|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण कृष्ण, चतुर्थी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है
संसार
में संतों का स्थान सबसे ऊँचा है | देवता और मनुष्य, राजा और प्रजा सभी सच्चे
संतों को अपने से बढ़कर मानते है | संत का ही जीवन सार्थक होता है | अतएव सभी लोगों
को संतभाव की प्राप्ति के लिए भगवान की शरण होना चाहिये | यहाँ एक प्रश्न होता है
की ‘संतभाव की प्राप्ति प्रयत्न से होती है या भगवत्कृपा से अथवा दोना से ? यदि यह
कहा जाये की केवल प्रयत्नसाध्य है तो सब लोग प्रयत्न करके संत क्यों नहीं बन जाते ?
यदि यह कहे की भगवत्कृपा से होती है तो भगवत्कृपा सदा सब पर अपरिमित है ही, फिर
सबको संतभाव की प्राप्ति क्यों नहीं हो जाती ? दोनों से कही जाय तो फिर भगवत्कृपा
का महत्व ही क्या रह जायेगा, क्योकि दुसरे प्रयत्नों के सहारे बिना केवल उससे
भगवत्प्राप्ति हुई नहीं ? इसका उत्तर यह है की भगवत्प्राप्ति यानी संतभाव की
प्राप्ति भगवत्कृपा से ही होती है | वास्तव में भगवत्प्राप्त पुरुष को ही संत कहा
जाता है | सत्पदार्थ केवल परमात्मा है और परमात्मा के यथार्थ तत्व को जो जानता है
और उसे उपलब्ध कर चुका है वाही संत है | हाँ, गौणी वृति से उन्हें भी संत कह सकते
है जो भगवत्प्राप्ति के पात्र है, क्योकि वे भगवतप्राप्तिरूप लक्ष्य के समीप पहुच
गए है और शीघ्र उन्हें भगवत्प्राप्ति की सम्भावना है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!