समझें, तब तो यह रह सकती हैं नहीं तो यहाँसे चली जाय!'

यह सुनकर राजकुमारने एक क्षणतक कुछ विचार किया; फिर बोले -- 'तात! मुझे आपकी बात स्वीकार है! आपको जो अनुकूल जान पड़े  वही कीजिये!' ऐसा कहकर राजकुमार अपनी पत्नीसे बोले -- 'सुंदरी! तुम इनके कथनानुसार सब कार्य करना, तुमपर कोई दोष नहीं आयेगा! इसके लिये मेरी आज्ञा है!' यों कहकर वे अपने पिता महराजके आदेशसे गंतव्य स्थानपर चले गये! तदन्तर रातमें अद्रोहकने जैसा कहा था वैसा ही किया! वे धर्मात्मा नित्यप्रति दोनों स्त्रियोंके बीचमें शयन करते थे! फिर भी वे अपनी और परायी स्त्रीके विषयमें कभी धर्मसे विचलित नहीं होते थे! अपनी स्त्रीके स्पर्शसे ही उसे कामोपभोगकी इच्छा होती थी! इधर राजकुमारकी स्त्रीके स्तन भी बार-बार उनकी पीठमें लग जाते थे, किन्तु उसका उनके प्रति वैसा ही भाव होता था, जैसा बालक पुत्रका माताके स्तनोंके प्रति होता है! वे प्रतिदिन उसके प्रति मात्रु भावको ही दृढ रखते थे! क्रमशः उनके  ह्रदयसे स्त्री-संभोगकी इच्छा  ही जाती रही!  

[१०]

शनिवार, 10 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान





चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार

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ब्राह्मणने कहा -- विप्रवर! आपकी कृपासे मुझे तुलाधरके सर्वज्ञ होनेका कारण ज्ञात हो गया है, अब अद्रोहकका जो वृत्तान्त हो, वह मुझे बताइये! 

श्री भगवान् ने कहा -- विप्रवर! पूर्वकालकी बात है, एक राजपुत्रकी कुलवती स्त्री बड़ी सुन्दर और नयी अवस्थाकी थी! वह कामदेवकी पत्नी रति और इन्द्रकी पत्नी सचीके समान मनको हरनेवाली थी! राजकुमार उसे अपने प्राणोंके समान प्यार करते थे! 

उस सुंदरी तरुणिका नाम भी सुंदरी ही था! एक दिन राज्कुमारको राजकार्यके लिए अकस्मात बाहर जानेके लिये उघत होना पड़ा! उन्होंने मन -ही - मन सोचा -- 'मैं प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी अपनी इस भार्याको किस स्थान पर रखूँ, जिससे इसके सतित्वकी रक्षा निश्चितरूपसे हो सके!' इस बातपर खूब बार विचार करके राजकुमार सहसा अद्रोहकके घरपर आये और उनसे अपनी पत्नीकी रक्षाका प्रस्ताव करने लगे! उनकी बात सुनकर अद्रोहकको बड़ा विस्मय  हुआ! वे बोले -- 'तात! न तो मैं आपका पिता हूँ न भाई हूँ, न बान्धव हूँ, न आपकी पत्निके पिता-माताके  कुलका ही; तथा सुहदोंमेंसे कोई भी नहीं हूँ, फिर मेरे घरमें इसको रखनेसे आप किस प्रकार निश्चिंत हो सकेंगे?'

राजकुमार बोले -- महात्मन! इस संसारमें आपके समान धर्मज्ञ और जितेन्द्रिय पुरुष दूसरा कोई नहीं है!   

[९]

गुरुवार, 8 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान








फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार


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यों कहकर तुलाधार  खरीद -बिक्रिमें लग गया! नरोत्तमने विप्ररूपधारी भगवान् से पुछा -- 'तात! अब मैं तुलाधारके कथनानुसार सज्जन अद्रोहकके पास जाऊँगा! परन्तु मैं उनका घर नहीं जानता!'

श्री भगवान् बोले -- चलो, मैं तुम्हारे साथ उनके घर चलूँगा! तदन्तर मार्गमें जाते हुए भगवान् से ब्राह्मणने पुछा  -- 'तात! तुलाधार न तो देवताओंका एवं ऋषियोंका और न पितरोंका ही तर्पण करता है! फिर देशांतरमें संघटित हुए मेरे वृतांतको यह कैसे जानता है? इससे मुझे बड़ा विस्मय हो रह है! आप इसका सब कारण बताइये! 

श्री भगवान् बोले -- ब्रह्मण! उसने सत्य और समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है; इसीसे उसके ऊपर पितर, देवता तथा मुनि भी संतुष्ट रहते हैं, धर्मात्मा तुलाधार उपर्युक्त गुणोंके कारण ही भुत और भविष्यकी सब बातें जानता है! सत्य से बढ़कर कोई धर्म और झूठसे बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है! जो पुरुष पापसे रहित और समभावमें स्थित है, जिसका चित्त शत्रु, मित्र, उदासीनके प्रति समान है, उसके सब पापोंका नाश हो जाता है और वह भगवान् श्री विष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है! समता धर्म और समता ही उत्कृष्ट तपस्या है! जिसके ह्रदयमें सदा समता विराजती है, वही पुरुष सम्पूर्ण लोकोंमें श्रेष्ट योगियोंमें गणना करनेके योग्य और निर्लोभ होता है, जो सदा इसी प्रकार समतापूर्ण बर्ताव करता है, वह अपनी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है! उस पुरुष में  सत्य, इन्द्रिय-संयम, मनोनिग्रह, धीरता, स्थिरता, निर्लोभता और आलस्यहीनता -- ये सभी गुण प्रतिष्ठित होते हैं! समताके प्रभावसे धर्मज्ञ पुरुष देवलोक और मनुष्यलोकके सम्पूर्ण वृतांतोंको जान लेता है! उसकी देहके भीतर भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं! सत्य और सरलता आदि गुणोंमें उसकी समानता करनेवाला इस संसारमें दूसरा कोई नहीं होता! वह साक्षात धर्मका स्वरुप होता है और वही इस जगतको धारण करता है! 

[८]
  

बुधवार, 7 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान


          भी क्तों को होली की शुकानायें 

             
 फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार

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ब्राह्मण ने कहा -- वह तो मुझे धर्म तुलाधारसे प्रश्न करनेके लिये उपदेश देती है!

श्रीभगवान् बोले -- 'मुनिश्रेष्ट! आओ, मैं उसके पास चलता हूँ!' यों कहकर भगवान् जब चलने लगे, तब ब्राह्मणने पूछा -- 'तुलाधार कहाँ रहता है?'

श्रीभगवान् ने कहा -- जहाँ मनुष्योंकी भीड़ एकत्रित है और नाना प्रकारके द्रव्योंकी बिक्री हो रही है, उस बाजारमें तुलाधार वैश्य इधर-उधर क्रय -विक्रय करता है! उसने कभी मन, वाणी या क्रिया द्वारा किसीका कुछ बिगाड़ नहीं किया, असत्य नहीं बोला और दुष्टता नहीं की! वह सब लोगोंके हितमें तत्पर रहता हैं! सब प्राणियोंमें समान भाव रखता है तथा ढेले-पत्थर और स्वर्ण को समान समझता है! लोग जौ,नमक,तेल , घी, अनाजकी ढेरियाँ तथा अन्यान्य संगृहीत वस्तुएँ उसकी जबानपर ही लेते-देते हैं! वह प्राणान्त उपस्थित होनेपर भी सत्य छोड़कर कभी झूठ नहीं बोलता! इसीसे वह धर्म-तुलाधार कहलाता है! 

श्री भगवानके यों कहनेपर ब्राह्मण नाना प्रकारके रसोंको बेचते हुए तुलाधारको देखा! वह बिक्रीकी वस्तुओंके सम्बन्धमें बातें कर रहा था! बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ उसे चारों ओरसे घेरकर खड़ी थीं! ब्राह्मणको उपस्थित देखकर तुलाधारने मधुर वाणीमें पूछा-- 'ब्रह्मण ! यहाँ कैसे पधारना हुआ?'

ब्राह्मण ने कहा -- मुझे धर्मका उपदेश करो, मैं इसलिये तुम्हारे पास आया हूँ! 

तुलाधार बोला -- विप्रवर! जबतक लोग मेरे पास रहेंगे, तबतक मैं निश्चिन्त नहीं हो सकूँगा ! पहरभर राततक यही हालत रहेगी! अतः आप मेरा उपदेश मानकर धर्माकरके पास जाइये!
बगुलेकी मृत्युसे होनेवाला दोष और आकाशमें धोती सुखानेका रहस्य -- यह सभी बातें आगे आपको मालुम हो जाएँगी! धर्माकरका नाम अद्रोहक है! वे बड़े सज्जन हैं! उनके पास जाइये! वहाँ उनके उपदेशसे आपकी कामना सफल होगी!  

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मंगलवार, 6 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान




फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार


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व्यासजी कहत हैं -- यों कहकर भगवान् वहीं अंतर्धान हो गये! उन्हें अदृशय होते देख ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ! उसने पतिव्रताके घर जाकर उसके विषयमें पूछा! अतिथिकी बोली सुनकर पतिव्रता स्त्री वेगपूर्वक घरसे निकली और ब्राह्मणको आया देखकर दरवाजेपर खड़ी हो गयी! ब्रह्मणने उसे देखकर प्रसन्नतापूर्वक उससे कहा -- 'देवी! तुमने जैसा देखा और समझा है उसके अनुसार स्वयं ही सोचकर मेरे लिये प्रिय और हितकी बात बताओ!'

पतिव्रता बोली-- ब्राह्मण! इस समय मुझे पतिदेवकी पूजा करनी है, अतः अवकाश नहीं है; इसलिए आपका कार्य पीछे करुँगी! इस समय मेरा आतिथ्य ग्रहण कीजिये! 

ब्राह्मण बोला -- कल्याणी! मेरे शरीरमें इस समय भूख-प्यास और थकावट नहीं है! मुझे अभीष्ट बात बताओ, नहीं तो तुम्हें शाप दे दूँगा! 

तब उस पतिव्रताने भी कहा -- 'द्विजश्रेष्ट! मैं बगुला नहीं हूँ, आप धर्म तुलाधारके पास जाइये और उन्हींसे अपने हितकी बात पूछिये!' यों कहकर वह महाभागा पतिव्रता घरके भीतर चली गयी! तब ब्राह्मणने चाण्डालके घरकी भाँती वहाँ भी विप्ररूपधारी भगवान् को देखा! उन्हें देखकर वह बड़ा विस्मयमें पड़ा और सोच-विचार कर उनके समीप गया! घरमें जानेपर उसे हर्षमें भरे हुए ब्राह्मण और उस पतिव्रताके भी दर्शन हुए! उन्हें देखकर नरोत्तम ब्रह्मणने कहा -- 'तात! देशान्तरमें जो घटना घटी थी, उसे इस पतिव्रता देवीने भी बता दिया और चाण्डालने तो बताया ही था! ये लोग उस घटनाको कैसे जानते हैं? इस बातको लेकर मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है! इससे बढ़कर महान आश्चर्य और क्या हो सकता है!'

श्रीभगवान बोले -- तात! महात्मा पुरुष अत्यन्त पुण्य और सदाचारके बलपर सबका कारण जान लेते  हैं, जिससे तुम्हें विस्मय हुआ है! मुने! बताओ, इस समय उस पतिव्रताने तुमसे क्या कहा है? 

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सोमवार, 5 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान


भगवान् के रहनेके पाँच स्थान




फल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार


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ब्राह्मणने पूछा -- द्विजश्रेष्ट! कौन स्त्री पतिव्रता होती है? पतिव्रताका क्या लक्षणहै ? मैं जिस प्रकार इस बातको ठीक-ठीक समझ सकूँ, उस प्रकार उपदेश कीजिये!

श्रीभगवान् बोले --जो स्त्री पुत्रकी अपेक्षा सौगुने स्नेहसे पतिकी आराधना करती है, राजाके समान उसका भय मानती है और पतिको भगवान् का स्वरुप समझती है, वह पतिव्रता है! जो गृहकार्य करनेमें दासी, रमणकालमें वेश्या, भोजनके समयमें माताके समान आचरण करती है, और जो विपात्तिमें स्वामीको नेक सलाह देकर मंत्रीका काम करती है, वह स्त्री पतिव्रता मानी गयी है! जो मन, वाणी, शारीर और क्रियाओंद्वारा कभी पतिकी आज्ञाका उल्लघन नहीं करती तथा हमेशा पतिके भोजन कर लेनेपर ही भोजन करती है, उस स्त्रीको पतिव्रता समझना चाहिये! जिस-जिस शय्यापर पति शयन करते हैं वहाँ-वहाँ जो प्रतिदिन यत्नपूर्वक उनकी पूजा करती है, पतिके प्रति कभी जिसके मनमें डाह नहीं पैदा होती, कृपणता नहीं आती और जो मान भी नहीं करती, पतिकी औरसे आदर मिले या अनादर-- दोनोंमें जिसकी समान बुद्धि रहती है, ऐसी स्त्रीको पतिव्रता कहते हैं! जो साध्वी स्त्री सुन्दर वेषधारी परपुरुषको देखकर उसे भ्राता, पिता अथवा पुत्र मानती है, वह भी पतिव्रता है! द्विजश्रेष्ट ! तुम उस पतिव्रताके पास जाओ और उसे अपना मनोरथ कह सुनाओ! उसका नाम शुभा है! वह रूपवती युवती है, उसके ह्रदयमें दया भरी है! बह बड़ी यशस्विनी है उसके पास जाकर तुम अपने हितकी बात पूछो ! 

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शनिवार, 3 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान


फाल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार


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चाण्डालके इतना कहते ही ब्राह्मणदेवता आगबबूला हो गये और बोले -- ' मुझ ब्राह्मणकी सेवा छोड़कर तुम्हारे लिए कौन-सा कार्य बड़ा हो सकता है!'

चाण्डाल बोला -- बाबा! क्यों वर्थ कोप करते हो, मैं  बगुला नहीं हूँ! इस समय आपका क्रोध बगुलेपर ही सफल हो सकता है, दुसरे किसीपर नहीं! अब आपकी धोती न तो आकाशमें सूखती है और न ठहर ही पाती है! अतः आकाशवाणी सुनकर आप मेरे घरपर आये हैं! थोड़ी देर ठहरिये तो मैं आपके प्रश्नका उत्तर दूँगा; अन्यथा पतिव्रता स्त्रीके पास जाइये! द्विजश्रेष्ट! पतिव्रता स्त्रीका दर्शन करनेपर आपका अभीष्ट सिद्ध होगा! 

व्यासजी कहते हैं -- तदन्तर, चाण्डालके घरसे ब्राह्मणरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुने निकलकर उस द्विजसे कहा -- 'चलो, मैं पतिव्रता देवीके घर चलता हूँ!' द्विजश्रेष्ट नरोत्तम कुछ सोचकर उनके साथ चल दिया! उसके मनमें बड़ा विस्मय हो रहा था! उसने रास्तेमें भगवान् से पुछा --' विप्रवर ! आप इस चाण्डालके घरमें जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं, किसलिये निवास करते हैं? 

ब्राह्मणरूपधारी भगवान् ने कहा -- विप्रवर! इस समय तुम्हारा हृदय सुद्ध नहीं हैं; पहले पतिव्रता आदिका दर्शन करो, उसके बाद मुझे ठीक-ठीक जान सकोगे! 

ब्राह्मणने पूछा -- तात! पातिव्रता कौन है? उसका शास्त्र-ज्ञान कितना बड़ा है? जिस कारन मैं उसके पास जा रहा हूँ, वह भी मुझे बतलाइये! 

श्री भगवान् बोले -- ब्राह्मण! नदियोंमें गंगाजी, स्त्रियोंमें पतिव्रता और देवताओंमें भगवान् श्रीविष्णु श्रेष्ट हैं! जो पतिव्रता नारी प्रतिदिन अपने पतिके हित -साधनमें लगी रहती है, वह अपने पितृकुल और पतिकुल दोनों कुलोंकी सौ-सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देती है! 

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शुक्रवार, 2 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान



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यह आकाशवाणी सुनकर ब्राह्मण मूक चाण्डालके घर गया! वहाँ जाकर उसने देखा, वह चाण्डाल सब प्रकारसे अपने माता-पिताकी सेवामें लगा है! जाड़ेके दिनोंमें वह अपने माँ-बापको स्नानके लिये गरम जल देता, उनके शारीरमें तेल मलता, तापनेके लिये अंगीठी जलाता, भोजनके पश्चात् पान खिलाता और रुईदार कपड़े पहननेको देता था! प्रतिदिन मिष्टान्न भोजनके लिये परोसता और वसंत ऋतूमें महुएकी सुगन्धित माला पहनाता था! इनके लिये और भी जो भोग-सामग्रियाँ प्राप्त होतीं, उन्हें देता और भाँति-भांतिकी आवश्यकताएँ पूर्ण किया करता था! गर्मीके मौसममें प्रतिदिन माता- पिताको पंखा झलता था! इस प्रकार नित्यप्रति उनकी परिचर्या करके ही वह भोजन करता था! माता-पिताकी थकावट और कष्टका निवारण करना उसका सदाका नियम था! इन पुण्य कर्मोंके कारण चाण्डालका घर बिना किसी आधार और खंबेके आकाशमें स्थित था! उसके उंदर त्रिभुवनके स्वामी भगवान् श्रीहरि मनोहर ब्राह्मणका रूप धारण किये नित्य क्रीडा करते थे! वे सत्यस्वरूप परमात्मा अपने महान् सत्यमय  तेजस्वी विग्रहसे उस चाण्डाल -मंदिरकी शोभा बढ़ाते थे! वह सब देखकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ! उसने मूक चाण्डालसे कहा -- 'तुम मेरे पास आओ, मैं तुमसे सम्पूर्ण लोकोंके सनातन हितकी बात पूछता हूँ; उसे ठीक -ठीक बताओ!' 

मूक चाण्डाल बोला - विप्र! इस समय में माता-पिताकी सेवा कर रहा हूँ, आपके पास कैसे आऊँ ? इनकी पूजा करके आपकी आवश्यकता पूर्ण करूँगा; तबतक मेरे दरवाजेपर ठहरिये, मैं आपका अतिथि -सत्कार करूँगा! 

                                                                         [3]

गुरुवार, 1 मार्च 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान




भगवान् के रहनेके पाँच स्थान :............गत ब्लॉग से आगे... 


ब्राह्मणों!  इस विषयमें मैं एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ, यत्नपूर्वक उसका श्रवण करो! इसका श्रवण करके भूतलपर फिर कभी तुम्हें मोह नहीं व्यापेगा! 

पूर्वकालकी बात है -- नरोत्तम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण  था! वह अपने माता-पिताका अनादर करके तीर्थ-सेवनके लिये चल दिया! सब तीर्थोंमें घूमते हुए उस ब्रह्मणके वस्त्र प्रतिदिन आकाशमें ही सूखते थे! इससे उसके मनमें बड़ा भारी अहंकार हो गया! वह समझने लगा, मेरे समान पुण्यात्मा और महायशस्वी दूसरा कोई नहीं है! एक दिन वह मुख ऊपरकी और करके यही बात कह रहा था, इतनेमें ही एक बगुलेने उसके मुँहपर बीट कर दी, तब ब्रह्मणने क्रोधमें आकर उसे शाप दे दिया! बेचारा बगुला राखकी ढेरी बनकर पृथ्वीपर गिर पड़ा! बगुलेकी मृत्यु होते ही नरोत्तमके भीतर महामोहने प्रवेश किया! उसी पापसे अब ब्राह्मणका  वस्त्र आकाशमें नहीं ठहरता था ! यह जानकार उसे बड़ा खेद हुआ! तदन्तर आकाशवाणीने कहा 'ब्राह्मण  ! तुम परम धर्मात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ! वहाँ जानेसे तुम्हें धर्मका ज्ञान होगा! उसका वचन तुम्हारे लिये कल्याणकारी  होगा!'

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