|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण पञ्चमीं, शनिवार, वि०स० २०६९
*शिव-तत्त्व*
शान्तं
पद्मासनस्थं शशधरमुकुटं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रं
शूलं
वज्रं च खड्गं परशुमभयदं दक्षभागे वहन्तम् |
नागं
पाशं च घंटा प्रलयहुतवहं साङ्कुशं वामभागे
नानालंकारयुक्तं
स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि ||
“जो शान्तस्वरूप हैं, कमल के आसनपर विराजमान हैं, मस्तकपर चन्द्रमा का
मुकुट धारण करनेवाले हैं, जिनके पांच मुख हैं, तीन नेत्र हैं, जो अपने दाहिने भाग
की भुजाओं में शूल, वज्र, खड्ग, परशु और अभयमुद्रा धारण करते हैं तथा वामभाग की
भुजाओं में सर्प, पाश, घंटा, प्रलयाग्नि और अंकुश धारण किये रहते हैं, उन नाना
अलंकारों से विभूषित एवं स्फटिकमणि के समान श्वेतवर्ण भगवान् पार्वतीपति को
नमस्कार करता हूँ |”
शिव-तत्व
बहुत गहन है | मुझ-सरीखे साधारण व्यक्ति का इस तत्त्वपर कुछ लिखना एक प्रकार से
लड़कपन के समान है | परन्तु इसी बहाने उस विज्ञानानंदघन महेश्वर की चर्चा हो
जायेगी, यह समझकर अपने मनोविनोद के लिए कुछ लिख रहा हूँ | विद्वान् महानुभाव क्षमा
करें |
श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास आदि में
सृष्टि की उत्पत्ति का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन मिलता है | इसपर तो यह कहा जा
सकता है कि भिन्न-भिन्न ऋषियों के पृथक्-पृथक् मत होनेके कारण उनके वर्णन में भेद
होना सम्भव है; परन्तु पुराण तो अठारहों एक ही महर्षि वेदव्यास के रचे हुए माने
जाते हैं, उनमें भी सृष्टि की उत्त्पत्ति के वर्णन में विभिन्नता ही पायी जाती है
| शैवपुराणों में शिवसे, वैष्णवपुराणों में विष्णु, कृष्ण या राम से और
शाक्तपुराणों में देवी से सृष्टि की उत्पत्ति बतलायी गयी है इसका क्या कारण है ?
एक ही पुरुष द्वारा रचित भिन्न-भिन्न पुराणोंमें एक ही ख़ास विषय में इतना भेद
क्यों ? सृष्टि के विषय में ही नहीं, इतिहासों और कथाओं का भी पुराणों में
कहीं-कहीं अत्यंत भेद पाया जाता है | इसका क्या हेतु है ?
इस प्रश्नपर मूल तत्त्व की ओर लक्ष्य रखकर
गम्भीरता के साथ विचार करनेपर यह स्पष्ट मालुम हो जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति
के क्रम में भिन्न-भिन्न श्रुति, स्मृति और इतिहास-पुराणों के वर्णनमें एवं योग,
सांख्य, वेदान्तादि शास्त्रों के रचयिता ऋषियों के कथन में भेद रहनेपर भी वस्तुतः
मूल सिद्धांत में कोई ख़ास भेद नहीं है | क्योंकि प्रायः सभी कोई नाम-रूप बदलकर आदि
में प्रकृति-पुरुष से ही सृष्टि की उत्पत्ति बतलाते हैं | वर्णन में भेद होने अथवा
भेद प्रतीत होने के निम्नलिखित कई कारण हैं—
१—मूल-तत्त्व एक होनेपर भी प्रत्येक महासर्ग
के आदि में सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम सदा एक-सा नहीं रहता; क्योंकि वेद, शास्त्र
और पुराणों में भिन्न-भिन्न सर्ग और महासर्गों का वर्णन है, इससे वर्णन में भेद
होना स्वाभाविक है |
२—महासर्ग और सर्ग के आदि में भी उत्पत्ति-क्रम
में भेद रहता है | ग्रंथों में कहीं महासर्ग का वर्णन है तो कहीं सर्ग का, इससे भी
भेद हो जाता है |
३—प्रत्येक सर्ग के आदि में भी सृष्टि की
उत्पत्ति का क्रम सदा एक-सा नहीं रहता, यह भी भेद होने का एक कारण है |
४—सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार के क्रम
का रहस्य बहुत ही सूक्ष्म और दुर्विज्ञेय है, इसे समझाने के लिए नाना प्रकार के
रूपकों से उदाहरण-वाक्यों द्वारा नामरूप बदलकर भिन्न-भिन्न प्रकार से सृष्टि की
उत्पत्ति आदि का रहस्य बतलाने की चेष्टा की गयी है | इस तात्पर्य को न समझने के
कारण भी एक दूसरे ग्रन्थ के वर्णन में विशेष भेद प्रतीत होता है |
ये तो सृष्टि की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में
वेद-शास्त्रों में भेद होने के कारण हैं |.......शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!