|| श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
फाल्गुन कृष्ण, चतुर्थी, शुक्रवार, वि० स० २०६९
गत
ब्लॉग से आगे..... ८. नील में रँगे वस्त्र को धारण करने से मनुष्य के स्नान, दान, जप, होम,
स्वाध्याय, पितृतर्पण और पञ्चयग्य सभी निष्फल हो जाते है |
९.
यदि कभी रोमकूपों द्वारा नील का रस अंदर अन्दर चला जाए तो ब्राह्मण पतित हो जाता
है और फिर तीन कृच्छव्रत करने से शुद्ध होता है | (आपस्तम्बस्मृति ६|५)
१०.
नील से रँगे हुए वस्त्रद्वारा यदि अन्न लाया जाय तो वह द्विजातियो के भोजनयोग्य
नही रह जाता है, उसे खा लेने पर
चान्द्रायण व्रत करना चाहिये |
उपयुर्क्त
ऋषि-वाक्यों से नील का सर्वथा अपवित्र होना एवं पाप और दुखो की उत्पत्ति का
कारण होना तथा अन्तकरण को दूषित करके
अध्यात्ममार्ग से गिराने वाला होना सिद्ध है |
आजकल
हमलोग प्राय: न तो शास्त्र के वाक्यों का अधयन्न ही करते है और न उन पर विश्वास
ही; इसी कारण से मनमाना आचरण करने लगे है | धोबियों तक से कपडे की चमक के लिए कपडे
धुलवाने में नील दी जाती है | वस्त्र के किनारे और वस्त्रो का नीला-काला तो शौकीनी
का अन्ग हो गया है | चीनी के साथ मिलकर अभ तो नील हमारे पेटो में जाने लगी है, अत
एव केवल पवित्रता का विज्ञापन देकर ही हमे नहीं भूलना चाहिये | ऋषिवाक्यों के
अनुसार पवित्रता की जाँच करनी चाहिये और जहाँ तक् बने अपवित्र वस्तुओ का तन-मन से
तेग करना चाहिये |
इस
प्रकार मिलके बने हुए वस्त्रों पर प्राय: पशुओं की चर्बी से पालिश की जाती है, शायद
ही कोई ऐसी मिल् हो जिसमे चर्बी का उपयोग न होता है | इसके लिए प्रतिवर्ष लाखों निरीह, निरपराध और
मूक पशुओ का वध होता है | ऐसी अवस्था में मिलके वस्त्रों का व्यवहार करने से धर्म,
जाति, पवित्रता, स्वास्थ्य, धन आदि सभी का नाश होता है |
अत
एव जहाँ तक हो सके मिल के बनी चीनी, चावल, आटा और वस्त्र आदि सभी पदार्थों का
सर्वथा त्याग करना चाहिये |
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण
!!! नारायण !!!