※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 31 जनवरी 2013

गीता की बात का मूल्य है | -2-




|| श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ कृष्ण, चतुर्थी, गुरूवार, वि० स० २०६९
गत बलॉग से आगे....
गत ब्लॉग से आगे.....बहुत-सी स्त्रियाँ गुरु बनाती हैं, कंठी बंधवाती हैं | खूब ध्यान देने की बात है, जो कंठी लिए फिरते हैं, कहते हैं इसे बाँध लो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा | समझना चाहिये कि मैं जिन्हें पाखण्डी समझता हूँ उनका वही चिह्न है | कंठी बँधवाकर उन्हें कुछ देना मूर्खता है, यदि उनकी कंठी में कुछ चमत्कार होता तो क्या वे कंठी लेकर इस तरह घूमते | उनकी तो वह दशा होगी जो मैं वेश्या और भाँड़ की बात कहा करता हूँ | एक वेश्या ने एक ब्राह्मण को भोजन के लिए निमंत्रण दिया | ब्राह्मण ने पूछातू कौन है | वेश्या ने कहामैं खत्राणी हूँ | उसे भोजन कराकर उसने आकाश की ओर देखा |ब्राह्मण ने कहाक्या देखती ? उसने कहाएक ब्राह्मण को भोजन कराने से आकाश से विमान आता है, आप ब्राह्मण तो हैं न | उसने कहा
तू खत्राणी मैं पांडिया तू वेश्या मैं भाँड़ |
तेरे जिमाये मेरे जीमे पत्थर पड़सी राँड़ ||
इसलिए माता, बहनों से प्रार्थना है कि उनके लिए एक नंबर बात यह है कि पति ही उनके लिए साक्षात् ईश्वर है | उनका धर्म केवल पति की सेवा करना ही है | जो पति को छोड़कर दूसरे को गुरु बनाती है वह तो व्यभिचारिणी है | यदि गुरु बनाना ही हो तो परमात्मा को बनाए | चेली बनानेवाला और जो चेली बनती हैदोनों ही नरक में गिरेंगे | उसका एक नंबर गुरु तो पति है, दो नंबर जो पति के पूज्य माता-पितादि हैं वे पूज्य हैं, तीन नंबर में ईश्वर हैं | दूसरे पुरुष को यदि गुरु बना ले तो भगवान् का क्या दोष |उनके यहाँ सम्भवतः यह कानून होगा कि कोई पाप करे तो उसे रोकना नहीं है | राजाओं के राज्य में तो यह कानून है कि कोई विद्रोही हो, उसको रोक दे, किन्तु भगवान् के यहाँ यह कानून नहीं है, यदि कहो यह कानून तो बनाना चाहिए था | ठीक है हमारी सलाह लेते तो मैं यही कहता |
उनका कानून नहीं बदलता, क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं | प्रकरण तो प्रेम का था उसमें यह विषय आ गया | जो अपनी बागडोर भगवान् के हाथ में सौप दे, उसके लिए यह कानून है कि यदि वह पाप करे तो भगवान् उसे रोक सकते हैं |सूत्रधार कठपुतली को नचाता है | उसी तरह नाचती है उस कठपुतली की तरह कोई बन जाय तो भगवान् उसकी बागडोर सँभालने के लिए तैयार हैं | अपने दस इन्द्रियाँ और एक मन है | इन ग्यारह घोड़ों की डोर भगवान् को पकड़ा दो, भगवान् कहते हैं
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज|
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || (गीता १८|६६)
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् कर्तव्य-कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर |’
यह घोषणा केवल अर्जुन के लिए नहीं है, अपितु सबके लिए है | अर्जुन से भगवान् ने फिर पूछा | उन्होंने उत्तर दिया— ‘करिष्ये वचनं तव’ |
कठपुतली और छाया का उदाहरण स्त्री के लिए दिया जा सकता है | स्त्री को पति की छाया बनना चाहिए | विवाह के समय यह प्रतिज्ञा होती है कि तू यदि पतिव्रत धर्म को स्वीकार करे तो मैं तुझे स्वीकार करूँ, इसी प्रकार पति भी स्वीकार करता है, किन्तु उस प्रतिज्ञा का पालन नहीं करते, इसलिए दुर्दशा होती है | जो मेरे मन के अनुसार चले उसके लिए मेरी भगवान् से प्रार्थना है कि पहले उसका कल्याण हो, मेरा बाद में हो | मैं तो खुशामद करता हूँ, इकरार करता हूँ कि मेरे मन के अनुसार कोई चले | इस बात का विरोध करता हूँ कि कोई मेरे शरीर की पूजा करे, मेरी बात की ओर ध्यान ही नहीं दे | मेरा उच्छिष्ट,मेरे चरणों की धूलि ले, मैं इस बात का विरोधी हूँ | जो स्वयं भी इस बात का विरोधी हो, वही मेरे मन के अनुकूल चलनेवाला है |
गीता का अनुवाद गीता-तत्त्वांक(तत्त्वविवेचनी) है | भगवान् ने कहा है जो मेरे गीताशास्त्र का प्रचार करता है उसके समान मेरा प्रिय कार्य करनेवाला कोई नहीं है | इसी प्रकार मैं भी कहता हूँ कि जो गीता-तत्त्वांक का प्रचार करता है उसके समान मुझे कोई भी प्यारा नहीं है | वह भगवान् का और मेरा दोनों का ही प्यारा है, क्योंकि वह भगवान् की ही बात है |भगवान् ने यह बात कही है
सोइ सेवक प्रियतम मम होई | मम अनुसासन मानै जोई ||
मैं यह बात कहता हूँ कि मेरी प्रार्थना के अनुसार कोई भी चले तो मैं उसका ऋणी हूँ | इसलिए भगवान् से मैं प्रार्थना करता हूँ कि मुझे ऋण से मुक्त करना, फिर गुंजाइश हो तो मेरा उद्धार करना| इस बात से मुझे लज्जा नहीं आती, चाहे समाचारपत्र में छाप दो |
यदि मैं आपको जूठन खिलाऊं, अपना पैर पुजवाऊं तो वह तो मेरे लिए कलंक है | मुझे यह विश्वास है कि गीता के अनुसार कोई चले तो उसके उद्धार होने में कोई संदेह नहीं है |
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण!!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका सेठजी ,’जीवन-सुधार की बातेंपुस्तक कोड १५८७ , गीताप्रेस गोरखपुर

बुधवार, 30 जनवरी 2013

गीता की बात का मूल्य है | -1-


             || श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ कृष्ण,तृतीया ,बुधवार, वि० स० २०६९


प्रेम की जो महिमा शास्त्रों में बतलाई गयी है, वैसा प्रेम यदि हो जाय तो कल्याण की तो बात ही क्या है ? उसके द्वारा हजारों का कल्याण हो जाय, उस प्रेम की सिद्धि किसी को भी हो जाय तो मुक्ति तो उसके चरणों में निवास करे |
यह बात बिलकुल सच्ची है | भगवान् के घर अंधेर नहीं है, क्योंकि अपने ऊपर भी तो घटाकर देखते हैं | भगवान् के घर मुझे अंधेर नहीं दीखता | साक्षात् सूर्यनारायण हैं, इनको नारायण समझकर उपासना करे तो ये भी उसे कुपथ्य से बचा लेते हैं, रक्षा करते हैं, मेरी चौदह वर्ष की आयु में मैंने सूर्य भगवान् की उपासना की थी | उस समय मेरे में पर स्त्रियों के प्रति नेत्रों का दोष और मनका दोष कितनी बार घटित हुआ होगा, मैं नहीं बता सकता | सूर्य भगवान् ने मेरी इतनी रक्षा की जिसका वर्णन मैं नहीं कर सकता, फिर भगवान् रक्षा करें इसमें बात ही कौन सी है | यह बात विश्वास की है कि जब-जब काम, क्रोध का आक्रमण हो उस समय भगवान् से प्रार्थना करे—‘हे नाथ ! हे नाथ !उस व्यक्ति को अवश्य सहारा मिलता है,यह बात खरी है |

कोई व्यक्ति महात्मा बना हुआ है, उसमें कोई दोष है तो उसे अपना दोष निकालना चाहिए | सच्चा महात्मा तो दोष निकालेगा,किन्तु जो बना हुआ है वह क्या निकालेगा | यदि कहोभगवान् को तो चेतना चाहिए कि उनके राज्य में यह अंधेर क्यों चलता है? संसार में दम्भी हैं दंभ कर रहे हैं |उसमें भगवान् का क्या हाथ है | भगवान् तो उसीपर हाथ डालते हैं जो भगवान् की शरण हो जाता है | आजकल पाखण्डी लोग भगवान् बनकर अपने आपको ही पुजवा रहें हैं, भगवान् उन्हें अवश्य दण्ड देंगे | और बहुत-सी बातें हैं | जो अपना उच्छिष्ट (जूठन) प्रसाद बताकर लोगों को वितरित करता है, मैं उसका विरोध करता हूँ | जो व्यक्ति अपना उच्छिष्ट दूसरे को देता है, उसको सबसे ज्यादा दण्ड ईश्वर के घर में मिलेगा | वह उसकी मूर्खता है | संसार में कोई भी मनुष्य अपना चित्र पुजवाता है, अपनी जूठन देता है, वह स्वयं तो डूबता ही है और दूसरों को भी डुबाता है |

भगवान् यदि मुझे यह योग्यता दे दें तो मैं पैर पुजवा सकता हूँ, किन्तु यह बात सच्ची होनी चाहिए | मैं जान-बूझकर नरक में नहीं जाना चाहता | यदि भगवान् यह वरदान दे दें कि जिस जिसका तू गुरु बनेगा उसको दर्शन दे दूँगा तो फिर यह काम आजसे ही प्रारम्भ कर दूँ, विलम्ब क्यों करूँ | दस बीस हजार नहीं तो सौ दो सौ को तो शिष्य बना ही लेता | किन्तु एकको भी नहीं बनाया | क्यों नहीं बनाया ? मैं नरक में थोड़े ही जाना चाहता हूँ | मेरी कसौटी बड़ी कड़ी है, मैं तो तुरत दान महापुण्य समझता हूँ | श्रीरामकृष्ण के पास विवेकानंदजी गये, पूछाआपको भगवान् के दर्शन हो गये ? कहाहाँ | पूछादूसरे को भी करा सकते हैं ? उत्तरहाँ |कहा मुझे करायें | उन्होंने विवेकानन्द जी के सिर पर हाथ रखा, तो सुनते है उनकों भगवान् के दर्शन हो गये | इस प्रकार का चमत्कार यदि किसी में दीखे तो उसका उच्छिष्ट लेने के लिए मैं पहले नाम लिखाऊँगा |....शेष अगले ब्लॉग में

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

अमूल्य शिक्षा -3-3-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ कृष्ण, द्वितिया, मंगलवार, वि० स० २०६९

                                              
भगवान हर जगह हाज़िर है; परन्तु अपनी माया से छिपे हुए है | बिना भजन न तो कोई उनको जान सकता है और न विश्वास कर सकता है | भजन से ह्रदय के स्वच्छ होने पर ही भगवान की पहचान होती है | भगवान प्रयत्क्ष है, परन्तु लोग उनको माया के पर्दे के कारण देख नहीं पाते |

शरीर से प्रेम हटाना चाहिये | एक दिन तो इस शरीर को छोड़ना ही पड़ेगा, फिर इससे प्रेम करके मोह में पड़ना कोई बुद्धिमानी नहीं है | समय बीत रहा है, बिता हुआ समय फिर नहीं मिलता, इससे एक क्षण भी व्यर्थ न गवांकर तथा शरीर के भोगो से प्रेम हटा कर परमेश्वर से प्रेम करना चाहिये |

जब निरंतर भजन होने लगेगा, तब आप ही निरन्तर ध्यान होगा | भजन ध्यान का आधार है | अतएव भजन को खूब बढ़ाना चाहिये | भजन के सिवा संसार में उद्धार का और कोई सरल उपाय नहीं है |

भजन को बहुत ही कीमती चीज समझना चाहिये | जब तक मनुष्य भजन को बहुत दामी नहीं समझता, तब तक उससे निरन्तर भजन होना कठिन है | रूपये, भोग, शरीर और जो कुछ भी है, भगवान का भजन इन सभी से अत्यन्त उत्तम है | इस द्रढ़ धारणा होने से ही निरंतर भजन हो सकता है |          

श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

ब्रहमलीन परमश्रधेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका, तत्वचिंतामणि, गीताप्रेस, गोरखपुर

 

सोमवार, 28 जनवरी 2013

अमूल्य शिक्षा -2-3-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ कृष्ण, प्रतिपदा, सोमवार, वि० स० २०६९

                                             

भगवान बड़े ही सुह्रद और दयालु है,वह बिना ही कारण के हित करने वाले और अपने प्रेमी को प्राणों के समान प्रिय समझने वाले है | जो मनुष्य इस तत्व को जानता है, उसको भगवान के दर्शन बिना एक पल के लिए भी कल नहीं पड़ती | भगवान भी अपने भक्त के लिए सब कुछ छोड़ सकते है, पर उस प्रेमी भक्त को एक क्षण भी नहीं त्याग सकते |

मृत्यु को हर समय याद रखना और समस्त संसारिक पदार्थो को क्षणभंगुर समझना चाहिये | साथ ही भगवान के नाम का जप और ध्यान का बहुत तेज अभ्यास करना चाहिये | जो ऐसा करता है, वः परिणाम में परम आनन्द को प्राप्त होता है |

मनुष्य-जन्म सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं मिला है | कीट, पतंग, कुत्ते,सूअर और गधे भी पेट भरने के लिए चेष्टा करते रहते है |यदि उनकी भाँती जन्म बिताया तो मनुष्य-जीवन व्यर्थ है | जिनकी शरीर और संसार अर्थात क्षणभंगुर नाशवान जड वर्ग में सत्ता नहीं है, वही जीवन मुक्त है, उन्ही का जीवन सफल है |

जो समय भगवद्भजन के बिना जाता है वह व्यर्थ जाता है | जो मनुष्य समय की कीमत समझता है. वह एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खो सकता | भजन से अन्तकरण की शुद्धि होती है, तब शरीर और संसार में वासना और आसक्ति दूर होती है, इसके बाद संसार की सत्ता मिट जाती है | एक परमात्मसत्ता ही रह जाती है |         

शेष अगले ब्लॉग में ....

श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

ब्रहमलीन परमश्रधेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका, तत्वचिंतामणि, गीताप्रेस, गोरखपुर

रविवार, 27 जनवरी 2013

अमूल्य शिक्षा -1-3-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

पौष शुक्ल, पूर्णिमा, रविवार, वि० स० २०६९

अपने आत्मा के समान सब जगह सुख-दुःख को समान देखना तथा सब जगह आत्मा को परमेश्वर में एकीभाव से प्रत्यक्ष की भाँती देखना बहुत ऊचा ज्ञान है |

चिंतनमात्र का अभाव करते-करते अभाव करने वाली वृति भी शान्त हो जाय, कोई भी स्फुरणा शेष न रहे तथा एक अर्थमात्र वस्तु ही शेष रह जाये, यह समाधी का लक्षण है |

श्री नारायण देव के प्रेम में ऐसी निमंग्नता हो की शरीर और संसार की सुधि ही न रहे, यह बहुत उच्ची भक्ति है |

नेति-नेति के अभ्यास से ‘नेति-नेति’ रूप निषेध करने वाले संस्कार का भी शान्त आत्मा में या परमात्मा में शान्त हो जाने के समान ध्यान की उच्ची स्थिति और क्या होगी?

परमेश्वर का हर समय स्मरण न करना और उसका गुणानुवाद सुनने के समय न मिलना बहुत बड़े शोक का विषय है |

मनुष्य मेंन दोष देखकर उससे घ्रणा या द्वेष नहीं करना चाहिये | घ्रणा या द्वेष करना हो तो मनुष्य के अन्दर रहने वाले दोषविकारो से करना चाहिये | जैसे किसी मनुष्य को प्लेग हो जाने पर उसके घरवाले प्लेग के भय से उसके पास जाना नहीं चाहते, परन्तु उसको प्लेग की बीमारी से बचाना अवश्य चाहते है, इसलिये अपने को बचाते हुए यथासाध्य चेष्टा पूरी तरह से करते है, क्योकि वह उनका प्यारा है | इसी प्रकार जिस मनुष्य में चोरी,जारी आदि दोष रुपी रोग हो, उसको अपना प्यारा बन्धु समझ कर उसके साथ घ्रणा या द्वेष न करके उसके रोग से बचते हुए उसे रोगमुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिये |

शेष अगले ब्लॉग में ....

श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.. श्री मन्न नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

ब्रहमलीन परमश्रधेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका, तत्वचिंतामणि, गीताप्रेस, गोरखपुर

शनिवार, 26 जनवरी 2013

प्रत्यक्ष भगवद्दर्शन के उपाय-5

                                           || श्री हरि||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,चतुर्दशी,शनिवार, वि० स० २०६९


मान-प्रतिष्ठा को त्यागकर श्रीअक्रूरजी की तरह भगवान् के चरण-कमलों से चिह्नित रजमें लोटनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं |

पदानि तस्याखिललोकपालकिरीटजुष्टामलपादरेणोः |
ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकनि विलक्षितान्यब्जयवाङ्कुशाद्यैः ||
तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः |
रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टत प्रभोरमून्यङ्घ्रिरजांस्यहो इति ||
देहंभृतामियानर्थ हित्वा दम्भं भियं शुचम् |
                        संदेशाद्यो    हरेर्लिङ्गदर्शनश्रवणादिभिः || 
                                     ( श्रीमद्भा० १० | ३८ | २५-२७ )
    जिनके चरणों की परम पावन रज को सम्पूर्ण लोकपालजन आदरपूर्वक मस्तक पर चढ़ाते हैं ऐसे पृथ्वी के आभूषण रूप पद्म, यव, अंकुशादि अपूर्व रेखाओं से अंकित श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों को गोकुल में प्रवेश करते समय अक्रूर जी ने देखा |
    उनको देखते ही आह्लाद से व्याकुलता बढ़ गयी, प्रेमसे शरीर में रोमांच हो आये, नेत्रों से अश्रुपात होने लगे | अहो ! यह प्रभु के चरणों की धूलि है, ऐसे कहते हुए रथ से उतरकर अक्रूरजी वहाँ लोटने लगे |
    देहधारियों का यही एक प्रयोजन है कि गुरु के उपदेशानुसार निर्दम्भ, निर्भय और विगतशोक होकर भगवान् की मनोमोहिनी मूर्ति का दर्शन और उनके गुणों का श्रवणादि करके अक्रूर की भांति हरि की भक्ति करें |
    गोपियों के प्रेम को देखकर ज्ञान और योग के अभिमान को त्यागनेवाले उद्धव की तरह प्रेम में विह्वल होनेपर भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं |
    एक पलको प्रलय के समान बितानेवाली रुक्मिणी के सदृश श्रीकृष्ण से मिलने के लिए हार्दिक विलाप करने से भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं |
    महात्माओं की आज्ञा में तत्पर हुए राजा मयूरध्वज की तरह मौका पड़नेपर अपने पुत्र का मस्तक चीरने में भी नहीं हिचकनेवाले प्रेमी भक्त को भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं |
    ‘बी० ए०’, ‘एम्० ए०’, ‘आचार्य’ आदि परीक्षाओं की जगह भक्त प्रह्लाद की तरह नवधा भक्ति की* सच्ची परीक्षा देने से भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकती हैं |
    भगवान् केवल दर्शन ही नहीं देते वरं द्रौपदी, गजेन्द्र, शबरी, विदुरादि की तरह प्रेमपूर्वक अर्पण की हुई वस्तुओं को वे स्वयं प्रकट होकर खा सकते हैं |
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
              तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः || (गीता ९ | २६ )
पत्र, पुष्प, फल, जल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ | अतएव सबको चाहिए कि परम प्रेम और उत्कंठा के साथ भगवद्दर्शन के लिए व्याकुल हों |



जयदयाल गोयन्दका सेठजी , तत्त्वचिन्तामणि पुस्तक , गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
 

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

प्रत्यक्ष भगवद्दर्शन के उपाय-4



|| श्री हरि||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,चतुर्दशी,शुक्रवार, वि० स० २०६९
 
कुमार भरत की तरह राम-दर्शन के लिए प्रेम में विह्वल होनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं | चौदह साल की अवधि पूरी होने के समय प्रेममूर्ति भरतजी की कैसी विलक्षण दशा थी, इसका वर्णन श्रीतुलसीदासजी ने बहुत अच्छा किया है—
रहेउ एक दिन अवधि अधारा | समुझत मन दुख भयउ अपारा ||
कारन कवन नाथ नहिं आयउ | जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ||
अहह धन्य लछिमन बड़भागी | राम पदारबिंदु अनुरागी ||
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा | ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ||
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी | नहिं निस्तार कलप सत कोरी ||
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ | दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ ||
मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई | मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई ||
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना | अधम कवन जग मोहि समाना ||
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत |
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जणू पोत ||
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात |
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलपात ||
    हनुमान के साथ वार्तालाप होनेके अनन्तर श्रीरामचंद्रजी से भरत-मिलाप होनेके समय का वर्णन इस प्रकार है | शिव जी महाराज देवी पार्वती से कहते हैं—
राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी |
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ||
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही |
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु सिंगार तनु धरि मिले बार सुषमा लही ||
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई |
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ||
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो |
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ||

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

प्रत्यक्ष भगवद्दर्शन के उपाय-3

|| श्री हरि||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,त्रयोदशी,वीरवार,वि० स० २०६९
 
आनन्दमय भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन होने के लिए सर्वोत्तम उपाय ‘सच्चा प्रेम’ है | वह प्रेम किस प्रकार होना चाहिए और कैसे प्रेमसे भगवान् प्रकट होकर प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं ? इस विषय में आपकी सेवा में कुछ निवेदन किया जाता है |

    अनेक विघ्न उपस्थित होनेपर भी ध्रुव की तरह भगवान् के ध्यान में अचल रहनेसे भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं |
    भक्त प्रह्लाद की तरह राम-नामपर आनन्दपूर्वक सब प्रकार के कष्ट सहन करने के लिए एवं तीक्ष्ण तलवार की धार से मस्तक कटाने के लिए सर्वदा प्रस्तुत रहने से भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं |
    श्रीलक्ष्मण की तरह कामिनी-कांचन को त्यागकर भगवान् के लिए वन-गमन करने से भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं |
ऋषिकुमार सुतीक्ष्ण की तरह प्रेमोंमत्त होकर विचरने से भगवान् मिल सकते हैं |
    श्रीराम के शुभागमन के समाचार से सुतीक्ष्ण की कैसी विलक्षण स्थिति होती है इसका वर्णन श्रीतुलसीदासजी ने बड़े ही प्रभावशाली शब्दों में किया है | भगवान् शिव जी उमा से कहते हैं—
होइहैं सुफल आजु मम लोचन | देखि बदन पंकज भव मोचन ||
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी | कहि न जाइ सो दसा भवानी ||
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहीं सूझा | को मैं चलेउं कहाँ नहिं बूझा ||
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई | कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ||
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई | प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ||
अतिशय प्रीति देखि रघुबीरा | प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ||
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा | पुलक सरीर पनस फल जैसा ||
तब रघुनाथ निकट चलि आए | देखि दसा निज जन मन भाए ||
राम सुसाहेब संत प्रिय सेवक दुख दारिद दवन |
मुनि सन प्रभु कह आइ उठु-उठु द्विज मम प्रान सम ||
    श्रीहनुमानजी की तरह प्रेम में विह्वल होकर अति श्रद्धा से भगवान् की शरण ग्रहण करने से भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं |

बुधवार, 23 जनवरी 2013

भगवान् के दर्शन प्रत्यक्ष हो सकते हैं -2-

                                                  || श्री हरि||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,द्वादशी,बुधवार, वि० स० २०६९
 
(२)        भगवान् के मिलने के बहुत-से उपायों में से सर्वोत्तम उपाय है ‘सच्चा प्रेम’ | उसी को शास्त्रकारों ने अव्यभिचारिणी भक्ति, भगवान् में अनुरक्ति, प्रेमा भक्ति और विशुद्ध भक्ति आदि नामों से कहा है |
जब सत्संग, भजन, चिंतन, निर्मलता, वैराग्य, उपरति, उत्कट इच्छा और परमेश्वरविषयक व्याकुलता क्रम से होती है तब भगवान् में सच्चा विशुद्ध प्रेम होता है |
    शोक तो इस बात का है कि बहुत-से भाइयों को तो भगवान् के अस्तित्व में विश्वास नहीं है | कितने भाइयों को यदि विश्वास है तो भी, तो वे क्षणभंगुर नाशवान विषयों के मिथ्या सुखमें लिप्त रहने के कारण उस प्राणप्यारे के मिलने के प्रभाव को और महत्त्व को ही नहीं जानते | यदि कोई कुछ सुन-सुनाकर तथा कुछ विश्वास करके उसके प्रभाव को कुछ जान भी लेते हैं तो अल्प चेष्टा से ही सन्तुष्ट होकर बैठ जाते हैं या थोड़े–से साधनों में ही निराश-से हो जाया करते हैं | द्रव्य-उपार्जन के बराबर भी परिश्रम नहीं करते |
     बहुत-से भाई कहा करते हैं कि हमने बहुत चेष्टा की परन्तु प्राणप्यारे परमेश्वर के दर्शन नहीं हुए | उनसे यदि पूछा जाय कि क्या तुमने फाँसी के मामले से छूटने की तरह भी कभी संसार की जन्म-मरण-रूपी फाँसी से छुटने की चेष्टा की ? घृणास्पद, निंदनीय स्त्री के प्रेम में वशीभूत होकर उसके मिलने की चेष्टा के समान भी कभी भगवान् से मिलने की चेष्टा की ? यदि नहीं, तो फिर यह कहना कि भगवान् नहीं मिलते, सर्वथा व्यर्थ है |
    जो मनुष्य शर-शय्यापर शयन करते हुए पितामह भीष्म के सदृश भगवान् के ध्यान में मस्त होते हैं, भगवान् भी उनके ध्यान में उसी तरह मग्न हो जाते हैं | गीता अ० ४ श्लोक ११ में भी भगवान् ने कहा है—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्थैव भजाम्यहम् |
‘हे अर्जुन ! जो मुझको जैसे भजते हैं मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ |’
 भगवान् के निरंतर नामोच्चार के प्रभाव से जब क्षण-क्षण में रोमांच होने लगते हैं, तब उसके सम्पूर्ण पापों का नाश होकर उसको भगवान् के सिवा और कोई  वस्तु अच्छी नहीं लगती | विरह-वेदना से अत्यंत व्याकुल होने के कारण नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लग जाती है तथा जब वह त्रैलोक्य के ऐश्वर्य को लात मारकर गोपियों की तरह पागल हुआ विचरता है और जलसे बाहर निकाली हुई मछली के सामान भगवान् के लिए तड़पने लगता है, उसी समय आनंदकंद प्यारे श्यामसुंदर की मोहिनी मूर्ति का दर्शन होता है | यही है उस भगवान् से मिलने का सच्चा उपाय |
    यदि किसी को भी भगवान् के मिलने की सच्ची इच्छा हो तो उसे चाहिए कि वह रुक्मिणी, सीता और व्रजबालाओं की तरह सच्चे प्रेमपूरित हृदय से भगवान् से मिलने के लिए विलाप करे |

(३)       यद्यपि प्रकट में तो ऐसे पुरुष कलिकाल में नहीं दिखायी देते जिनको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् के साक्षात् दर्शन हुए हों, तथापि सर्वथा न हों यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि प्रह्लाद आदि की तरह हजारों में से कोई कारणविशेष से ही किसी एककी लोकप्रसिद्धि हो जाया करती है, नहीं तो ऐसे लोग इस बात को विख्यात करने के लिए अपना कोई प्रयोजन ही नहीं समझते |
    यदि यह कहा जाय कि संसार-हित के लिए सबको यह जताना उचित है, सो ठीक है, परन्तु ऐसे श्रद्धालु श्रोता भी मिलने कठिन हैं तथा बिना पात्र के विश्वास होना भी कठिन है | यदि बिना पात्र के कहना आरम्भ का दिया जाय तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं रहता और न कोई विश्वास ही करता है |
    अतः हमें विश्वास करना चाहिए कि ऐसे पुरुष संसार में अवश्य हैं, जिनको उपर्युक्त प्रकार से दर्शन हुए हैं | परन्तु उनके न मिलने में हमारी अश्रद्धा ही हेतु है और न विश्वास करने की अपेक्षा विश्वास करना ही सबके लिए लाभदायक है; क्योंकि भगवान् से सच्चा प्रेम होने में तथा दो मित्रों की तरह भगवान् की मनोमोहिनी मूर्ति के प्रत्यक्ष दर्शन मिलने में विश्वास ही मूल कारण है |

जयदयाल गोयन्दका सेठजी , तत्त्वचिन्तामणि पुस्तक , गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
   

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

भगवान् के दर्शन प्रत्यक्ष हो सकते हैं -1-

|| श्री हरि||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,एकादशी,मंगलवार, वि० स० २०६९
 
 बहुत-से सज्जन मन में शंका उत्पन्न कर इस प्रकार के प्रश्न करते हैं कि दो प्यारे मित्र जैसे आपस में मिलते हैं क्या इसी प्रकार इस कलिकाल में भी भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन मिल सकते हैं ? यदि सम्भव है तो ऐसा कौन-सा उपाय है कि जिससे हम उस मनोमोहिनी मूर्ति का शीघ्र ही दर्शन कर सकें ? साथ ही यह भी जानना चाहते हैं, क्या वर्तमान काल में ऐसा कोई पुरुष संसार में है जिसको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् मिले हों ?
      
वास्तव में तो इन तीनों प्रश्नों का उत्तर वे ही महान पुरुष दे सकते हैं जिनको भगवान् की उस मनोमोहिनी मूर्ति साक्षात् दर्शन हुआ हो |
यद्यपि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ तथापि परमात्मा की और महान पुरुषों की दया से केवल अपने मनोविनोदार्थ तीनों प्रश्नों के सम्बन्ध में क्रमशः कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ |

(१)       जिस तरह सत्ययुगादि में ध्रुव, प्रह्लादादि को साक्षात् दर्शन होने के प्रमाण मिलते हैं उसी तरह कलियुग में भी सूरदास, तुलसीदासादि बहुत-से भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन होने का इतिहास मिलता है; बल्कि विष्णुपुराणादि में तो सत्ययुग की अपेक्षा कलियुग में भगवत-दर्शन होना बड़ा ही सुगम बताया है | श्रीमद्भागवत् में भी कहा—

          कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः |
          द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकिर्त्तानात् ||    (१२ | ३ | ५२)
‘सत्ययुग में निरंतर विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञद्वारा यजन करने से और द्वापर में पूजा (उपासना) करने से जो परमगति की प्राप्ति होती है वही कलियुग में केवल नाम-कीर्तन से मिलती है |’
 
जैसे अरणी की लकड़ियों को मथने से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार सच्चे हृदय की प्रेमपूरित पुकार की रगड़ से अर्थात् उस भगवान् के प्रेममय नामोच्चारण की गम्भीर ध्वनि के प्रभावसे भगवान् भी प्रकट हो जाते हैं | महर्षि पतंजलि ने भी अपने योगदर्शन में कहा है—
               स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग: | (२ | ४४)
‘नामोच्चार से इष्टदेव परमेश्वर के साक्षात् दर्शन होते हैं |’
जिस तरह सत्य-संकल्पवाला योगी जिस वस्तु  के लिए संकल्प करता है वही वस्तु प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है, उसी तरह शुद्ध अन्तःकरणवाला भगवान् का सच्चा अनन्य प्रेमी भक्त जिस समय भगवान् के प्रेममें मग्न होकर भगवान् की जिस प्रेममयी मूर्ति के दर्शन करने की इच्छा करता है उस रूप में ही भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं | गीता अ० ११ श्लोक ५४ में भगवान् ने कहा है—
  
                 भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
                 ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ||
‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार (चतुर्भुज) रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्वसे जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ |’
 
एक प्रेमी मनुष्य को यदि अपने दूसरे प्रेमी से मिलने की उत्कट इच्छा हो जाती है और यह खबर यदि दूसरे प्रेमी को मालूम हो जाती है तो वह स्वयं बिना मिले नहीं रह सकता, फिर भला यह कैसे संभव है कि जिसके समान प्रेम के रहस्य को कोई भी नहीं जानता वह प्रेममूर्ति परमेश्वर अपने प्रेमी भक्त से बिना मिले रह सके ?
अतएव सिद्ध होता है कि वह प्रेममूर्ति परमेश्वर सब काल तथा सब देश में सब मनुष्यों को भक्तिवश होकर अवश्य ही प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं |
 
....शेष अगले ब्लॉग में