※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

मिल और नील से हानि -4-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

फाल्गुन कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०६९
  गत ब्लॉग से आगे.....  यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि हाथ से बनी वस्तुओ का निर्माण करने में जितनी धार्मिक भावना रहती है, उतनी मिल के काम में नहीं रह सकती | उदहारण स्वरुप चीनी को ही लीजिये | आजकल चीनी को चमकदार बनाने में उसमे नील दी जाती है | हमारे शास्त्रों के अनुसार नील सर्वथा हानिकारक, धर्मंनाशक और अशुभको पैदा करने वाली है | सर्वग्य ऋषि-मुनियों ने इस विषय पर क्या लिखा है और कहाँ तक नील के व्यव्हार में हानि बतलाई है, इसका पता नीचे उध्ग्रह्त किये कुछ श्लोक से लग सकता है |

१. भोजन के निमित एक ही पंक्ति में पृथक्-पृथक् बैठे हुए अनेकों मनुष्यों में यदि एक भी मनुष्य नील का वस्त्र पहने हो तो वे सभी अपवित्र माने जाते है | उस समय जिसके साधारण या रेशमी वस्त्रमें नील से रंगाँ हुआ अंश दीख जाये उसे तिरात्रव्रत करना चाहिये और उसके साथ बैठने वाले शेष मनुष्य उस दिन उपवास करे | (अत्रिसहिंता २४४-२४५)

२.नील की खेती, विक्रय और उसकी वृतिद्वारा जीविका चलाने से ब्राह्मण पतित हो जाता है, फिर तीन कृच्छव्रत करने से वह शुद्ध होता है | (अन्गिर:स्मृति)

३.यदि ब्राह्मण का शरीर नील की लकड़ी से बिंध जाय और रक्त निकल आवे तो वह चान्द्रायण व्रत का आचरण करे | (आपस्तम्बस्मृति ६|६)

४.यदि ब्राह्मण नील की लकड़ी से पकाया हुआ अन्न भोजन कर ले तो उस आहार का वमन करके पन्चगव्य लेने से वह शुद्ध होता है |

५.यदि द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य) असावधानता  वश नील भक्षण कर ले तो तीनो द्विजातियो के लिए सामान्यरूप से चान्द्रायणव्रत करना बतलाया गया है |

६. नील के रँगे हुए वस्त्र को धारण करके जो अन्न दिया जाता है वह दाता को नहीं मिलता और उसे भोजन करने वाला ही भी पाप ही भोगता है |

६. पतिदेव के मर जानेपर जो स्त्री नील से रंगा हुआ वस्त्र धारण करती है उसका पति नरक में जाता है, उसके बाद वह स्त्री भी नरक में ही पड़ती है |

७. नील बोनेसे दूषित हुए खेत में जो अन्न पैदा होता है वह द्विजातियो के भोजन करने योग्य नहीं होता,उसे खा लेने पर चाद्रायण व्रत करना चाहिये | ....शेष अगले ब्लॉग में   

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!