※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 7 जून 2016

मनुष्य का कर्तव्य

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, मंगलवार, वि०सं० २०७३

*मनुष्य का कर्तव्य*
गत ब्लॉग से आगे....... यदि मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार इस लोक और परलोक में लाभ देनेवाले कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता तो इसको उसकी मूर्खता, अकर्मण्यता और आलस्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ? जो जान-बूझकर प्रमाद, आलस्य, निद्रा और भोगों से चित्त को हटाकर उसे सन्मार्ग में नहीं लगाता और पतन के मार्ग में आगे बढ़ता जाता है वह स्वयं ही अपना शत्रु है | श्रुति कहती है—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः |
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ||
(केनोपनिषद २ | ५)
‘यदि इस मनुष्य-शरीर में उस परमात्म-तत्त्व को जान लिया जायगा तो सत्य है यानी उत्तम है | और यदि इस जन्म में उसकों नहीं जाना तो महान हानि है | धीर पुरुष सम्पूर्ण भूतों में परमात्मा का चिंतन कर—परमात्मा को समझकर इस देह को छोड़ अमृत को प्राप्त होते हैं अर्थात् इस देह से प्राणों के निकल जानेपर वे अमृतस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं |’

        मनुष्य  को अपनी उन्नति का यह मार्ग स्वयं ही चलकर तय करना पड़ता है , दूसरे के द्वारा यह मार्ग तय नहीं होता | अतएव उसकी इसी में बुद्धिमत्ता और कल्याण है, और यही उसका निश्चित कर्तव्य है कि अत्यन्त सावधानी के साथ प्रतिक्षण अपने को सम्भालते हुए इस लोक  और परलोक के कल्याणकारी साधन को खूब जोर के साथ करता रहे | प्रमाद, आलस्य , भोग एवं दुराचार आदि को कल्याण के मार्ग में अत्यन्त बाधक समझकर उन्हें सर्वथा त्याग दे | श्रुति चेतावनी देती हुई कहती है—
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत |
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ||
(कठोपनिषद ३ | १४)
‘उठो, जागो और महापुरुषों के समीप जाकर उनके द्वारा तत्त्वज्ञान के रहस्य को समझो | कविगण इसे तीक्ष्ण क्षुर के धार के समान अत्यंत कठिन मार्ग बताते हैं |’ परन्तु कठिन मानकर हताश होने की कोई आवश्यकता नहीं | भगवान् में चित्त लगाने से भगवत्कृपा से मनुष्य सारी कठिनाइयों से अनायास ही तर जाता है ‘मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |’ भगवान् ने और भी कहा है—
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||
(गीता ७ | १४)
‘यह मेरी अलौकिक—अति अद्भुत त्रिगुणमयी योगमाया बहुत दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मेरी ही शरण हो जाते हैं वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से सहज ही तर जाते हैं |’ सब देशों और समस्त पदार्थों में सदा-सर्वदा भगवान् का चिंतन करना और भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलना ही शरणागति समझा जाता है | इसी को ईश्वर कि अनन्य भक्ति भी कहते हैं | अतएव जिसका ईश्वर में विश्वास हो, उसके लिए तो ईश्वर का आश्रय ग्रहण करना ही परम कर्तव्य है | जो भलीभांति ईश्वर के शरण हो जाता है, उससे ईश्वर के प्रतिकूल यानी अशुभ कर्म तो बन ही नहीं सकते | वह परम अभय पद को प्राप्त हो जाता है, उसके अंतर में शोक-मोह का आत्यन्तिक अभाव रहता है, उसको सदा के लिए अटल शांति प्राप्त हो जाती है और उसके आनंद का पार ही नहीं रहता | उसकी इस अनिर्वचनीय स्थिति को उदाहरण, वाणी या संकेत के द्वारा समझा या समझाया नहीं जा सकता | ऐसी स्थितिवाले पुरुष स्वयं ही जब उस स्थिति का वर्णन नहीं कर सकते तब दूसरों की तो बात ही क्या है ? मन-वाणी की वहाँ तक पहुँच ही नहीं है | केवल पवित्र हुई शुद्ध बुद्धि के द्वारा पुरुष इसका अनुभव करता है | ऐसा वेद और शास्त्र कहते हैं—
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते |
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ||
(कठोपनिषद १ | ३ | १२)
‘सम्पूर्ण भूतों के हृदय में छिपा हुआ यह आत्मा सबकों प्रतीत नहीं होता, परन्तु यह सूक्ष्मबुद्धिवाले महात्मा पुरुषों से तीक्ष्ण और सूक्ष्मबुद्धि के द्वारा ही देखा जाता है |’ भगवान् स्वयं कहते हैं—
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतिन्द्रियं |
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्वतः ||
(गीता ६ | २१)
‘इन्द्रियों से अतीव केवल शुद्ध हुई सूक्ष्मबुद्धि द्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनंत आनंद है उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी भगवत्स्वरूप से चलायमान नहीं होता |’ उसी अवस्था को प्राप्त करने की चेष्टा मनुष्यमात्र को करनी चाहिए, यही सबका परम कर्तव्य है |

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

सोमवार, 6 जून 2016

मनुष्य का कर्तव्य

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा, सोमवार, वि०सं० २०७३

*मनुष्य का कर्तव्य*
गत ब्लॉग से आगे.......यदि आपको किसी भी धर्म, शास्त्र अथवा प्राचीन महात्माओं के लेखपर विश्वास न हो, तो कम-से-कम एक श्रीमद्भगवद्गीता पर तो जरुर विश्वास करना चाहिए | क्योंकि गीता का उपदेश प्रायः सभी मतों के अनुकूल पड़ता है | इसपर विश्वास करके उसी की शरण होकर साधन में लग जाना चाहिए | कदाचित् ईश्वर के अस्तित्व में भी आपके मनमें संदेह हो तो वर्तमान समय में आपकी दृष्टि में जगत में जितने श्रेष्ठ पुरुष हैं उन सबमें जो आपको सबसे श्रेष्ठ मान्य हों, उन्हीं के बतलाये हुए मार्गपर कमर कसकर चलना चाहिए | यदि वर्तमानकाल के किसी भी साधु-महात्मा या सत्पुरुष पर आपका विश्वास न हो, तो आपको यह विचार करना चाहिए कि क्या सारे संसार में हमसे उत्तम कल्याणमार्ग के ज्ञाता कोई नहीं हैं ? यदि यह कहते हों कि ‘हैं तो सही पर हमको नहीं मिले |’ तो उनकी खोज करनी चाहिए, अथवा यदि यह समझते हों कि ‘ हमसे तो बहुत-से पुरुष श्रेष्ठ हैं परन्तु कल्याणमार्ग के भलीभांति उपदेश करनेवाले पुरुष संसार में बहुत ही थोड़े हैं, जो हैं उनका भी हम-जैसे अश्रद्धालुओं को मिलना कठिन है, और यदि कहीं मिल भी जाते हैं तो पहचानने की योग्यता न होनेके कारण हम उन्हें पहचान नहीं सकते |’ ऐसी अवस्था में आपके लिए यह तो अवश्य ही विचारणीय है कि आप जो कुछ चेष्टा कर रहे हैं उससे क्या आपका यथार्थ कल्याण हो जायगा ? यदि संतोष नहीं है तो कम-से-कम अपनी उन्नति के लिए आपको उत्तरोत्तर विशेष प्रयत्न तो करना ही चाहिए | शम, दम, धृति, क्षमा, शांति, सन्तोष, जप, तप, सत्य, दया, ध्यान और सेवा आदि गुण और कर्म आपके विचार में जो उत्तम प्रतीत हों उनका ग्रहण तथा प्रमाद, आलस्य, निद्रा, विषयासक्ति, झूठ, कपट, चोरी-जारी आदि दुर्गुण और दुष्कर्मों का त्याग करना चाहिए | प्रत्येक कर्म करने से पूर्व सावधानी के साथ यह सोच लेना चाहिए कि मैं जो  कुछ कर रहा हूँ वह मेरे लिए यथार्थ लाभदायक है या नहीं और उसमें जहाँ कहीं भी त्रुटि मालूम पड़े, उसका बिना विलम्ब सुधार कर लेना चाहिए | मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है, लाखों रूपये खर्च करने पर भी जीवन का एक क्षण नहीं मिल सकता | ऐसे मनुष्य-जीवन का समय निद्रा, आलस्य, प्रमाद और अकर्मण्यता में व्यर्थ कदापि नहीं खोना चाहिए | जो मनुष्य अपने इस अमूल्य समय को बिना सोचे-विचारे बितावेगा, उसे आगे चलकर अवश्य ही पछताना पड़ेगा | कवि ने क्या ही सुंदर कहा है—
बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछिताय |
काम बिगारे आपनो जग में होत हँसाय ||
जगमें होत हँसाय चित्त में चैन न पावै |
खान पान सनमान राग रँग मन नहिं भावै ||
कह गिरधर कविराय कर्म गति टरट न टारे |
खटकत है जिय मांहि किया जो बिना बिचारे ||
        अतः अपनी बुद्धि के अनुसार मनुष्य को अपना समय बड़ी ही सावधानी से ऊँचे-से-ऊँचे काम में लगाना चाहिए जिससे आगे चलकर पश्चात्ताप न करना पड़े | नहीं तो गोस्वामी जी के शब्दों में—
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ |
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ||
-सिवा पछताने के अन्य कोई उपाय न रह जायगा | यह मनुष्य-जीवन बहुत ही महँगे मोल से मिला है | काम बहुत करने हैं, समय बहुत थोड़ा है, अतएव चेतकर अपने जीवन के बचे हुए समय को बुद्धिमानी के साथ केवल कल्याण के मार्ग में ही लगाना चाहिए |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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रविवार, 5 जून 2016

मनुष्य का कर्तव्य

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, रविवार, वि०सं० २०७३

*मनुष्य का कर्तव्य*

       विचार की दृष्टि से देखनेपर यह स्पष्ट ही समझ में आता है कि आजकल संसार में प्रायः सभी लोग आत्मोन्नति की ओरसे विमुख-से हो रहे हैं | ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जो आत्मा के उद्धार के लिए चेष्टा करते हैं | कुछ लोग जो कोशिश करते हैं उनमें भी अधिकांश किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं | श्रद्धा-भक्ति की कमी के कारण यथार्थ मार्गदर्शक का भी अभाव-सा हो रहा है | समय, संग और स्वभाव की विचित्रता से कुछ लोग तो साधन की इच्छा होनेपर भी अपने विचारों के अनुसार चेष्टा नहीं कर पाते | इसमें प्रधान कारण अज्ञता के साथ-ही-साथ ईश्वर, शास्त्र और महर्षियों पर अश्रद्धा का होना है | परन्तु यह श्रद्धा किसी के करवाने से नहीं हो सकती | श्रद्धा-संपन्न पुरुषों के संग और निष्कामभाव से किये हुए तप, यज्ञ, दान, दया और भगवद्भक्ति आदि साधनों से हृदय के पवित्र होनेपर ईश्वर, परलोक, शास्त्र और महापुरुषों में प्रेम एवं श्रद्धा होती है | श्रद्धा ही मनुष्य का स्वरुप है, इस लोक और परलोक में श्रद्धा ही उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा है | श्रीगीता में कहा है—
सत्त्वानुरूपा  सर्वस्व   श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोयं  पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ||
(१७ | ३)
‘हे भारतवंशी अर्जुन ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला हैवह स्वयं भी वही है | अर्थात् जिसकी जैसी श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरुप समझा जाता है |’ अतः मनुष्य को सच्चे श्रद्धा-संपन्न बनने की कोशिश करनी चाहिए |

         आप ईश्वर के किसी भी नाम या किसी भी रूप में श्रद्धा करें, आपकी वह श्रद्धा ईश्वर में ही समझी जायगी क्योंकि सभी नाम-रूप ईश्वर के हैं | आपको जो धर्म प्रिय हो, जिस ऋषि, महात्मा या महापुरुषपर आपका विश्वास हो, आप उसीपर श्रद्धा करके उसी के अनुसार चल सकते हैं | आवश्यकता श्रद्धा-विश्वास की है | ईश्वर, धर्म और परलोक आदि विशेष करके श्रद्धा के ही विषय हैं | इनका प्रत्यक्ष तो अनेक प्रयत्नों के साथ विशेष परिश्रम करनेपर होता है | आरम्भ में तो इन विषयों के लिए किसी-न-किसी पर विश्वास ही करना पड़ता है, ऐसा न करे तो मनुष्य नास्तिक बनकर श्रेय के मार्ग से गिर जाता है, साधन से विमुख होकर होकर पतित हो जाता |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजीतत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!