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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ शुक्ल, षष्ठी, गुरुवार, वि० स० २०७१
कर्मयोग -७
गत ब्लॉग से आगे.....साधन करते-करते साधक अहंता,
ममता और आसक्ति आदि सारे दोषों से मुक्त हो जाता है और उसका सारे संसार में
सदा-सर्वदा समभाव हो जाता है ।
सारे काम को प्रभु का काम समझना
चाहिये । हम लीलामाय के साथ काम कर रहे है । इससे प्रभु की इच्छा के अनुसार ही
चलना चाहिये ।
यदि आसक्ति या स्वभाव-दोष के कारण
प्रभु की आज्ञा का कही उल्लंघन हो जाय तो पुन: वैसा न होने के लिए भगवान् से
प्रार्थना करनी चाहिये ।
अपनी समझ से कोई अनुचित कार्य नही
करना चाहिये । हमलोग किसी की भलाई के लिए कोई कार्य कर रहे है कदाचित दैव-इच्छा से
उसकी कोई हानि हो जाय तो उसमे चिंता या पश्चाताप नही करना चाहिये ।
सेवक को तो प्रभु का काम करके
हर्षित होना चाहिये और तत्परता से अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहना चाहिये ।
रोगी कुपथ्य कर लिया करते है ।
इसमें अपना क्या वश है । कुपथ्य करने पर सद्वैध्य रोगी को धमका तो देते है; परन्तु
रुष्ट नही होता । इसी प्रकार फल को भगवान् की इच्छा पर छोड़ देना चाहिये और बिना
उकताये प्रभु की लीला में उनके इच्छानुसार लगे रहना चाहिये ।
फल और आसक्ति को त्यागकर
भगवदआज्ञानुसार केवल भगवतप्रीत्यर्थ कर्म करने का नाम निष्काम कर्मयोग है । .....शेष अगले ब्लॉग में
-सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष
८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!