※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 5 जुलाई 2014

कर्मयोग -९


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, अष्टमी, शनिवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -९

       गत ब्लॉग से आगे.....निष्काम कर्मयोगी पवित्र और एकान्त स्थान में स्थित होकर भी शरीर, इन्द्रिय और मन को स्वाधीन किये हुए परमात्मा की शरण हुआ प्रशान्त और एकाग्र मन से  श्रद्धा और प्रेमपूर्वक परमात्मा का ध्यान करता है ।

व्यवहारकाल में कर्मयोगी कर्मों के फल और आसक्ति को त्यागकर समत्वबुद्धि से भगवदआज्ञानुसार भगवदर्थ कर्म करता है, इसलिए उसे कर्म नही बाधं सकते; क्योकि राग-द्वेष ही बाधने वाले है ।

भगवान् की आज्ञा से भगवदर्थ कर्म किये जाने के कारण कर्मयोगी में कर्तापन का अभिमान भी निरभिमान के समान ही है ।

निष्काम कर्मयोगी व्यव्हारकाल में भगवान की शरण होकर निरन्तर भगवान् को याद रखता हुआ भगवान् के आज्ञानुसार सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् की प्राप्ति के लिए ही करता है ।

कर्मयोगी फलासक्ति को त्यागकर कर्मों को इश्वरअर्पण कर देता है, इसलिए उनका कर्मों से सम्बन्ध नही रहता ।

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

कर्मयोग -८


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -८

       गत ब्लॉग से आगे.....साधन निष्काम प्रेमभाव से हर समय भगवान् का चिन्तन करते हुए भगवदआज्ञानुसार केवल भगवतप्रीत्यर्थ ही करने का नाम भक्तिप्रधान निष्काम कर्मयोग है ।

कर्मप्रधान में भी भक्ति रहती है; किन्तु सामन्य-भाव से रहती है । फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदआज्ञानुसार समत्व-बुद्धि से कर्म करने का नाम कर्मप्रधान निष्कामकर्मयोग है ।

कर्मयोग की निष्ठा में प्रकृति-माया, जीवात्मा और परमेश्वर-ये तीन पदार्थ माने गए है । वे सर्वशक्तिमान, सबके कर्ता-हर्ता, सर्वात्न्यामी, सर्वव्यापी परमेश्वर उस नित्य विज्ञानानन्दघन ब्रह्म की प्रतिष्ठा है अर्थात विज्ञानानन्दघन ब्रह्म वे ही है । उन्होंने ही अपनी योगमाया के एक अंश से सम्पूर्ण संसार को अपने में धारण कर रखा है । माया ईश्वर की शक्ति है तथा जड, अनित्य और विकारी है एवं ईश्वर के अधीन है तथा जीवात्मा भी ईश्वर का अंश होने के कारण नित्य विज्ञानानन्दघन है, किन्तु माया में स्तिथ होने के कारण परवश हुआ वह गुण और कर्मों के अनुसार सुख-दुखादी को भोगता एवं जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है; किन्तु परमात्मा की शरण होने से वह माया से छुटकारा पाकर परमपद को प्राप्त हो सकता । .....शेष अगले ब्लॉग में

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

कर्मयोग -७


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, षष्ठी, गुरुवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -७

       गत ब्लॉग से आगे.....साधन करते-करते साधक अहंता, ममता और आसक्ति आदि सारे दोषों से मुक्त हो जाता है और उसका सारे संसार में सदा-सर्वदा समभाव हो जाता है ।

सारे काम को प्रभु का काम समझना चाहिये । हम लीलामाय के साथ काम कर रहे है । इससे प्रभु की इच्छा के अनुसार ही चलना चाहिये

यदि आसक्ति या स्वभाव-दोष के कारण प्रभु की आज्ञा का कही उल्लंघन हो जाय तो पुन: वैसा न होने के लिए भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये ।

अपनी समझ से कोई अनुचित कार्य नही करना चाहिये । हमलोग किसी की भलाई के लिए कोई कार्य कर रहे है कदाचित दैव-इच्छा से उसकी कोई हानि हो जाय तो उसमे चिंता या पश्चाताप नही करना चाहिये ।

सेवक को तो प्रभु का काम करके हर्षित होना चाहिये और तत्परता से अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहना चाहिये ।

रोगी कुपथ्य कर लिया करते है । इसमें अपना क्या वश है । कुपथ्य करने पर सद्वैध्य रोगी को धमका तो देते है; परन्तु रुष्ट नही होता । इसी प्रकार फल को भगवान् की इच्छा पर छोड़ देना चाहिये और बिना उकताये प्रभु की लीला में उनके इच्छानुसार लगे रहना चाहिये ।

फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदआज्ञानुसार केवल भगवतप्रीत्यर्थ कर्म करने का नाम निष्काम कर्मयोग है । .....शेष अगले ब्लॉग में

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, 2 जुलाई 2014

कर्मयोग -६


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, पञ्चमी, बुधवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -६

       गत ब्लॉग से आगे.....पद-पद पर स्वामी के स्वरुप और उनकी दया का दर्शन करते हुए क्षण-क्षण में मुग्ध होते रहना और सर्वस्व स्वामी का ही समझते हुए अभिमान से रहित रहकर निमितमात्र बनकर प्रभु के आज्ञानुसार कर्मों का करना सर्वोत्तम भगवदअर्पण कर्म है ।

श्रद्धा और प्रेम की कमी, मान और बड़ाई, मन की चंचलता, प्रमाद, आलस्य, अज्ञान, आसक्ति और अहंकारप्रभृतिकर्मयोग के साधन में रूकावट डालनेवाले विशेष दोष है ।

विवेक और वैराग्य द्वारा सारे विषय-भोगों से मन को हटाकर भगवान की शरण रहते हुए श्रद्धा और प्रेमपूर्वकनिष्काम कर्मयोग के साधन के लिए प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये । इस प्रकार चेष्टा करने से सम्पूर्ण दुखों और दोषों का नाश होकर परम आनन्द और परम शान्ति की प्राप्ति शीघ्र हो सकती है ।

कंचन, कामिनी, भोग और आराम की तो बात ही क्या है, निष्काम कर्मयोगरूप धर्म के थोड़े-से भी पालन के मुकाबले मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और अपने प्राणों को भी तुच्छ समझना एवं परम तत्पर होकर उसके पालन के लिए सदा-सर्वदा प्रयत्न करना ही प्राण-पर्यन्त चेष्टा करना है ।

जो इस निष्काम कर्मयोग के रहस्य और प्रभाव को तत्व से जान जाता है, वह फिर इसे छोड़ नही सकता .....शेष अगले ब्लॉग में

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

कर्मयोग -५


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ शुक्ल, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -५      

गत ब्लॉग से आगे.....शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों में फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदआज्ञानुसार समत्वबुद्धि से केवल भगवदर्थ या भगवदअर्पण  कर्म करने का नाम निष्काम कर्मयोग है । इसी को समत्वयोग, बुद्धियोग, कर्मयोग, तदर्थकर्म, मदर्थकर्म, मत्कर्म आदि नामों से कहां है ।

स्त्री, पुत्र, धन, ऐश्वर्य,मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग आदि सांसारिक, सुखदायक सम्पूर्ण पदार्थों की इच्छा या कामना का सर्वथा त्याग ही कर्मों के फल का त्याग है ।

मन और इन्द्रियों के अनुकूल सांसारिक सुखदायक पदार्थों और कर्मों में चित को आकृष्ट करने वाली जो स्नेहरूपी वृत्ति है, ‘राग’, ‘रस’, ‘सँग’ आदि जिसके नाम है, उनके सर्वथा त्याग का नाम आसक्ति का त्याग है ।

श्रुति, स्मृति, गीतादि सत-शास्त्र और महापुरुषों की आज्ञा भगवदआज्ञा है ।

सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, जीवन-मरणआदि इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति में सदा-सर्वदा सं रहना समत्व-बुद्धि है ।

स्वयं भगवान् की पूजा-सेवा रूप कर्मों को या भगवदआज्ञानुसार शास्त्रविहित कर्तव्यक्रोम को भगवतप्रेम भगवान् की प्रसन्नता या प्राप्ति के लिए कर्तव्य समझकर केवल भगवान् की आज्ञा का पालन करने के लिए करना भगवदअर्थ कर्म है ।.....शेष अगले ब्लॉग में

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!