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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ शुक्ल, पञ्चमी, बुधवार, वि० स० २०७१
कर्मयोग -६
गत ब्लॉग से आगे.....पद-पद पर स्वामी के स्वरुप और
उनकी दया का दर्शन करते हुए क्षण-क्षण में मुग्ध होते रहना और सर्वस्व स्वामी का
ही समझते हुए अभिमान से रहित रहकर निमितमात्र बनकर प्रभु के आज्ञानुसार कर्मों का
करना सर्वोत्तम भगवदअर्पण कर्म है ।
श्रद्धा और प्रेम की कमी, मान और
बड़ाई, मन की चंचलता, प्रमाद, आलस्य, अज्ञान, आसक्ति और अहंकारप्रभृतिकर्मयोग के
साधन में रूकावट डालनेवाले विशेष दोष है ।
विवेक और वैराग्य द्वारा सारे
विषय-भोगों से मन को हटाकर भगवान की शरण रहते हुए श्रद्धा और प्रेमपूर्वकनिष्काम
कर्मयोग के साधन के लिए प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये । इस प्रकार चेष्टा करने
से सम्पूर्ण दुखों और दोषों का नाश होकर परम आनन्द और परम शान्ति की प्राप्ति
शीघ्र हो सकती है ।
कंचन, कामिनी, भोग और आराम की तो
बात ही क्या है, निष्काम कर्मयोगरूप धर्म के थोड़े-से भी पालन के मुकाबले मान,
बड़ाई, प्रतिष्ठा और अपने प्राणों को भी तुच्छ समझना एवं परम तत्पर होकर उसके पालन
के लिए सदा-सर्वदा प्रयत्न करना ही प्राण-पर्यन्त चेष्टा करना है ।
जो इस निष्काम कर्मयोग के रहस्य और
प्रभाव को तत्व से जान जाता है, वह फिर इसे छोड़ नही सकता .....शेष अगले ब्लॉग में
-सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष
८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!