※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 31 जुलाई 2013

संत-महिमा-6-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, नवमी, बुधवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 

गत ब्लॉग से आगे….    ऐसा कोई उदाहरण नहीं जिसके द्वारा भगवान की दया का स्वरूप समझाया जा सके | माता का उदाहरण दे तो वह भी उपयुक्त नहीं ही | कारण, दुनिया में असंख्य जीव है और उन सबकी माताओं के ह्रदय में अपने पुत्रों पर जो दया यस स्नेह है, वह सब मिलकर भी उन दयासागर की दया के एक बूद के बराबर भी नहीं है | ऐसी हालत में और किससे तुलना की जाय? तो भी माता का उदाहरण इसलिए दिया जाता है की लोक में जितने उदाहरण है, उन सबमे इसकी विशेषता है | माता अपने बच्चों के लिए जो कुछ भी करती है, उसकी प्रत्येक क्रिया में दया भरी रहती है | इस बात को बच्चे को भी कुछ-कुछ अनुभव रहता है | जब बच्चा शरारत करता है तो उसके दोषनिवारणार्थ माँ उसे धमकाती मारती है और उसको अकेला छोड़ कर कुछ दूर हट जाती है | ऐसी अवस्था में भी बच्चा माता के ही पास जाना चाहता है | दुसरे लोग उससे पूछते है-‘तुम्हे किसने मारा?’ वह रोता हुआ कहता है ‘माँ ने !’ इसपर वे कहते है-‘तो आइन्दा उसके पास नहीं जाना|’ परन्तु वह उनकी बात पर ध्यान न देकर रोता हुआ और माता के ही पास जाना चाहता है | उसे भय दिखलाया जाता है की ‘माँ तुझे फिर मारेगी’ पर इस बात की परवाह न करके अपने सरल भाव से माता के ही पास जाना चाहता है | रोता है, परन्तु चाहता है माँ को ही | जब माता उसे ह्रदय से लगा कर उसके आसूँ पौछती है, आश्वासन देती है, तभी वह शान्त होता है |

इसी प्रकार माता की दया पर विश्वाश करने वाले बच्चे की भाँती जो भगवान के दया-तत्व को जान लेता है और भगवान की मार पर भी भगवान को ही पुकारता है, भगवान उसे अपने ह्रदय से लगा लेते है | फिर जो भगवान की कृपा को विशेष रूप से जान लेता है, उसकी तो बात ही क्या है | शेष अगले ब्लॉग में ...   
 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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मंगलवार, 30 जुलाई 2013

संत-महिमा-5-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, अष्टमी, मंगलवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 
गत ब्लॉग से आगे….केनोपनिषद में एक कथा है-इन्द्र,  अग्नि, वायु और देवों ने विजय में अपने पुरुषार्थ को कारण समझा, इसलिए उन्हें गर्व हो गया | तब भगवान ने उन पर कृपा करके यक्ष के रूप में अपना परिचय दिया और उनके गर्व का नाश किया | जब अग्नि, वायुदेवता परास्त हो गए और समझ गए की हमरे अन्दर वस्तुत: कुछ भी सामर्थ्य नहीं है, तब भगवान ने विशेष दया करके उमा के द्वारा इंद्र को अपना यथार्थ परिचय दिया | सफलता में अपना पुरुषार्थं मानकर मनुष्य गर्व करता है परन्तु अनिवार्य विपति में जब अपने पुरुषार्थ से निराश हो जाता है | तब निरुपाय होकर भगवान के शरण जाता है और आर्त होकर पुकार उठता है-‘नाथ ! मुझे इस घोर संकट स बचाईये | मैं सर्वथा असमर्थ हूँ | मैं जो अपने बल से अपना उद्धार मानता था, वह मेरी भरी भूल थी | राग-द्वेष और काम-क्रोधादि शत्रुओं के दबाने से अब मुझे इस बात का पूरा पता लग गया है की आपकी कृपा के बिना मेरे लिए इनसे छुटकारा पाना कठिन ही नहीं, वरं असम्भव-सा है |’ जब अहंकार को छोड़कर इस तरह सरल भाव से सच्चे ह्रदय से मनुष्य भगवान के शरण हो जाता है तब भगवान उसे अपना लेते है और आश्वासन देते है, क्योकि भगवान की यह घोषणा है-‘जो एक बार भी मेरे शरण होकर कहता है, मैं तुम्हारा हूँ, (तुम मुझे अपना लो) मैं उसे सब भूतों से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |’ (वा० रा० ६|१८|१३) इस पर भी मनुष्य उनके शरण होकर आना कल्याण नहीं करता, यह बड़े आश्चर्य की बात है |

दयासागर भगवान की जीवों पर इतनी अपार दया है की जिसकी कोई सीमा ही नहीं है | वस्तुत: उन्हें दयासागर कहना भी उनकी स्तुति के ब्याज से निन्दा ही करना है | क्योकि सागर तो सीमावाला है, परन्तु भगवान की दया की तो कोई सीमा ही नहीं है अच्छे-अच्छे पुरुष भी भगवान की दया की जितनी कल्पना करते है, वह उससे भी बहुत ही बढ़कर है | उसकी कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती | शेष अगले ब्लॉग में ...   


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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सोमवार, 29 जुलाई 2013

संत-महिमा-४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, सप्तमी, सोमवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 
गत ब्लॉग से आगे..जो लोग भगवत्प्राप्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से सिद्ध होने वाली मानते है, उनको भगवान प्रयत्क्ष दर्शन नहीं देते | हाँ ! उन्हें बड़ी कठिनाई से ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है परन्तु उसमे भी गुरु की शरण तो ग्रहण करनी ही पड़ती है | भगवान स्वयम कहते है ‘उस ज्ञान को तू समझ; श्रोत्रिय ब्रहमनिष्ठ आचर्य के पास जाकर उनको भलीभाति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से परमात्म तत्व को भालीभाती जानने वाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्व ज्ञान का उपदेश करेंगे |’(गीता ४|३४)

श्रुति कहती है ‘उठों, जागों और महानपुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करों | जिस प्रकार छुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्वज्ञानी लोग उस पथ को भी वैसा ही दुर्गम बताते है |’(कठ० १|३|१४)

भगवत्प्राप्ति में केवल अपना पुरुषार्थ मानने का कारण-अहंकाररुपी दोष है | भक्त के इस अहंकार दोष को नष्ट करने के लिए भगवान उसे भीषण संकट में डाल कर यह बात प्रयत्क्ष दिखला देते है की कार्य सिद्धि में अपनी सामर्थ्य मानना मनुष्य की एक बड़ी गलती है इस प्रकार अहंकारनाश के लिए जो विपति में डालना है, यह भी भगवान की विशेष कृपा है | शेष अगले ब्लॉग में ...     

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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रविवार, 28 जुलाई 2013

संत-महिमा-३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, षष्ठी, रविवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 

गत ब्लॉग से आगे..जड धन हमारी चाह के बदले में वैसी चाह नहीं कर सकता, परन्तु भगवान तो, जो उनको चाहता हैं, उसको स्वयं चाहते है और यह निश्चित सत्य है की भगवान की चाह कभी निष्फल नहीं होती, वह अमोघ होती है | अतएव भगवान की चाह से बिना ही प्रयत्न किये भक्त की चाह आप पूर्ण हो जाती है | पर इतना स्मरण रखना चाहिये की भक्त के भक्त के चाहने पर ही भगवान उसे चाहते है | यदि यह कहे की की भक्त के बिना चाहे भगवान क्यों नहीं चाहते ? तो इसका उत्तर यह है की भगवान में वस्तुत: ‘चाह’ है ही नहीं, भक्त की चाह से ही उनमे चाह पैदा होती है | इसपर यह शंका है की जब भक्त की चाह से ही भगवान में चाह होकर भगवान मिलते है तो केवल भगवत्कृपा की प्रधानता कहाँ रही? चाह भी तो एक प्रयत्न ही है ? इसका उत्तर यह है की भगवान को प्राप्त करने की इच्चामात्र को प्रयत्न नहीं कहा जा सकता | और यदि इसको प्रयत्न माने तो इतना प्रयत्न तो अवश्य ही करना पड़ता है | परन्तु ध्यान देकर देखने से मालूम होगा की इच्छा करने मात्र से प्रप्थोने वाले एक भगवान ही है | दुनिया में लोग नाना प्रकार के पदार्थों की इच्छा करते है; परन्तु इच्छा करने से ही उन्हें कुछ नहीं मिलता | इच्छा हों, प्रारब्ध का संयोग हों और फिर प्रयत्न हो तब भौतिक पदार्थ मिलता है | पर भगवान के लिए तो इच्चामात्र से ही काम हो जाता है | इच्छा करने पर जो प्रयत्न होता है वह प्रयत्न तो भगवान स्वयं करा लेते है | साधक तो केवल निमित् मात्र बनता है | अर्जुन से भगवान ने कहा-‘ये सब मेरे द्वारा मारे हुए है, तू तोह केवल निमित्र मात्र बन जा |’(गीता ११|३३) इसी प्रकार अपनी प्रप्तिरूप कार्य की सिद्धि में भी सब कुछ भगवान ही कर लेते है | इच्छा करने वाले भक्तों को केवल निमितमात्र बनाते है | शेष अगले ब्लॉग में ...   

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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शनिवार, 27 जुलाई 2013

संत-महिमा-२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, पन्चमी, शनिवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है



गत ब्लॉग से आगे..इसपर यह शंका होती है की जब परमात्मा की कृपा सभीपर है, तब सभी को परमात्मा की प्राप्ति हो जानी चाहिये | परन्तु ऐसा क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यह है की यदि परमात्मा की प्राप्ति की तीव्र चाह हो और भगवत्कृपा में विश्वास हो तो सभी को प्राप्ति हो सकती है | परन्तु परमात्मा की प्राप्ति चाहते ही कितने मनुष्य है, तथा परमात्मा की कृपा पर विश्वास ही कितनों को है | जो चाहते है और जिनका  विश्वास है उन्हें प्राप्ति होती ही है | यदि यह कहा जाये की परमात्मा की प्राप्ति तो सभी चाहते है, तो यह ठीक नहीं है; ऐसी चाह वास्तविक चाह नहीं है | हम देखते है जिसको धन की चाह होती है वह धन के लिए सब कुछ करने तथा इतर सबका त्याग करने को तैयार हो जाता है, इसी प्रकार से भगवत्प्राप्ति की तीव्र चाह कितनो को है ? धन तो चाहनेपर भी प्रारब्ध में होता है तभी मिलता है, प्रारब्ध में नहीं होता तो नहीं मिलता | परन्तु भगवान तो चाहने पर अवश्य मिल जाते है, क्योकि भगवान धन की भाँती जड नहीं है | शेष अगले ब्लॉग में ...   

 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

संत-महिमा-१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, चतुर्थी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 
संसार में संतों का स्थान सबसे ऊँचा है | देवता और मनुष्य, राजा और प्रजा सभी सच्चे संतों को अपने से बढ़कर मानते है | संत का ही जीवन सार्थक होता है | अतएव सभी लोगों को संतभाव की प्राप्ति के लिए भगवान की शरण होना चाहिये | यहाँ एक प्रश्न होता है की ‘संतभाव की प्राप्ति प्रयत्न से होती है या भगवत्कृपा से अथवा दोना से ? यदि यह कहा जाये की केवल प्रयत्नसाध्य है तो सब लोग प्रयत्न करके संत क्यों नहीं बन जाते ? यदि यह कहे की भगवत्कृपा से होती है तो भगवत्कृपा सदा सब पर अपरिमित है ही, फिर सबको संतभाव की प्राप्ति क्यों नहीं हो जाती ? दोनों से कही जाय तो फिर भगवत्कृपा का महत्व ही क्या रह जायेगा, क्योकि दुसरे प्रयत्नों के सहारे बिना केवल उससे भगवत्प्राप्ति हुई नहीं ? इसका उत्तर यह है की भगवत्प्राप्ति यानी संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से ही होती है | वास्तव में भगवत्प्राप्त पुरुष को ही संत कहा जाता है | सत्पदार्थ केवल परमात्मा है और परमात्मा के यथार्थ तत्व को जो जानता है और उसे उपलब्ध कर चुका है वाही संत है | हाँ, गौणी वृति से उन्हें भी संत कह सकते है जो भगवत्प्राप्ति के पात्र है, क्योकि वे भगवतप्राप्तिरूप लक्ष्य के समीप पहुच गए है और शीघ्र उन्हें भगवत्प्राप्ति की सम्भावना है | शेष अगले ब्लॉग में ...    

 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -५-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०७०

 
(५)      जैसे तीर्थों में किये हुए स्नान, दान, जप, तप, यज्ञ, व्रत, उपवास, ध्यान, दर्शन, पूजा-पाठ, सेवा-सत्संग आदि महान फलदायक  होते है, वैसे ही वहाँ किये हुए झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिन्सा आदि पापकर्म भी व्रजपाप हो जाते है | इसलिए तीर्थों में किसी प्रकार का किन्चितमात्र भी पाप कभी नहीं करना चाहिये |

शास्त्रों में तीर्थों की अनेक प्रकार की महिमा मिलती है | महाभारत में पुलस्त्य ऋषि में कहा है ‘पुष्करराज, कुरुक्षेत्र, गंगा और मगधदेशीय तीर्थो में स्नान करनेवाला मनुष्य अपनी सात-सात पीढयों का उद्धार कर देता है |’ (वनपर्व ८५|९२)

‘गंगा अपना नाम उच्चारण करनेवाले के पापों का नाश करती है, दर्शन करनेवाले का कल्याण करती है और स्नान-पान करने वाले की सात पीढयों तक को पवित्र करती है |’ (वनपर्व ८५|९३)

ऐसे-ऐसे वचनों को लोग अर्थवाद और रोचक मानने लगते है, किन्तु इनको रोचक एवं अर्थवाद न मानकर यथार्थ ही समझना चाहिये | इनका फलयदि पूरा न देखने में आता हो तो हमारे पूर्वसंचित पाप, वर्तमान नास्तिक वातावरण, पण्डे और पुजारियों के दुर्व्यवहार तथा तीर्थों में पाखण्डी, नास्तिक और भयानक कर्म करनेवालों के निवास आदि से लोगों में तीर्थ में श्रद्धा और प्रेम का कम हो जाना ही है |

 

अतएव कुसंग से बच कर तीर्थों में श्रद्धा-प्रेम रखते हुए सावधानी के साथ उपर्युक्त नियमों का भलीभाति पालन करके तीर्थों से लाभ उठाना चाहिये | यदि इन नियमों के पालन में कही कुछ कमी रह जाए तो इतना हर्ज नहीं परन्तु चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते भगवान के नाम का जप तथा गुण, प्रभाव और लीला के सहित उनके स्वरूप का ध्यान तो सदा-सर्वदा निरंतर ही करने की चेष्टा करनी चाहिये |

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

 
 

(५)       तीर्थों में बीड़ी, सिगरेट, तमाखू, गाँजा, भाँग, चरस, कोकीन, आदि मादक वस्तुओं का, लहसुन, प्याज, बिस्कुट, बर्फ, सोडा, लेमोनेड आदि अपवित्र पदार्थों का, ताश, चौपड़, शतरंज कहलना और नाटक-सिनेमा देखना आदि प्रमादका तथा गाली गलोज, चुगली-निन्दा, हँसी-मजाक, फ़ालतू बकवाद, आक्षेप आदि व्यर्थ  वार्तालाप का कतई त्याग करना चाहिये |

(६)        गंगा, यमुना और देवालय आदि तीर्थस्थानों से बहुत दूरी पर  मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये | जो मनुष्य गंगा-यमुना आदि  के तटपर मल-मूत्र का त्याग करता है तथा गंगा-यमुना आदि में दतुअन और कुल्ले करता है, वह स्नान-पान के पुण्य को न पाकर पाप का भागी होता है |

(७)       काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मात्सर्य, राग-द्वेष, दम्भ-कपट, प्रमाद-आलस्य आदि दुर्गुणों का तीर्थों में सर्वथा त्याग करना चाहिये |

(८)       सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों के प्राप्त होने पर उनको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर सदा-सर्वदा प्रसन्नचित और संतुस्ट रहना चाहिये |

(९)       तीर्थयात्रा में अपने संगवालों में से किसी साथी तथा आश्रित को भारी विपति आने पर काम, क्रोध या भय के कारण उसे अकेले कभी नहीं छोड़ना चाहिये | महारज युद्धिस्टरने तो स्वर्ग का तिरस्कार करके परम धर्म समझकर अपने साथी कुत्ते का भी त्याग नहीं किया | जो लोग अपने किसी साथी या आश्रित के बीमार पड जानेपर उसे छोड़कर तीर्थ-स्नान और भगवदविग्रह के दर्शन आदि के लिए चले जाते है उनपर भगवान प्रसन न होकर उलटे नाराज हो जाते है; क्योकि ‘परमात्मा ही सबकी आत्मा है’ इस न्यास से उस आपदग्रस्त साथी का तिरस्कार परमात्मा का ही तिरस्कार है | इसलिए विपतिग्रस्त साथी का त्याग तो भूल कर भी नहीं करना चाहिए |....शेष अगले ब्लॉग

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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बुधवार, 24 जुलाई 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, द्वितीया, बुधवार, वि० स० २०७०

 

 

(५)       तीर्थों में बीड़ी, सिगरेट, तमाखू, गाँजा, भाँग, चरस, कोकीन, आदि मादक वस्तुओं का, लहसुन, प्याज, बिस्कुट, बर्फ, सोडा, लेमोनेड आदि अपवित्र पदार्थों का, ताश, चौपड़, शतरंज कहलना और नाटक-सिनेमा देखना आदि प्रमादका तथा गाली गलोज, चुगली-निन्दा, हँसी-मजाक, फ़ालतू बकवाद, आक्षेप आदि व्यर्थ  वार्तालाप का कतई त्याग करना चाहिये |

(६)        गंगा, यमुना और देवालय आदि तीर्थस्थानों से बहुत दूरी पर  मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये | जो मनुष्य गंगा-यमुना आदि  के तटपर मल-मूत्र का त्याग करता है तथा गंगा-यमुना आदि में दतुअन और कुल्ले करता है, वह स्नान-पान के पुण्य को न पाकर पाप का भागी होता है |

(७)       काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मात्सर्य, राग-द्वेष, दम्भ-कपट, प्रमाद-आलस्य आदि दुर्गुणों का तीर्थों में सर्वथा त्याग करना चाहिये |

(८)       सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों के प्राप्त होने पर उनको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर सदा-सर्वदा प्रसन्नचित और संतुस्ट रहना चाहिये |

(९)       तीर्थयात्रा में अपने संगवालों में से किसी साथी तथा आश्रित को भारी विपति आने पर काम, क्रोध या भय के कारण उसे अकेले कभी नहीं छोड़ना चाहिये | महारज युद्धिस्टरने तो स्वर्ग का तिरस्कार करके परम धर्म समझकर अपने साथी कुत्ते का भी त्याग नहीं किया | जो लोग अपने किसी साथी या आश्रित के बीमार पड जानेपर उसे छोड़कर तीर्थ-स्नान और भगवदविग्रह के दर्शन आदि के लिए चले जाते है उनपर भगवान प्रसन न होकर उलटे नाराज हो जाते है; क्योकि ‘परमात्मा ही सबकी आत्मा है’ इस न्यास से उस आपदग्रस्त साथी का तिरस्कार परमात्मा का ही तिरस्कार है | इसलिए विपतिग्रस्त साथी का त्याग तो भूल कर भी नहीं करना चाहिए |....शेष अगले ब्लॉग

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -3-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०७०

 

(५)       कीर्तन और स्वाध्याय के अतिरिक्त समय में मौन रहने की  चेष्टा करनी चाहिये; क्योकि मौन रहने से जप और ध्यान के साधन में विशेष मदद मिलती है | यदि विशेष कार्यवश बोलना पड़े तो सत्य, प्रिय और हितकारक वचन बोलने चाहिये | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में वाणी के तप का लक्षण करते हुए कहा है “जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यतार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन एवं परमेश्वर के नाम जप का अभ्यास है वाही वाणी सम्बन्दी तप कहा जाता है |”

(६)       निवास-स्थान और बर्तनों के अतिरिक्त किसी की कोई भी चीज काम में नहीं लानी चाहिये | बिना मांगे देने पर भी बिना मूल्य स्वीकार नहीं करनी करनी चाहिये | तीर्थों में सगे-सम्बन्धी, मित्र आदि की भेट-सौगात भी नहीं लेनी चाहिये | बिना अनुमति के तो किसी की कोई भी वस्तु काम में लेना चोरी के समान है | बिना मूल्य औषध लेना भी दान लेने के समान है |

(७)      मन, वाणी और शरीर से ब्रह्मचर्य के पालन पर विसेस ध्यान रखना चाहिये | स्त्री को परपुरुष का और पुरुष को परस्त्री का तो दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तन आदि भी कभी नहीं करना चाहिये | यदि विशेष आवस्यकता हो जाय तो स्त्रियों को परपुरुषों को पिता या भाई के सामान समझती हुई, और पुरुष परस्त्रियों को माता या बहन के समान समझते हुए नीची दृष्टी करके संक्षेप में वार्तालाप कर सकते है | यदि एक-दुसरे की किसी के ऊपर संक्षेप में वार्तालाप कर सकते है | यदि एक-दुसरे की किसी के ऊपर पाप बुद्धि हो जाय तो कम-से-कम एक दिन का उपवास करे |

(८)       ऐश, आराम, स्वाद, शौक और भोगबुद्धि से तीर्थों में न तो किसी पदार्थ का संग्रह करना चाहिये और न सेवन ही करना चाहिये | केवल शरीरनिर्वाह मात्र के लिए त्याग और वैराग्यबुद्धि  से अन्न-वस्त्र का उपयोग करना चाहिये |

(९)       तीर्थों में अपनी कमाई के द्रव्य से पवित्रतापूर्वक बनाये हुए अन्न और दूध-फल आदि सात्विक पदार्थों का ही भोजन करना चाहिये | सबके साथ स्वार्थ और अहंकार को त्याग कर दया, विनय और प्रेमपूर्वक सात्विक व्यव्हार करना चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

सोमवार, 22 जुलाई 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, पूर्णिमा, सोमवार, वि० स० २०७०

 

(५)      कंच्चन-कामिनी के लोलुप, अपने नाम रूपको पुजवाकर लोगो को उच्चिस्ठ (जूठन) खिलने वाले, मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा के गुलाम, प्रमादी और विषयासक्त पुरुषों का भूल कर भी संग नहीं करना चाहिये, चाहे वे साधु, ब्रह्मचारी और तपस्वी के भेष में भी क्यों न हो | माँसाहारी, मादक पदार्थों का सेवन करने वाले, पापी, दुराचारी और नास्तिक पुरुषों का तो दर्शन भी नहीं करना चाहियें |

तीर्थ में किसी-किसी स्थान पर तो पण्डे-पुजारी और महन्त आदि यात्रियों को अनेक प्रकार से तंग किया करते है | जैसे यात्रा सफल करवाने के नाम पर दुराग्रहपूर्वक अधिक धन लेने के लिए अड़ जाना, देव मंदिर में बिना पैसे लिए दर्शन न करवाना, बिना भेट लिए स्नान न करने देना, यात्रियों को धमकाकर और पाप का भय दिखाकर जबरदस्ती रुपयें ऐठना, मंदिरों और तीर्थों पर भोग-भण्डारे और अटके आदि के नाम पर भेट लेने के लिए अनुचित दबाब डालना, अपने स्थान पर ठहराकर अधिक धन प्राप्त करने का दुराग्रह करना, सफ़ेद चील (गिद्ध) पक्षियों को ऋषियों और देवताओं का रूप देकर और उनकी  जूठन खिलाकर भोलेभाले यात्रिओ से धन ठगना और देवमूर्तियों द्वारा शर्बत पिये जाने आदि झूठी करामात को प्रसिद्द करके लोगो को ठगना इत्यादि | यात्रियों को इन सबसे सावधान रहना चाहिये |

(६)      साधु, ब्राह्मण, तपस्वी, ब्र्ह्चारी, विद्यार्थी आदि सत्पात्रों की तथा दुखी, अनाथ, आतुर, अंगहीन, बीमार और साधक पुरुषों की अन्न, वस्त्र, औसध और धार्मिक पुस्तके आदि के द्वारा यथायोग्य सेवा करनी चाहिये |

(७)      भोग और ऐश्वर्य को अनित्य समझते हुए विवेक-वैराग्यपूर्वक वश में किये हुए मन और इन्द्रियों को शरीर-निर्वाह के अतिरिक्त अपने-अपने विषयों से हटाने की चेष्टा करनी चाहिये |

(८)      अपने अपने अधिकार के अनुसार संध्या, तर्पण, जप, ध्यान, पूजा-पाठ, स्वाध्याय, हवंन,बलिवैश्व, सेवा आदि नित्य और नैमितिक कर्म ठीक समय पर करने की चेष्टा करनी चाहिये | यदि किसी विशेष कारणवश समय का उल्लंघन हो जाय तो भी कर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहिये |

गीता रामायण आदि शास्त्रों का अध्यन्न, भगवान्नाम जप, सूर्य भगवान को अर्घ्यदान, ईस्टदेव की पूजा, ध्यान, स्तुति, नमस्कार और प्रार्थना आदि तो सभी वर्ण और आश्रम के स्त्री-पुरुषों को अवश्य ही करने चाहिये |

(९)      काम, क्रोध, लोभ आदि के वश में होकर किसी भी जीव को किसी प्रकार किन्चितमात्र भी दुःख नहीं पहुचाना चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग में..

           

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

रविवार, 21 जुलाई 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, चतुर्दशी, रविवार, वि० स० २०७०

 

संसार में चार पदार्थ हैं  धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष | तीर्थो में (पवित्र स्थानों में) यात्रा करते समय अर्थ (धन) तो व्यय होता है | अब रहे धर्म, काम और मोक्ष सो जो राजसी पुरुष होते है वे तो तीर्थों में संसारिक कामना की पूर्ती के लिए जाते है और जो सात्विक पुरुष होते है वे धर्म और मोक्ष के लिए जाते है | धर्म का पालन भी वे आत्मोउद्धार के लिए निष्काम भाव से करते है | अतेव कल्याणकामी पुरुषों को तो अन्तकरण की शुद्धि और परमात्मा प्राप्ति के लिए ही तीर्थों में जाना चाहिये |

तीर्थ में जाकर किस प्रकार क्या-क्या करना चाहिये, ये बाते बतलाई जाती है |

(१)      पैदल यात्रा करते समय मन के द्वारा भगवान के स्वरुप का ध्यान और वाणी के द्वारा नाम-जप करते हुए चलना चाहिये | यदि बहुत आदमी साथ हो तो सबको मिलकर भगवान का नाम-कीर्तन करते हुए चलना चाहिये | रेलगाड़ी आदि सवारीयों पर यात्रा करते समय भी भगवान को याद रखते हुए ही धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन अथवा भगवान के नाम का जप करते रहना चाहिये |

(२)      गंगा,सिन्धु,सरस्वती, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा, सरयू, मानसरोवर, कुरक्षेत्र, पुष्कर, गंगासागर आदि तीर्थों में उनके गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य और महिमा का स्मरण करते हुए आत्मशुद्धि और कल्याण के लिए स्नान करना चाहिये |

(३)      तीर्थों में श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीशिव, श्रीविष्णु आदि भगवदविग्रहो का श्रद्धा-प्रेमपूर्वक दर्शन करते हुए उनके गुण, प्रभाव, लीला, तत्व, रहस्य और महिमा आदि का स्मरण करके दिव्य स्त्रोतों के द्वारा आत्मउद्धार के लिए उनकी स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये |

(४)      तीर्थों में साधु, महात्मा, योगी और भक्तों के दर्शन, सेवा, सत्संग, नमस्कार, उपदेश, आदेश और वार्तालाप के द्वारा विशेष लाभ उठाने के लिए उनकी खोज करनी चाहिये |

भगवान ने अर्जुन के प्रति गीता में कहा है-‘उस ज्ञान को तू समझ; क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के पास जाकर, उनको भली भाति दंडवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे | शेष अगले ब्लॉग में .....     

        

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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शनिवार, 20 जुलाई 2013

Jaydayalji Goyandka - Sethji Discourse

भगवान जल्दी से जल्दी कैसे मिलेँ-यह भाव जाग्रत रहने पर ही भगवान मिलते हैँ।यह लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती चलें।ऐसी उत्कट इच्छा ही प्रेममयके मिलनेका कारण है और प्रेमसे ही प्रभु मिलते हैँ।प्रभुका रहस्य और प्रभाव जाननेसे ही प्रेम होता है।थोड़ा सा भी प्रभुका रहस्य जाननेपर हम उसके बिना एक क्षणभर भी नहीँ रह सकते।

 
नित्य प्रति सब घर के आदमी इकट्ठे होकर घर में ही अपनी सुविधा अनुसार प्रात्ः काल और रात्रि में गीता, रामायण भागवत आदि किसी भी ग्रन्थ् का क्रमशः स्वाध्याय करे। चाहे आधा घण्टा ही हो - यथा शक्ति प्रयत्न करे। बड़े फायदे की चीज है। घर में जहा तक हो अपने ही आदमियों से किसी से सुने - घर में ही भगवान् की मूर्ति स्थपित करके पूजा करे तो ये मन्दिर में जाकर् करने से श्रेष्ठ् है। घर में अपने हाथ से कर सकते है।



आसक्ति खतरे की चीज़ है| शरिरमें, संसारमें, भोगोंमें जबतक आसक्ति है, तबतक आप भगवानसे बहुत दूर है| गृहस्थाश्रम छोड़कर चाहे घोर जंगल में चले जाइये कोई लाभ नहीं है|


पैदा हो तो आनन्द, मर जाय तो आनन्द, लाखों रुपये चले जायँ तो आनन्द, आ जाय तो आनन्द। शरीरमें बीमारी हो तो आनन्द, मिट जाय तो आनन्द। आनन्दको निरन्तर कायम रखना चाहिये। आनन्द तभी कायम रह सकता है जब कोई घटना हो तो उसे भगवान्‌ की कृपा समझे। यह समझे कि यह भगवान्‌ का मंगलमय विधान है।


भगवत्प्रेमकी अवस्था ही अनोखी होती है।भगवान् का प्रसंग चल रहा है,उसकी मधुर चर्चा चल रही है,उस समय यदि स्वयं भगवान् भी आ जायँ तो प्रसंग चलता रहे,भंग न होने दे।