※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

मिल और नील से हानि -4-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०६९
  गत ब्लॉग से आगे.....  यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि हाथ से बनी वस्तुओ का निर्माण करने में जितनी धार्मिक भावना रहती है, उतनी मिल के काम में नहीं रह सकती | उदहारण स्वरुप चीनी को ही लीजिये | आजकल चीनी को चमकदार बनाने में उसमे नील दी जाती है | हमारे शास्त्रों के अनुसार नील सर्वथा हानिकारक, धर्मंनाशक और अशुभको पैदा करने वाली है | सर्वग्य ऋषि-मुनियों ने इस विषय पर क्या लिखा है और कहाँ तक नील के व्यव्हार में हानि बतलाई है, इसका पता नीचे उध्ग्रह्त किये कुछ श्लोक से लग सकता है |

१. भोजन के निमित एक ही पंक्ति में पृथक्-पृथक् बैठे हुए अनेकों मनुष्यों में यदि एक भी मनुष्य नील का वस्त्र पहने हो तो वे सभी अपवित्र माने जाते है | उस समय जिसके साधारण या रेशमी वस्त्रमें नील से रंगाँ हुआ अंश दीख जाये उसे तिरात्रव्रत करना चाहिये और उसके साथ बैठने वाले शेष मनुष्य उस दिन उपवास करे | (अत्रिसहिंता २४४-२४५)

२.नील की खेती, विक्रय और उसकी वृतिद्वारा जीविका चलाने से ब्राह्मण पतित हो जाता है, फिर तीन कृच्छव्रत करने से वह शुद्ध होता है | (अन्गिर:स्मृति)

३.यदि ब्राह्मण का शरीर नील की लकड़ी से बिंध जाय और रक्त निकल आवे तो वह चान्द्रायण व्रत का आचरण करे | (आपस्तम्बस्मृति ६|६)

४.यदि ब्राह्मण नील की लकड़ी से पकाया हुआ अन्न भोजन कर ले तो उस आहार का वमन करके पन्चगव्य लेने से वह शुद्ध होता है |

५.यदि द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य) असावधानता  वश नील भक्षण कर ले तो तीनो द्विजातियो के लिए सामान्यरूप से चान्द्रायणव्रत करना बतलाया गया है |

६. नील के रँगे हुए वस्त्र को धारण करके जो अन्न दिया जाता है वह दाता को नहीं मिलता और उसे भोजन करने वाला ही भी पाप ही भोगता है |

६. पतिदेव के मर जानेपर जो स्त्री नील से रंगा हुआ वस्त्र धारण करती है उसका पति नरक में जाता है, उसके बाद वह स्त्री भी नरक में ही पड़ती है |

७. नील बोनेसे दूषित हुए खेत में जो अन्न पैदा होता है वह द्विजातियो के भोजन करने योग्य नहीं होता,उसे खा लेने पर चाद्रायण व्रत करना चाहिये | ....शेष अगले ब्लॉग में   

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


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बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

मिल और नील से हानि -3-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, द्वितिया,बुधवार, वि० स० २०६९

                         गत ब्लॉग से आगे.....   दुःख है की आज मनुष्य ने अपने स्वार्थ-साधन के लिए इतर प्राणियों के तो जीवन का मूल्य ही नहीं मान रखा है | सम्भव है की विविध कला और विद्याओ में निष्णात भारतीय  ऋषि-मुनि और विद्वानों ने यन्त्रों के दुष्परिणामको जानकर ही उनका आविष्कार और प्रचार नहीं किया था | आज तो ऐसी दशा हो गयी है की मिल के बने हुए पदार्थो का व्यवहार करना दूषित प्रतीत होने पर भी उसका छोड़ना कठिन हो गया है | हमारे व्यापार में, हमारी आजीविका में साधन में और हमारी घर-गृहस्थी में मिल् का  इतना अधिक प्रवेश हो गया है की दोष प्रतीत होने पर भी निकाल देना असम्भव नहीं तो बहुत ही कठिन है |

मेरा तो यहाँ पर यही निवेदन है की मिलके दोषों को समझकर जहाँ तक बन पड़े हम लोगो को मिलों से कम सम्बन्ध रखना चाहिये | वर्तमान परिस्थतीको देखते, न तो यह कहा जा सकता हैं की मिलों के संचालक सहसा सब मिलों को बंद कर दे और न मिलों से सम्बंधित व्यापर छोड़ना और सम्पूर्ण रूप से घर की मिलकी चीजो से रहित करना सम्भव है | शनै: शनै: यह काम करना चाहिये | जहाँ तक हो सके मिलों से सम्बन्ध हटा कर, ग्राम-उद्योगों से सम्बन्ध जोड़ना, उनको पुन:जीवित करना और उनका विस्तार करना प्रत्येक सहृदय देशवासी का अपने देश, जाति, धर्म और स्वास्थ्य कलाभ के लिए अति आवश्यक कर्तव्य है |      

खास करके उन लोगो से निवेदन है की जो अपने व्यक्तिगत जीवन में और अपने घरों में मिलों की बनी हुई वस्तुओं का व्यवहार करना अवश्यक समझते है या करते है | ये भाई-बहिन यदि मिल की बनी वस्तुओ के बदले हाथ की बनी वस्तुओ का व्यवहार करना आरम्भ करना आरम्भ कर दे- अवश्य ही ऐसा करने से उन्हें अपनी शौकिनि की वासना को और बाहरी सजावट के प्रलोभन को कुछ कम करना होगा-तो सहज ही मिल का विस्तार कम हो सकता है और ग्राम-उद्योग की श्रीवृद्धि होने के  फलस्वरूप गरीब भाई-बहनों की जीवन-रक्षा, देश के स्वास्थ्य की उन्नति, देश के धन का सरक्षण, बेकारी का नाश, आलस्य और अकर्मण्यता का लोप और धर्म की वृद्धि हो सकती है |....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

मील और नील से हानि -2-

                                ॥ श्री हरि: ॥
                         आज की शुभ तिथि पंचांग
                     फाल्गुन कृष्ण, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०६९
गत ब्लॉग से आगे..... 
साथ ही हाथ की बनी चीजों में जो जीवनीशक्ति, एक विशिष्ट सौन्दर्य, धर्म की पवित्र भावना रहती है, वैसी मील के बने पदार्थो में ढूडनेपर भी नहीं मिलती । प्राकृतिक और कृत्रिम में अथवा असली और नकली में जो भेद रहता है वही भेद प्राय: इनमे भी समझना चाहिये । आटे और चावल को ही लीजिये, जातें में हाथ से पिसे आटे और ढेकी से कुटे चावल में जो जीवनीशक्ति रहती है, बल और आरोग्यवर्धक तत्व रहता है, मील के पिसे आटे या मील के कूटे चावल में प्राय: वैसा नहीं रहता । घर फूँक कर रौशनी देखनेकी भाँती अवश्य ही उनकी कृत्रिम सौन्दर्य तो बढ़ ही जाता है । 
अभी बेरी-बेरी रोग के सम्बन्ध में जाँच पड़ताल होने पर, यह बात निश्चित हो चुकी है कि इस रोग के उत्पन्न और विस्तार होने में आटा, चावल  आदि मीलों के पिसे-कूटे पदार्थ ही विशेष कारणरूप हैं। यही हाल चीनी का है । जो जीवन तत्व ग्रामों के हाथ से बने गुड में है, उससे अनेको हिस्से कम हाथ की बनी चीनी में है और मील की बनी चीनी में कहा जाता है की जीवन तत्व (विटामिन) बहुत ही कम है । यही हाल तैल इत्यादि वस्तुओ का समझना चाहिये । चीनी की मीलों में सीरेकी, धानकलों में चावल के पानी की तथा मील के चावल से बने हुए भात की दुर्गन्ध से स्वास्थ्य की भयानक हानि होती है । ऐसी अवस्था में इन वस्तुओं के प्रचार से देश के स्वास्थ्य का कितना अधिक ह्रास होगा, इसपर विचार करने से भविष्य बहुत ही भयानक प्रतीत होता है ।   
मीलों के अधिक प्रचार से मशीनों की खरीदी में विदेश में जो धन जाता है उसकी संख्या भी थोड़ी नहीं है । साथ ही मीलों में काम करने वाले गरीब मजदूर भाई बहनों के स्वास्थ्य की और देखा जाय तो उसमे भी बड़ी हानि मालूम होती है । मीलों से किसानों को जो हानि हो रही है, वह भी हृदय हिला देने वाली है । मनुष्येतर प्राणियों का अर्थात छोटे-मोटे जीवों का, कीड़े-मकोड़े का जो संहार होता है, उसकी तो कोई संख्या ही नहीं है । 
....शेष अगले ब्लॉग में


       
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

मील और नील से हानि -1-



।। श्रीहरि: ।।
                                आज की शुभ तिथि पंचांग

                    माघ शुक्ल, पूर्णिमा, सोमवार, वि० स० २०६९

                                 

वर्तमान युग प्राय: यन्त्रयुग हो रहा है, जहाँ देखिये वहीं यन्त्र का साम्राज्य है । प्राय: बड़े-से-बड़े राष्ट्रों से लेकर मामूली खाने-पीने-पहिनने तक की वस्तु आज यन्त्र के आश्रित है । परन्तु इस यन्त्र से दुनिया में जो दुःख: का दावानल धधक उठा है, उसे देख-सुनकर हृदय काँप उठता है । यन्त्र प्रयत्क्ष और अप्रयत्क्षरूप से अबाधित गति से मानव-प्राणियों के सुख का सतत संहार कर रहा है । मानवेतर प्राणियों की तो यन्त्र को कोई परवा ही नहीं है । यह इस प्रकार का संहारक पदार्थ है कि जो मानव सहांरी असुरोंसे भी किसी अंश में बढ़ जाता है । आज संसार में चारों ओर पेट की ज्वाला से जलते हुए प्राणियों का हाहाकार मचा हुआ है, करोड़ो मनुष्य बेकार हो रहे हैं, असंख्य नर-नारी विविध रोगों से ग्रस्त है, कर्मशील मानव अकर्मण्य और आलसी बन गए हैं; इसका एक प्रधान कारण यह भयानक यन्त्रविस्तार है । यान्त्रिक सभ्यता का यदि इस प्रकार विस्तार होता रहा तो सम्भवत: एक समय ऐसा आवे, जब की सब प्रकार से धर्म-कर्म शून्य होकर मनुष्य ही मनुष्य का घातक बन जाय । प्रकांरान्तर से तो यह स्वरुप अब भी प्रत्यक्ष ही है ।

खेद का विषय है की ऋषि-मुनि-सेवित पवित्र भारत-भूमि में भी यन्त्रका विस्तार दिनोदिन बढ़ रहा है । पहले तो कपडे और पाट आदि की ही मीलें थी, जिनसे गरीबो का गृह-उद्योग,चर्खा आदि तो नष्ट ही हो गया था । अब छोटी बड़ी सब तरह की मीलें बन रही है, जिससे ग्राम-उद्योग का बचा-खुचा स्वरुप भी नष्ट हो रहा है । स्त्रियाँ धान कूटकर काम चलाती थी, अब चावलों की मीलें हो गयी है । गरीब विधवा बहने आटा पीसकर अपना और अपने बच्चो का पेट भरती थी, अब गावँ-गाँव में आटा पीसने वाली कलकी चक्किया बैठ गई है ।  तेलियों के कोलुहों को मीलों ने प्राय हड़प लिया है । चीनी का सबसे बड़ा गरीबो का रोज़गारतों मीलों के द्वारा बड़ी  ही बुरी तरह से मारा गया । अब कपडे धोने का काम भी मशीनों से शुरू हो गया है, जिससे बिचारे गरीब धोबियों की रोटी भी मारी जाने का सम्भावना हो गयी है । यह तो निश्चित है की सैकड़ों-हजारों आदमियों का काम जहाँ एक मील से होगा, वहाँ लोगों में बेकारी ही फैलती दृष्टि आती है । बेकारी में असह्य होकर, अपने और परिवार की पेट की ज्वाला से पीड़ित होकर, इच्छा न होने पर भी परिस्थिती में पड कर, मनुष्य को किस-किस प्रकारसे बुरे कर्म करने पड़ते हैं और कहीं कहीं तो परिवार-का-परिवार आसुओसे तन-बदन को धोता हुआ चुपचाप एक ही साथ जीवनलीला समाप्त कर लेता है । इस बात का पता बेकारों को तो प्राय: है ही, अखबार पढने वाले लोग भी ऐसी घटनाओसे अनजान नहीं है । ....शेष अगले ब्लॉग में          

    
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


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रविवार, 24 फ़रवरी 2013

अनन्य प्रेम ही भक्ति है -3-



|| श्री हरि: ||
 आज की शुभ तिथि पंचांग
 माघ शुक्ल, चतुर्दशी, रविवार, वि० स० २०६९


                       

गत ब्लॉग से आगे.....ऐसा विशुद्ध प्रेम होने पर जो आनन्द होता है उसकी महिमा अकथनीय है | ऐसे प्रेम का वास्तविक महत्व कोई परमात्मा का अनन्य प्रेमी ही जानता है | प्रेम की साधारणत: तीन संज्ञाए हैं | गौण, मुख्य और अनन्य | जैसे नन्हे बछड़े को छोड़ कर गौ वन में चरने जाती है, वहाँ घास चरती है, उस गौ का प्रेम घास में गौण है, बछड़े में मुख्य है और अपने जीवन में अनन्य है, बछड़े के लिए घासका एवं जीवन के लिए बछड़े का भी त्याग कर सकती है | इसी प्रकार उत्तम साधक संसारिक कार्य करते हुए भी अनन्यभाव से परमात्मा का चिन्तन किया करते है | साधारण भगवत-प्रेमी  साधक अपना मन परमात्मा में लगाने की कोशिश करते है, परन्तु अभ्यास और आसक्तिवश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयों में चला ही जाता है | जिनका भगवान में मुख्य प्रेम है, वे हर समय भगवान का स्मरण रखते हुए समस्त कार्य करते है और जिनका भगवान में अनन्यप्रेम हो जाता है उनका तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेवमय ही प्रतीत होने लगता है | ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ है | (गीता ७|१९)

इस प्रकार के अनन्य प्रेमी भक्तो में कई तो प्रेम में इतने गहरे डूब जाते है कि वे लोक दृष्टि में पागल से दीख पड़ते है | किसी-किसी-की बालकवत चेष्टा दिखायी देती है | उनके संसारिक कार्य छूट जाते है | कई ऐसी प्रकृति के भी प्रेमी पुरुष होते है जो अनन्य प्रेम में निमग्न रहने पर भी महान भागवत श्रीभरत जी की भाँती या भक्त राज श्री हनुमान जी की भाँती सदा ही रामकाजकरने को तैयार रहते है | ऐसे भक्तो के सभी कार्य लोकहितार्थ होते है | ये महात्मा एक क्षण के लिए भी परमात्मा को नहीं भुलाते, न भगवान ही उन्हें कभी भुला सकते है | भगवान ने कहा ही है :~

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि  स च मे न प्रणश्यति || (गीता ६|३०)      
   

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर           

   
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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

अनन्य प्रेम ही भक्ति है -2-



|| श्री हरि: ||


आज की शुभ तिथि पंचांग


माघ शुक्ल, त्रयोदशी, शनिवार, वि० स० २०६९




गत ब्लॉग से आगे.....परमेश्वर में प्रेम करने का हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो-प्रेम के लिए ही प्रेम किया जाये, अन्य कोई हेतु न रहे | मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, और इस लोक तथा परलोक के किसी भी पदार्थ की इच्छा की गंध भी साधक के मन में न रहे, त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी उसका मन कभी न ललचाये | स्वयं भगवान प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करने के लिए आग्रह करे तब भी न ले | इस बात के लिए यदि भगवान रूठ भी जायँ तो भी परवा न करे | अपने स्वार्थ की बात सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपरामता हो | भगवान की ओर से विषयों का प्रलोभन मिलनेपर मन में पाश्चाताप होकर यह भाव उदय हो कि, ‘अवश्य ही मेरे प्रेम में कोई दोष है, मेरे मन सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थ की बातों को सुनकर यथार्थ में मुझे क्लेश होता तो भगवान इनके लिए मुझे कभी न ललचाते |’
   
    विनय, अनुरोध और भय दिखलाने पर भी परमात्मा के प्रेम के सिवा किसी भी हालत में दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठपर अचल रहे | वह यही समझता रहे कि भगवान की जबतक मुझे नाना प्रकार के विषयों  का प्रलोभन देकर ललचा रहे है और मेरी परीक्षा ले रहे है, तब तक मुझमें अवश्य  ही विषयासक्ति है | सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पद को छोड़कर दूसरी बात भी न सुन सकता | विषयों को देख, सुन और सहन कर रहा हूँ | इससे यह सिद्ध होता है कि मैं प्रेम का सच्चा अधिकारी  नहीं हूँ तभी तो भगवान मुझे लोभ दिखा रहे है | उत्तम तो यह था कि मैं विषयों की चर्चा सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता | ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिए निस्संदेह मेरे हृदय में कही-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है | यह है विशुद्ध प्रेम के ऊंचे साधन का स्वरुप |
.....शेष अगले ब्लॉग में


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


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शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

अनन्य प्रेम ही भक्ति है -1-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ शुक्ल, द्वादशी, शुक्रवार, वि० स० २०६९
                                    

अनिर्वचनीय ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के लिए भगवद्भक्ति के सदृश किसी भी युग में अन्य कोई भी सुगम उपाय नहीं है | कलियुग में तो है ही नहीं | परन्तु यह बात सबसे पहले समझने की है की भक्ति कहते किसे है ? भक्ति कहने में जितनी सहज है, करने में उतनी ही कठिन है | केवल बाह्यआढम्बर का नाम भक्ति नहीं है | भक्ति दिखाने की चीज नहीं है, वह तो ह्रदय का गुप्त धन है | भक्ति का जितना स्वरुप गुप्त रहता है उतना ही अधिक मूल्यवान समझा जाता है | भक्ति-तत्व का समझना बड़ा कठिन है | अवश्य ही उन भाग्यवानो  को इसके समझने में बहुत आयास या श्रम नहीं करना पड़ता, जो उस दयामय परमेश्वर के शरण हो जाते है | अनन्य शरणागत भक्त को भक्ति का तत्व परमेश्वर स्वयं समझा देते है | एक बार भी जो सच्चे हृदय से भगवान के शरण हो जाता है, भगवान उसे अभय कर देते है, यह उनका व्रत है |

भगवान की शरणागति एक बड़े ही महत्व का साधन है परन्तु उसमे अनन्यता होनी चाहिये | पूर्ण अनन्यता होने पर भगवान की और से तुरन्त ही इच्छित उत्तर मिलता है | विभीषण अत्यन्त आतुर होकर एकमात्र श्रीरामके आश्रय में ही अपनी रक्षा समझ कर श्रीराम के शरण आता है | भगवान श्रीराम उसे उसी क्षण अपना लेते है | कौरवों की राजसभा में सब तरफ से निराश होकर देवी द्रौपदी ज्यों ही अशरण-शरण श्री कृष्ण का स्मरण करती है त्यों ही चीर अनन्त हो जाता है | अनन्य शरण का यही उदहारण है | यह शरणागति संसारिक कष्ट-निवृति के लिए थी | इसी भाव से भक्त को भगवान के लिए ही भगवान के शरणागत होना चाहिये | फिर तत्व की उपलब्धि  होने में विलम्ब  नहीं होगा |

यदपि इस प्रकार भक्ति का परम तत्व भगवान के शरण होने से ही जाना जा सकता है  तथापि  शास्त्र और संत-महात्माओ की उक्तिओं के आधार पर अपना अधिकार न समझते हुए भी अपने चित की प्रसन्नता के लिए मैं जो कुक लिख रहा हूँ इसके लिए भक्तजन मुझे क्षमा करे |

परमात्मा में परम अनन्य विशुद्ध प्रेम का होना ही भक्ति कहलाता है | श्रीमद्धभगवतगीता में अनेक जगह इसका विवेचन है, जैसे

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |’ ( गीता १३|१०)
मां च योअव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते |’ ( गीता १४|२६)       

आदि | इसी प्रकार का भाव नारद और शाण्डिल्यसूत्रों में पाया जाता है | अनन्यप्रेम का साधारण स्वरुप यह है एक भगवान के सिवा अन्य किसी में किसी  समय भी आसक्ति न हो, प्रेम की मग्नता में भगवाण के सिवा अन्य किसी का ज्ञान ही न रहे | जहाँ-जहाँ मन जाये वही भगवान दृष्टीगोचर हों | यों होते-होते अभ्यास बढ़ जाने पर अपने-आपकी विस्मृति होकर केवल एक भगवान ही रह जाये | यही विशुद्ध अनन्य प्रेम है  |.....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

स्वार्थ रहित व्यवहार -5-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ शुक्ल, एकादशी, गुरूवार, वि० स० २०६९

 
गत ब्लॉग से आगे.....एक बार बनवास में पाण्डव जल के अभाव में व्याकुल हो गए | महाराज युधिस्टर ने क्रमश: चारो भाईओ को जल लाने के लिए भेजा | सरोवर पर एक यक्ष था | उसने उनसे प्रश्न किया किन्तु उन लोगो ने उसकी अवहेलना करके जल लेने का प्रयास किया एवं यक्ष की माया से मृत हो गए | अन्त में भाइयों के न लौटने पर महाराज युधिस्टर सरोवर पर गए एवं यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देकर उसे संतुस्ट किया | यक्ष ने प्रसन्न होकर महाराज से कहा की मैं आपके उत्तर से संतुस्ट हूँ और आपके एक भाई को जीवित कर सकता हूँ | युधिस्टर जी ने कहा की यदि आप एक को ही जीवित करना चाहते है तो नकुल को जीवित कर दे | यक्ष ने कहा भीम और अर्जुन जिनकी सहायता से तुम दुर्योधन को जीत सकते हो, उन्हें छोड़ कर तुम नकुल को क्यों जीवित करना चाहते है ?  मैं तुम्हे सावधान करके पुन: विचार करने का अवसर देता हूँ | युधिस्टर ने कहा  मैं माता कुन्ती का पुत्र हूँ, नकुल के जीवित रहने से मेरी माता माद्री की सन्तति भी कायम रहेगी, अत: आप नकुल को जीवित कर दे | यक्ष उनके भाव को देख कर प्रसन्न हो गया और चारों भाइयोंको जीवित कर दिया |

माताओं से यही कहना है की ऐसा व्यवहार करना चाहिये | कुन्ती देवी ने कितना
उपकार किया, ब्राह्मण परिवार की रक्षा के लिये अपने लड़के भीम को राक्षस के सामने
मरने के लियें भेज दिया | सोचना चाहिये, आज हमारे यहाँ कोई प्लेग की बीमारी आ
जाती है तो वहाँ कोई सोना भी नहीं चाहता | कुन्ती जैसी स्त्री और माता कोई ही होगी
जो ऐसे काम के लिए उत्साह दिलाये | सम्पति में तो सभी शामिल हो जाते हैं | विपत्ति
में शामिल होने में ही विशेषता है |आपति में शामिल होनेवाले को ही भगवान याद
करते है | माताओं को देवी कुन्ती का और हम लोगो को महाराज युधिस्टर का अनुकरण
करना चाहिये ||.....शेष अगले ब्लॉग में


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन की आवश्यकता पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर           


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बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

स्वार्थ रहित व्यवहार -4-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ शुक्ल, दशमी, बुधवार, वि० स० २०६९

 
 गत ब्लॉग से आगे.....विलम्ब इसलिये है क्योकि नीयत अच्छी नहीं है | यदि भगवान को चाहते है तो फिर कर्म भी वैसा ही होना चाहिये | यह कार्य करना बहुत सरल है | कहावत है की कौड़ियों में हाथी मिल रहा है | यहाँ तो कौड़ियों की भी जरुरत नहीं है, वह ईश्वर हाथी से भी महान है | यह नियम कर ले की घर में कोई गाली दे तो उससे लड़ाई नहीं करुँगी, न रुठुंगी और न प्रतिकार करुँगी, उसको सह लूंगी, यदि यह नियम लिया जाये तो नए पाप नहीं बढ़ सकते | रहे पुराने पाप, उनके लिए स्वार्थ तो त्यागकर दूसरों की सेवा करनी चाहिये तथा उदारता के साथ सबकी सेवा करके प्रसन्न होना चाहिये | भगवान ही आ गए है, इस भाव से रसोई बनती है, उसका कल्याण हो जाता है | वह  मानती है की आज मेरा अहोभाग्य है | अतिथि रूप में भगवान आये है | ऐसा भाव रखने वाले के यहाँ कभी-न-कभी प्रभु अतिथिरूप में आ जाते है | संसार में सभी जीते है | एक रोज मरना है ही और कोई पदार्थ मरने के साथ नहीं जायेगा, इसलिए इन सब पदार्थो को भगवान के लिए ही खर्च कर देना चाहिये | भगवान के मिलने के लिए विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं है | एक अच्छे पुरुष के लिए भी कितनी तैयारी करते है | प्रभु तो प्रेम की तैयारी से ही आ जाते है | प्रेम होना चाहिये |

जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र,पुष्प,फल,जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रगट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ | (गीता ९|२६)

जिससे हमारी भेट हो उसी को भोजन कराये तो फिर उससे परमात्मा मिलते है |.....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन की आवश्यकता पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

स्वार्थ रहित व्यवहार -3-


|| श्री हरि: ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ शुक्ल, नवमी, मंगलवार, वि० स० २०६९



गत ब्लॉग से आगे.....
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेस्ठ पुरुष सब पापो से मुक्त हो जाते है और जो पापीलोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, तो वे पाप को ही खाते है | (गीता ३|१३)

ईश्वरकी सेवा के लिये ही भोजन बनाओ | वृद्धो को, अतिथि, बालकों को देकर ही भोजन करो, बची हुई अमृत और बचाई हुई विष है | अलग रखकर पति को भोजन कराये और घटिया सामग्री अतिथि को दे तो पति को ऐसा भोजन करना विष है | बचाई हुई चीज विष के सामान है, बची हुई अमृत के समान है, ऐसी ही वस्तुओ, सब बातों में यही बात है | अच्छी चीज लेने की इच्छा ही नरक में ले जाने वाली है | सबको सोचना चाहिये | जो आम मेरे लिए ख़राब है सबके लिए ख़राब है | नौकरों को देनेके लिए भी ख़राब है | अच्छे पदार्थ दूसरों के लिए, बचे हुए अपने लिए है | जो पदार्थ ख़राब हो गए, वे तो फेकने योग्य है | ऐसे व्यवहार से घर में रहने वाली सब स्त्रियाँ और ईश्वर की भी आँख खुलेंगी की यह तो उत्तम स्त्री है | ईश्वर और देवताओं की बात तो अलग हैं, नरक के प्राणी भी नरक में बुरी स्त्री को नहीं रखना चाहते, उसके लिए कही ठौर नहीं है | जिससे सुख मिलता है, उससे प्रेम करते है | बुरे आदमी को कोई भी रखने को तैयार नहीं | हमको ऐसी योग्यता प्राप्त करनी चाहिये कि हम जहाँ जाये वहीँ आने की पुकार हो | देवता भी उसको बुलाना चाहते है | केवल इतना ही करना है की वर्तमान में जो व्यवहार कर रही हो, उसे उलट दो तो वहाँ लिखे हुए ख़त भी उलटे कर दिए जायेंगे, यानी प्रारब्ध सुधर जायेगा, फिर आपका बेडा पार है  | नीयत ही अच्छी होनी चाहिये, नीयत यदि बुरी है तो अच्छे कर्म भी आपके लिए ख़राब है | लाक्षाभवन में जलाने के लिए राजा युधिष्ठिर को दान देने के बहाने बारनावत भेजा था पर नियत ठीक नहीं थी | वह नीयत उनके लिए ही ख़राब हुई | जो कोई दूसरे का हित करता है, वह अपना ही हित करता है | जो दुसरे का अपकार करता है, वह अपना ही नुकसान करता है | घर में लड़ाई हो, कोई गाली दे, तो बदले में गाली न दे, यह उत्तम मार्ग है | जिस दिन नीयत बदल जाएगी, प्रारब्ध भी बदल जायेगा | उसी दिन भगवान तैयार है |
…......शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन की आवश्यकता पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

स्वार्थ रहित व्यवहार -2-


|| श्री हरि: ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ शुक्ल, अष्टमी, सोमवार, वि० स० २०६९

                                     

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परन्तु अपने अधीन किये हुए अंत:करण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अंत:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है |

अंत:करण की प्रसन्नता होने पर साधक के सम्पूर्ण दुखो का आभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चितवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब और से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांती स्थिर हो जाती है |  (गीता २|६४-६५)

इसकी पहचान यही है की उसमे रागद्वेष नहीं होते और न उससे पाप ही होता है | वह सदा के लिए परमेश्वर में स्थित हो जाता है, भोजन राग-द्वेष छोड़कर करता है | ईश्वर केलिए चलता है, सोता है, दान देता है | जैसे एक आदमी बाढ़ में सेवा में गया तो उसका उद्देश्य केवल बाढ़ के लिए है | वह भी  इसी तरह भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्य करता है | यदि भोजन नहीं करूँगा तो मर जाऊंगा, फिर भजन कैसे करूँगा | इसीके लिए, ईश्वर के दर्शन के लिए जीता है, शबरी की तरह ईश्वर के लिए जिनका जीना है, उनका सभी कार्य ईश्वर के लिए ही है | माता, बहने जो कार्य करती है, वह प्रभु के लिए करे | यह बात सबके लिए ही है | अपना लाभ सोच कर जो कार्य किया जाता है, वही पतन का कार्य है | यह सोचे की किसीको भी लाभ है, वह ईश्वर को लाभ है | ईश्वर का मार्ग बिलकुल उल्टा है | आज कोई गाली दे तो सुनकर दुःख होता है, प्रसशासे प्रसन्नता होती है, यह प्रवृति मार्ग है, बस इसका उल्टा ईश्वर का मार्ग है | अपने साथ में बुराई करे, उसके साथ भलाई करो | अपने पास की वस्तु को पहले दूसरो को दो | अच्छी चीज दूसरो को दो, बची हुई अपने लिए रखो |.....शेष अगले ब्लॉग में

  श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन की आवश्यकता पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!