※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

संत-महिमा-१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, चतुर्थी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 
संसार में संतों का स्थान सबसे ऊँचा है | देवता और मनुष्य, राजा और प्रजा सभी सच्चे संतों को अपने से बढ़कर मानते है | संत का ही जीवन सार्थक होता है | अतएव सभी लोगों को संतभाव की प्राप्ति के लिए भगवान की शरण होना चाहिये | यहाँ एक प्रश्न होता है की ‘संतभाव की प्राप्ति प्रयत्न से होती है या भगवत्कृपा से अथवा दोना से ? यदि यह कहा जाये की केवल प्रयत्नसाध्य है तो सब लोग प्रयत्न करके संत क्यों नहीं बन जाते ? यदि यह कहे की भगवत्कृपा से होती है तो भगवत्कृपा सदा सब पर अपरिमित है ही, फिर सबको संतभाव की प्राप्ति क्यों नहीं हो जाती ? दोनों से कही जाय तो फिर भगवत्कृपा का महत्व ही क्या रह जायेगा, क्योकि दुसरे प्रयत्नों के सहारे बिना केवल उससे भगवत्प्राप्ति हुई नहीं ? इसका उत्तर यह है की भगवत्प्राप्ति यानी संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से ही होती है | वास्तव में भगवत्प्राप्त पुरुष को ही संत कहा जाता है | सत्पदार्थ केवल परमात्मा है और परमात्मा के यथार्थ तत्व को जो जानता है और उसे उपलब्ध कर चुका है वाही संत है | हाँ, गौणी वृति से उन्हें भी संत कह सकते है जो भगवत्प्राप्ति के पात्र है, क्योकि वे भगवतप्राप्तिरूप लक्ष्य के समीप पहुच गए है और शीघ्र उन्हें भगवत्प्राप्ति की सम्भावना है | शेष अगले ब्लॉग में ...    

 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!