※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 30 जून 2013

गीताजी की सर्वप्रियता


|| श्रीहरिः ||

  आज की शुभतिथि-पंचांग

   आषाढ़ कृष्ण, कालाष्टमी, रविवार, वि० स० २०७०


प्रश्न – सभी भगवत्प्राप्त पुरुषों की प्रापणीय वस्तु, गीतावक्ता तथा गीताग्रन्थ के एक होने पर भी भगवत्प्राप्त आचार्यों को गीता के अर्थ की प्रतीति भिन्न-भिन्न होने में क्या कारण है?

उत्तर – सबकी प्रापणीय वस्तु एक होने पर भी सबके पूर्व के संस्कार, संग, साधन,स्वभाव और बुद्िध भिन्न-भिन्न होने के कारण उनके कहने-समझाने की शैली और पद्धति भिन्न-भिन्न हुआ करती है | तथा भगवान को जिस समय जिस पुरुष के द्वारा जैसे भावों का प्रचार करना होता है, वही भाव उस आचार्य के हृदय में उस समय प्रकट हो जाते हैं और उन्हें गीता का अर्थ और भाव वैसे ही प्रतीत होने लग जाता है |

प्रश्न – जब सबका कहना भिन्न-भिन्न है तो सभी का कथन यथार्थ कैसे हो सकता है ?

उत्तर – एक दृष्टि से सभी का कथन यथार्थ है और दूसरी दृष्टि से किसी का कहना भी यथार्थ नहीं | भगवत्प्राप्ति रूप अंतिम परिणाम सबका एक होने पर भी सबका कथन अलग-अलग हो सकता है | जैसे द्वितीया के चन्द्रमा का दर्शन करने वाले कई व्यक्तिओं में से कोई एक तो ऐसे बतलाते हैं कि चंद्रमा उस वृक्ष की टहनी से ठीक एक बित्ता ऊपर है | दूसरा व्यक्ति कहता है कि चंद्रमा इस मकान के कोने से सटा हुआ है | तीसरा आदमी खड़िया मिट्टी से लकीर खींचकर बतलाता है कि ऐसी ही आकृति का चंद्रमा है और उस उड़ते  हुए पक्षी के दोनों पंजो के ठीक बीच में दीख रहा है | और चौथा व्यक्ति सिरकी के आकार का बतलाता हुआ इस प्रकार संकेत करता है कि चन्द्रमा मेरी अँगुली के ठीक सामने दीख रहा है | जैसे इन सभी व्यक्तिओं का लक्ष्य चन्द्रमा का दर्शन कराने का है और वे अपनी शुभ नियत से अपनी-अपनी प्रतिक्रिया बतलाते हैं; पर एक-दूसरे के कथन में परस्पर आकश-पाताल का अंतर है | इसी प्रकार सभी आचार्यों का उद्देश्य एक ही है,सभी साधकों को भगवत्प्राप्ति कराने के उदेश्य से कहते है; परन्तु उनके कथन में परस्पर अत्यंत भेद हैं | हाँ, अंतिम परिणाम सबका एक होने से सभी का कहना ठीक है अर्थात् किसी भी आचार्य के कथनानुसार चलने से वास्तविक परमात्माप्राप्ति हो जाती है, इस न्याय से सभी का कहना यथार्थ है | किन्तु शब्दों का अर्थ लगाकर तर्क करें तो किसी का भी कहना ठीक नहीं ठहरता, क्योकि वास्तव में चंद्रमा न तो वृक्ष से एक बित्ता ऊँचा है, न ही मकान से सटा हुआ है, न पक्षी के पंजो के बीच में है और न अंगुली के ठीक सामने ही है तथा न चंद्रमा की आकृति ही उन लोगों के कहने के अनुसार ही है | शब्दों पर तर्क करने से कोई-भी बात कायम नहीं रह सकती |

प्रश्न – भगवद्वाक्यरूप गीता के मूल पर श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति गीता का यथार्थ अर्थ जानना चाहता है; किन्तु वह अनेको टीकाओं  को पढ़ने से संशय-भ्रम में पड़ जाता है, तो उसे यथार्थत: गीता का ज्ञान हो, इसके लिए वह क्या उपाय करे ?

उत्तर – जो भगवद्वाक्यों को इत्थम्भूत मानकर उनके अनुसार अपना जीवन बनाने के उदेश्य से भगवान के ऊपर निर्भर होकर अपनी बुद्धि के अनुसार विशुद्ध नियत से मूल शब्दों के अर्थ का ख्याल रखता हुआ उनमें प्रवेश होकर उनका स्वाध्याय और अनुशीलन करता रहता है तो भगवत्कृपा से उनके संशय-भ्रम आदि सबका नाश होकर गीता का इत्थम्भूत यथार्थ ज्ञान उसे स्वयमेव हो जाता है |

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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

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शनिवार, 29 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ?-१०-

                                  || श्रीहरिः ||
                      आज की शुभतिथि-पंचांग
     आषाढ़ कृष्ण, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....अच्छे पुरुष बड़ाई हो हानिकर समझकर विचारदृष्टी से उसको अपने में रखना नहीं चाहते और प्राप्त होनेपर उसका त्याग भी करना चाहते है | तो भी यह सहज में उनका पिण्ड नहीं छोडती | इसका शीघ्र नाश तो तभी होता है जब की यह ह्रदयसे बुरी लगने लगे और इसके प्राप्त होने पर यथार्थ में दुःख और घ्रणा हो | साधक के लिए साधन में विघ्न डालनेवाली यह मायाकी मोहिनी मूर्ती है, जैसे चुम्बक लोहे को, स्त्री कामी पुरुष को, धन लोभी पुरुष को आकर्षण करता है, यह उससे भी बढ्कर साधक को संसार समुद्र की और खीच कर उसे इसमें बरबस डुबो देती है | अतएव साधक को सबसे अधिक बड़ाई से ही डरना चाहिये | जो मनुष्य बड़ाई को जीत लेता है वह सभी विघ्नों को जीत सकता है |


योगी पुरुष के ध्यान में तो चित की चंचलता और आलस्य ये दो ही महाशत्रु के तुल्य विघ्न करते है | चित में वैराग्य होने पर विषयों में और शरीर में आसक्ति का नाश हो जाता है, इससे उपर्युक्त दोष तो कोई विघ्नं उपस्थित नहीं कर सकते परन्तु बड़ाई एक ऐसा महान दोष है जो इन दोषों के नाश होने पर भी अन्दर छिपा रहता है | अच्छे पुरुष भी जब हम उनके सामने उनकी बड़ाई करते है तो उसे सुनकर विचारदृष्टी से इसको बुरा समझते हुए भी इसकी मोहिनी शक्ति से मोहित हुए-से उस बड़ाई करने वाले के अधीन-से हो जाते है | विचार करने पर मालूम होता है की इस कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति से मोहित न होने वाले वीर करोड़ों में एक ही है |


कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति जिसको नहीं मोह सकती, वही पुरुष धन्य है, वही माया के दासत्व से मुक्त है, वही ईश्वर के समीप है और वही यथार्थ महात्मा है | यह बहुत ही गोपनीय रहस्य की बात है | जिस पर भगवान की पूर्ण दया होती है, या यों कहे की जो भगवान की दया के तत्व को समझ जाता है, वाही इस कीर्तिरूपी दोष पर विजय पा सकता है | इस विघ्न से बचने के लिए प्रत्येक साधक को सदा सावधान रहना चाहिये |     

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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

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शुक्रवार, 28 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ?-९-

                                || श्रीहरिः ||
                     आज की शुभतिथि-पंचांग
          आषाढ़ कृष्ण, षष्ठी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

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               महात्मा बनने के मार्ग में मुख्य विघ्न

ज्ञानी, महात्मा और भक्त कहलाने तथा बनने के लिए  तो प्राय: सभी इच्छा करते है, परन्तु उसके लिए सच्चे ह्रदय से साधन करने वाले लोग बहुत कम है | साधन करने वालों में भी परमात्मा के निकट कोई ही पहुचता है; क्योकि राह में ऐसी बहुत सी विपद-जनक घाटियाँ आती है जिनमे फसकर साधक गिर जाते है | उन घाटियों में ‘कन्चन; और ‘कामिनी’ ये दो घाटियाँ बहुत ही कठिन है, परन्तु इनसे भी कठिन तीसरी घाटी मान-बड़ाई और ईर्ष्या की है | किसी कवी ने कहा है
कंच्चन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह |
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह ||


इन तीनो में सबसे  कठिन है बड़ाई | इसी को कीर्ति, प्रसंसा, लोकेष्णा आदि कहते है | शास्त्र में जो तीन प्रकार की त्रष्णा (पुत्रेष्णा, लोकेष्णा और वितेश्ना) बताई गयी है | उन तीनो में लोकेष्णा ही सबसे बलवान है | इसी लोकेष्णा के लिए मनुष्य धन, धाम, पुत्र, स्त्री और प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हो जाता है |
जिस मनुष्य ने संसार में मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग कर दिया, वही महात्मा है और वही देवता और ऋषियों द्वारा भी पूजनीय है | साधू और महात्मा तो बहुत लोग कहलाते है किन्तु उनमे मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है | ऐसे महात्माओं की खोज करने वाले भाइयों को इस विषय का कुछ अनुभव भी होगा |


हम लोग पहले जब किसी किसी अच्छे पुरुष का नाम सुनते है तो उनमे श्रधा होती है पर उनके पास जाने पर जब हम उनमे मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा दिखलाई देती है, तब उन पर हमारी वैसी श्रद्धा नहीं ठहरती जैसी उनके गुण सुनने के समय हुई थी | यदपि अच्छे पुरुषों में किसी प्रकार भी दोषद्र्स्टी करना हमारी भूल है, परन्तु स्वभाव दोष से ऐसी वृतियाँ होती हुई प्राय: देखि जाती है और ऐसा होना बिलकुल निराधार भी नहीं है | क्योकि वास्तव में एक ईश्वर के सिवा बड़े-से-बड़े गुणवान पुरुषों में भी दोष का कुछ मिश्रण रहता ही है | जहाँ बड़ाई का दोष आया की झूठ, कपट और दम्भ को स्थान मिल जाता है तो अन्यान्य दोषों के आने को सुगम मार्ग मिल जाता है | यह कीर्ति रूप दोष देखने में छोटा सा है परन्तु यह केवल महातामो को छोड़कर एनी अच्छे-से-अच्छे पुरुषों में भी सूक्ष्म और गुप्तरूप से रहता है | यह साधक को साधन पथ से गिरा कर उसका मूलोछेदन कर डालता है |


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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

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गुरुवार, 27 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ?-८-

                                  || श्रीहरिः ||
                  आज की शुभतिथि-पंचांग
        आषाढ़ कृष्ण, पंचमी, गुरूवार, वि० स० २०७०
 

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भगवान की शरण ग्रहण करने पर उनकी दयासे आप ही सारे विघ्नों का नाश होकर भक्त को भगवतप्राप्ति हो जाती है | योगदर्शन में कहा है ‘उसका वाचक प्रणव (ओंकार) है |’ ‘उसका जप और उसके अर्थ की भावना करनी चाहिये |’ ‘इससे अन्तरात्मा की प्राप्ति और विघ्नों का अभाव भी होता हैं |’
भगवत-शरणागति के बिना इस कलिकाल में संसार-सागर से पार होना अत्यन्त ही कठिन है |


कलिजुग केवल नाम अधारा | सुमिर सुमिर भव उतरही पारा |
कलिजुग सम जुग आन नहीं जो नर कर बिस्वास |
गाई राम गुनगन बिमल भाव तर बिनही प्रयास |||
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनामेव केवलम |
कलो नास्तःयेव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ||
दैवी हेशाम गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रप्ध्यनते मायामेता तरन्ति ते ||
‘कलियुग में हरी का नाम, हरी का नाम, केवल हरी का नाम ही (उद्धार करता) है, इसके सिवा अन्य उपाय नहीं है, नहीं है, नहीं है |’
‘क्योकि यह अलोकिक (अति अद्भुत) त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, जो  पुरुष निरन्तर मुझको ही भजते है, वे इस माया को उलंघन कर जाते है यानि संसार से तर जाते है |


हरी माया कृत दोष गुण बिनु हरी भजन न जाही |
भजीअ राम तजि काम सब अस बिचारी मन माहि |



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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
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बुधवार, 26 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ?-७-

                                || श्रीहरिः ||
                  आज की शुभतिथि-पंचांग
        आषाढ़ कृष्ण,चतुर्थी, बुधवार, वि० स० २०७०

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                         महात्मा बनने के उपाय

इसका वास्तविक उपाय तो परमेश्वर की अनन्य-शरण होना ही है , क्योकि परमेश्वर की कृपा से ही यह पद मिलता है | श्रीम्ध्भ्गवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ‘हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की दया से ही तू परमशान्ति और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा |’ (१८|६२) परन्तु इसके लिए ऋषियों ने और भी उपाय बतलाये है | जैसे मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण कहे है ‘घृति, क्षमा, मन का निग्रह, अस्तेय, सौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध – ये धर्म के दस लक्षण है |’

महर्षि पतंजलि ने अंत:करणकी शुद्धिके लिए (जो की आत्मसाक्षात्कार के लिए अत्यन्त आवश्यक है ) एवं मन को निरोध करने के लिए बहुत-से उपाय बतलाये है | जैसे ‘सुखियोंके परति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा, पुन्यमाओं को देख कर प्रसन्नता और पापियों के प्रति उपेक्षा की भावना से चित स्थिर होता है |’ (१|३३)
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहचर्य, अपरिग्रह-ये पाँच यम है और सौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और इस्वरप्रणिधान-ये पाँच नियम है |’ (२|३०) (२|३२)
और भी अनेकों ऋषियों ने महात्मा बननेके यानी परमात्माके पद को प्राप्त होनेके लिए सद्भाव और सदाचार अनेक उपाय बतलाये है |


भगवान ने श्रीमध्भगवतगीता के तेरहवेअध्याय मेंन श्लोक ७ से ११ तक ‘ज्ञान’ के नाम से और सोलहवे अध्याय में श्लोक १-२-३ में ‘दैवी सम्पदा’ के नाम से एवं सत्रहवे अध्याय में श्लोक १४-१५-१६ में ‘तप’ के नाम से सदाचार और सद्गुणों का वर्णन किया है |
यह सब होने पर भी महर्षि पतंजलि, शुकदेव, भीष्म, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास यहांतक की स्वयं भगवान ने भी शरणागति को ही बहुत सहज और सुगम उपाय बताया है | अनन्य शक्ति, ईश्वर-प्रणिधान, अव्यभिचारिणी भक्ति और परम प्रेम आदि उसी के नाम है |
‘हे पार्थ ! जो पुरुष मुझमे अनन्य चित से स्तिथ हुआ  सदा ही निरन्तर मुझको स्मरण करता है उस मुझमे युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ |’ (गीता ८|१४)
‘जो एक बार भी मेरे शरण होकर ‘मैं तेरा हूँ’ ऐसा कह देता है, मैं उसे सर्व भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |’ (वा० रा० ६|१८|३३)


इसलिए पाठक सज्जनों से प्रार्थना है की ज्ञानी, महात्मा और भक्त बनने के लिए ज्ञान और आनन्द के भण्डार सत्यस्वरूप उस परमात्मा की ही अनन्य शरण ली चाहिये | फिर उपर्युक्त सदाचार और सद्भाव तो अनायास ही प्राप्त हो जाते है |....


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मंगलवार, 25 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ? -६-

                                || श्रीहरिः ||
                   आज की शुभतिथि-पंचांग
                आषाढ़ कृष्ण, द्वितीया/तृतीया, 

                     मंगलवार, वि० स० २०७०

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                        महात्माओं की महिमा

ऐसे महापुरुषों की महिमा का कौन बखान कर सकता है ? श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, सन्तो की वाणीऔर आधुनिक महात्माओं के वचन इनकी महिमा से भरे पड़े है |
गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो यहाँतक कह दिया है की भगवान को प्राप्त हुए भगवान के दास भगवान से भी बढ़कर है |


मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा | राम ते अधिक राम कर दासा ||
राम सिन्धु घन सज्जन पीरा | चन्दन तरु हरी सन्त समीरा ||
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत |
श्री रघुबीर परायन जेहि  नर उपज बिनीत ||


ऐसे महात्मा जहाँ विचरते है वहाँ का वायुमंडल पवित्र हो जाता है | श्रीनारद जी कहते है ‘वे अपनें प्रभाव से तीर्थों को (पवित्र करके) तीर्थ बनाते है, कर्म को सुकर्म बनाते है और शास्त्रों को शत-शास्त्र बना देते है |’ वे जहाँ रहते है, वाही स्थान तीर्थ बन जाता है या उनके रहने से तीर्थ का तीर्थत्व स्थायी हो जाता है, वे को कर्म करते है, वे ही सुकर्म बन जाते है, उनकी वाणी ही शास्त्र है अथवा वे जिस शास्त्र को अपनाते है, वही सत-शास्त्र समझा जाता है |


शास्त्रों में कहा है  ‘जिसका चित अपार संवित सुखसागर परब्रह्म में लीन है, उसके जन्म से कुल पवित्र होता है, उसकी जननी कृतार्थ होती है और पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है |’
धर्मराज युधिस्टर ने भक्तराज विदुरजी से कहा था ‘हे स्वामिन ! आप सरीखे भगवदभक्त स्वयं तीर्थ रूप है | (पापियों के द्वारा कलुषित हुए) तीर्थों को आप लोग अपने ह्रदय में स्तिथ भगवान श्रीगदाधरके प्रभाव से पुन: तीर्थतत्व प्राप्त करा देते है |’ (श्रीमद्भागवत १|१३|१०)


महातामों का तो कहना ही क्या है, उनकी आज्ञा पालन करने वाले मनुष्य भी परम पदको प्राप्त हो जाते है | भगवान स्वयं भी कहते है की जो किसी प्रकार का साधन न जानता हो वह भी महान पुरुषों के पास जाकर उनके कहे अनुसार चलने से मुक्त हो जाता है | ‘परन्तु दुसरे इस प्रकार के तत्वसे न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व को जानने वाले महापुरुषों से सुनकर ही उपासना करते है | वे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप संसार-सागर से निसंदेह त्र जाते है |


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सोमवार, 24 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ? -५-

                               || श्रीहरिः ||
                 आज की शुभतिथि-पंचांग
      आषाढ़ कृष्ण, प्रतिपदा,सोमवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....एक समय केशिनी-नाम्नी कन्या को देखकर प्रह्लाद-पुत्र विरोचन और अंगिरा-पुत्र सुधन्वा उनके साथ विवाह करने के लिए परस्पर विवाद करने लगे | कन्या ने कहा की ‘तुम दोनों में जो श्रेष्ठ होगा, मैं उसी के साथ विवाह करुँगी |’ इसपर वे दोनों ही अपने को श्रेष्ठ बतलाने लगे | अंत में वे परस्पर प्राणों की बाजी लगा कर इस विषय में न्याय करने के लिए प्रह्लाद जी के पास गए | प्रह्लाद जी ने पुत्र के अपेक्षा धर्म को श्रेष्ठ समझकर यथोचित न्याय करते हुए अपने पुत्र विरोचन से कहा की ‘सुधन्वा तुझसे श्रेष्ठ है, इसके पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ है और इस सुधन्वा की माता तेरी माता से श्रेष्ठ है, इसलिए यह सुधन्वा तेरे प्राणों का स्वामी है |’ यह न्याय सुनकर सुधन्वा मुग्ध हो गया और उसने कहा ‘हे प्रह्लाद ! पुत्र-प्रेम को त्याग कर तुम धर्म पर अटल रहे, इसलिए तुम्हारा यह पुत्र सौ वर्षो तक जीवित रहे |’ (महा० सभा० ६८|७६-७७)   


महात्मा पुरुषों का मन और इन्द्रियाँ जीती हुई होने के कारण न्यायविरुद्ध विषयों में तो उनकी कभी प्रवृति नहीं होती | वस्तुत: ऐसे महातमाओ की दृष्टीमें एक सच्चिदानंदघन वासुदेवसे भिन्न कुछ नहीं होने के कारण यह सब भी लीलामात्र ही है, तथापि लोकद्रष्टिमें भी उनके मन, वाणी, शरीर से होने वाले आचरण परम पवित्र और लोकहितकर ही होते है | कामना, आसक्ति और अभिमान से रहित होने के कारण उनके मन और इद्रियों द्वारा किया हुआ कोई भी कर्म अपवित्र या लोकहानिकारक नहीं हो सकता | इसी से वे संसार में प्रमाणस्वरुप माने जाते है |


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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

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रविवार, 23 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ? -४-

                                || श्रीहरिः ||
                   आज की शुभतिथि-पंचांग
                      ज्येष्ठ शुक्ल, वट पूर्णिमा, 

              कबीर जयंती,रविवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....वे सम्पूर्ण भूतों को अभयदानं देते हुए ही विचरते है | वे किसी के मन में उद्वेग करनेवाला कोई आचरण नहीं करते | सर्वर्त्र परमेश्वर के स्वरुप को देखते हुए स्वाभाविक ही तन, मन और धन को सम्पूर्ण भूतों के हित में लगाये रहते है | उनके द्वारा झूठ, कपट, व्यभिचार, चोरी और दुराचार तो हो ही नहीं सकते | याग, दान, तप, सेवा आदि जो उत्तम कर्म होते है, उनमे भी अहंकार का अभाव होने के कारण आसक्ति, इच्छा, अभिमान और वासना आदि का नामो-निशान भी नहीं रहता | स्वार्थ का त्याग होने के कारण उनके वचन और आचरण का लोगों पर अद्भूत प्रभाव पढता है | उनके आचरण लोगों के लिए अत्यन्त हितकर और प्रिय होने से लोग सहज ही उनका अनुकरण करते है | 


श्री गीता जी में भगवान कहते है  ‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते है , दुसरे लोग भी उसी के अनुसार बरतते है, वह जो कुछ प्रमाण कर देते है, लोग भी उसी के अनुसार बरतते है |’
उनका प्रत्येक आचरण सत्य, न्याय और ज्ञान से पूर्ण होता है, किसी समय उनका कोई आचरण बाह्यद्रष्टि से भ्रमवश लोगों को अहितकर या क्रोधयुक्त मालूम हो सकता है, किन्तु विचारपूर्वक तत्वदृष्टी से देखने पर वस्तुत: उस आचरण में भी दया और प्रेम ही भरा हुआ मिलता है और परिणाम में उससे लोगो का परम हित ही होता है | उनमे अहंता-ममता का अभाव होने के कारण उनका वर्ताव सबके साथ पक्षपातरहित, प्रेममय, और शुद्ध होता है | प्रिय और अप्रिय में उनकी समद्रष्टि होती है | वे भक्तराज प्रह्लाद की भाँती आपतिकाल में भी सत्य, धर्म और न्यायके पक्ष पर ही दृढ रहते है | कोई भी स्वार्थ या भय उन्हें सत्य से नहीं डिगा सकता |


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शनिवार, 22 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ? -३-

                                 || श्रीहरिः ||
                  आज की शुभतिथि-पंचांग
   ज्येष्ठ शुक्ल, चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....
                          महात्माओं के लक्षण
सर्वत्र सम दृष्टि होने के कारण राग-द्वेषका अत्यन्त अभाव हो जाता है, इसलिए उनको प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में हर्ष-शोक नहीं होता | सम्पूर्ण भूतों में आत्म-बुद्धि होने के कारण अपने आत्मा के सद्र्श ही उनका प्रेम हो जाता है, इससे अपने और दुसरे के सुख-दुःख में उनकी समबुद्धि हो जाती है और इसलिए वे सम्पूर्ण भूतो के हित में स्वाभाविक ही रत होते है | उनका अंत:करण अति पवित्र हो जाने के कारण उनके ह्रदय में भय, शोक, उद्वेग, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों का अत्यन्त अभाव हो जाता है | देह में अहंकार का अभाव हो जाने से मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की इच्छा तो उनमे गन्ध मात्र भी नहीं रहती | शांति, सरलता, समता, सुह्रिद्ता, शीतलता, सन्तोष, उदारता और दया के तो वे अनन्त समुद्र होते है | इसलिए उनका मन सर्वदा पप्रफुल्ल्ति, प्रेम और आनन्द में मग्न और सर्वथा शान्त रहता है |     

                      महात्माओं के आचरण
देखने में उनके बहुत से आचरण दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषों-से होते है, परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषोंकी अपेक्षा उनकी अवस्था और उनके आचरण कहीं महत्वपूर्ण होते है | सत्य स्वरुप में स्थित होने के कारण उनका प्रत्येक आचरण सदाचार समझा जाता है | उनके आचरण में असत्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | उनका व्यक्तिगत किन्चित भी स्वार्थ न रहने के कारण उनके आचरण में किसी भी दोष का प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए उनके सम्पूर्ण आचरण दिव्य समझे जाते है |



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शुक्रवार, 21 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ? - २ -

                                 || श्रीहरिः ||
                     आज की शुभतिथि-पंचांग
     ज्येष्ठ शुक्ल, त्रयोदशी, शुक्रवार, वि० स० २०७०


 गत ब्लॉग से आगे....खेद की बात है की आजकल लोग स्वार्थवश किसी साधारण-से-साधारण मनुष्य को भी महात्मा कहने लगे है | ‘महात्मा’ या ‘भगवान’ शब्द का प्रयोग वस्तुत: बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिये | वास्तव में महात्मा तो वे ही है जिनमे महात्माओ के लक्षण और आचरण हों | ऐसे महात्मा का मिलना बहुत दुर्लभ है, यदि मिल भी जाए तो उनका पहचानना तो असम्भव सा ही है, ‘महत्सगस्तु दुर्लभोअगम्योअमोघस्च’ (नारद सूत्र ३९) ‘महात्मा का संग दुर्लभ, दुर्गम और अमोघ है |’


साधारणतया उनकी यही पहचान सुनी जाती है की उनका संग अमोघ होने के कारण उनके दर्शन, भाषण और आचरणों से मनुष्य पर बड़ा भरी प्रभव पडता है | ईश्वर-स्मृति, विषयों से वैराग्य, सत्य, न्याय और सदाचार में प्रीति, चित में प्रसन्ता तथा शान्ति आदि सद्गुणों का स्वाभाविक ही प्रादुर्भाव हो जाता है | इतने पर भी बाहरी आचरणों से तो यथार्थ महात्माओ का पहचानना बहुत ही कठिन है, क्योकि पाखण्डी मनुष्य भी लोगों को ठगने के लिए महात्माओ-जैसा स्वांग रच सकता है | इसलिए परमात्मा की पूर्ण दया से ही महात्मा मिलते है और उनकी दया से ही उनको पहचाना भी जा सकता है |


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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

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गुरुवार, 20 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ? -१-

                               || श्रीहरिः ||
                    आज की शुभतिथि-पंचांग 

             ज्येष्ठ शुक्ल, एकादशी/द्वादशी, गुरूवार, 
                                वि० स० २०७०                महात्मा शब्द का अर्थ और प्रयोग 

 
‘महात्मा’ शब्द का अर्थ है ‘महान आत्मा’ यानी सबका आत्मा ही सका आत्मा है | इस सिद्धान्त से ‘महात्मा’ शब्द  वस्तुत: एक परमेश्वर के लिए  ही शोभा देता है, क्योकि सबके आत्मा होने के कारण वे ही महात्मा है | श्रीभगवदगीता में भगवान स्वयं कहते है | ‘हे अर्जुन ! मैं सब भूत प्राणियोंके ह्रदय में स्तिथ सबका आत्मा हूँ |’ परन्तु जो पुरुष भगवान को तत्व से जानता है अर्थात भगवान को प्राप्त हो जाता है वह भी महात्मा ही है, अवश्य ही ऐसे महात्माओ का मिलना बहुत ही दुर्लभ है | गीता में भगवान ने कहा है-

‘हजारों मनुष्यों में कोई ही मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगिओं में कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ ) मुझको तत्व से जानता है |

जो भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसके लिए सम्पूर्ण भूतों का आत्मा उसी का आत्मा हो जाता है | क्योकि परमात्मा सबके आत्मा है और वह भक्त परमात्मा में स्तिथ है | इसलिए सबका आत्मा ही उसका आत्मा है | इसके सिवाय ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ (गीता ५/७) यह विशेषण भी उसी के लिए आया है | वह पुरुष सम्पूर्ण भूत-प्राणियों को अपने आत्मा में और आत्मा को सम्पूर्ण भूत-प्राणियों में देखता है | उसके ज्ञान में सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंके और अपने आत्मा में कोई भेद-भाव नहीं रहता | ‘जो समस्त भूतों को अपने आत्मा में और समस्त भूतोमें अपने आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी से घ्रणा नहीं करता |’ (इश० ६)
सर्वर्त्र ही उसकी आत्म-दृष्टी हो जाती है,अथवा यों कहिये की उसकी दृष्टी में एक विज्ञानानन्ध्घन वासुदेव से भिन्न और कुछ भी नहीं रहता | ऐसे ही महात्माओ की प्रशंसामें भगवान ने कहा है ‘सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार (जाननेवाला) महात्मा अति दुर्लभ है |’

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बुधवार, 19 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

                             || श्रीहरिः ||
                आज की शुभतिथि-पंचांग
      ज्येष्ठ शुक्ल,दशमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....ब्राह्मणों की इतनी महिमा गाने वाले शास्त्र ब्राह्मणों को सावधान करते हुए जो कुछ कहते है, उसे उनका पक्षपात रहित होना सिद्ध हो जाता है | शास्त्रकारो को पक्षपाती बतलाने वाले भाई नीचे लिखे शब्दों पर ध्यान दे-
‘जो ब्राह्मण तप और विद्या से हीन होकर दान लेने की इच्छा करता है वह उस दाता सहित इस प्रकार नरक में डूबता है जैसे पत्थर की नाव पर चढ़ा हुआ नाव सहित डूब जाता है | इसलिये अविदयावान ब्राह्मण को जैसे-तैसे प्रतिग्रह से डरना चाहिये; क्योकि अनधिकारी अज्ञ ब्राह्मण थोड़े-से ही दान से कीच में फसी गौ के सामान नरक में दुःख पाता है|’ (मनु० ४|१९०-१९१) अस्तु |

ऊपर के विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है की वर्णाश्रम-धर्म की रक्षा हिन्दू जाती के जीवन के लिये
अत्याव्यसक है और वर्णाश्रम की रक्षा के लिए ब्राह्मण की | ब्राह्मण का स्वरुप तप और त्याग में है और उस तप और त्याग पूर्ण ब्रह्मनत्व की पुन: जाग्रति हो इसके लिये चारों वर्णों के धर्मप्रेमी पुरुषो को भरपूर चेष्टा करनी चाहिये | ब्राह्मण की अपने षटकर्मो पर श्रधा बड़े, ब्रह्म चिंतन, संध्योपासना  और गायत्री की सेवा में उसका मन लगे और वेदाध्ययन की और उसकी प्रवृति हो इसकी बड़ी आवस्यकता है और यह ब्राह्मण की सेवा-पूजा सम्मान-दान आदि के द्वारा ब्राह्मणोंचित कर्मो के पार्टी उसके मन में उत्साह उत्पन्न करने से ही हो सकता है |
यदि ब्राह्मणत्व जाग्रत हो गया और  उसने फिर से अपना स्थान प्राप्त कर लिया तो ब्रह्मण फिर पूर्व  की भांति जगतगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है |
और मनु महाराज का यह कथन भी शायद सत्य हो सकता है –
 ‘इस देश (भारतवर्ष) में उत्पन्न हुए ब्राह्मण से पृथ्वी पर सब मनुष्य अपना-अपना आचार सीखे |’(२|२०)

इसपर यदि कोई कहे की यह तो अतीत युग के ब्राह्मणों के स्वरुप की और उन्ही की पूजा की बात है | वर्तमान काल में ऐसे आदर्श त्यागी ब्राह्मण कहाँ है जो उनकी सेवा-पूजा की जाए? तो इसका उत्तर यह है की अवश्य ही यह सत्य है की ऐसे ब्राह्मण इस काल में बहुत ही कम मिलते है | कलियुग के प्रभाव, भिन्न धर्मी शासक, पाश्चात्य सभ्यता के कुसंग और जगत के अधार्मिक वातावरण आदि कारणों से इस समय केवल ब्राह्मण ही नहीं, सभी वर्णों में धर्मप्रेमी सच्चे आचारवान पुरुष कम मिलते है | परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता की हैं ही नहीं | बल्कि ऐसा कहना असंगत नहीं होगा की इस गये-गुजरे ज़माने में भी वेदाध्ययन करने वाले नि:स्पृही, त्यागी, सदाचारी, ईश्वर और धर्म में अत्यंत निष्ठा रखने वाले ब्राह्मण मिल सकते हैं |

चारों और अनादर और तिरस्कार पाने पर भी आज ब्राह्मण वर्ण ने ही सनातन संस्कृति और सनातान् संस्कृत भाषा को बना रखा है | भीख मांग कर भी ब्राह्मण आज संस्कृत पढ़ते है | शौचाचार की और देखा जाए तो भी यह कहना अत्युक्ति न होगा की क्षत्रिय, वैश्य और सूद्र वर्ण की अपेक्षा ब्राह्मणों में अपेक्षाकृत आज भी आचरण की पवित्रता कही अधिक है | ऐसी स्थिती में उनपर दोषारोपण न कर, उनकी निदा न कर, उनसे घृणा न कर, उनकी यथा-योग्य सच्चे मन से सेवा करनी चाहिये जिससे वे पुन: अपने स्वरुप पर स्थित होकर संसार के सामने ब्राह्मणत्व का पवित्र आदर्श उपस्थित कर सके और उचित उपदेश और आदर्श आचरण के द्वारा समस्त जगत का इह्लोकिक और पारलोकिक कल्याण करते हुए उन्हें परमात्मा की और अग्रसर कर सके | सबसे मेरी यही विनीत प्रार्थना है |

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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

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मंगलवार, 18 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

                                || श्रीहरिः ||
                    आज की शुभतिथि-पंचांग
       ज्येष्ठ शुक्ल,नवमी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
‘ब्राह्मण की पूजा करने से आयु, कीर्ति, यश और बल बढ़ता है | सभी लोग और लोकेश्र्वरगण ब्राह्मणों की पूजा करते है | धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्ग को और मोक्ष को प्राप्त करने में तथा यश ,लक्ष्मी की प्राप्ति और रोग शांति में और देवता एवं पितरो की पूजा में ब्राह्मणों को संतुस्ट करना चाहिये |’ (महा० अनु० १६९|९-१०)

‘ब्राह्मणों को दी हुई अक्षय निधि को शत्रु अथवा चोर नहीं हर सकते और न वह नष्ट होती है, इसलिए राजा को ब्राह्मणों में इस अनन्त फलदायक अक्षय निधि को स्ताथापित करना चाहिये अर्थात ब्राह्मणों को धन-धान्यादी देना चाहिये | अग्नि में घृत की आहुति देने की अपेक्षा ब्राह्मणों के मुख में होमा हुआ अर्थात उन्हें भोजन देने का फल अधिक होता है; क्योकि न वह कभी झरता है, न सूखता है और न नष्ट होता है |’ (मनु० ७| ८३-८४)

इतना ही नहीं, राजा के लिये तो मनु महाराज आज्ञा करते है
‘जिस राजा के देश में वेद पाठी  (श्रोत्रिय ब्राह्मण) भूख से दुखी होता है उस राजा का देश भी दुर्भिक्ष से पीड़ित हो शीघ्र नष्ट हो जाता है| इसलिये राजा को चाहिये की वह श्रोत्रिय ब्राह्मण का शास्त्र ज्ञान और आचरण जान कर उसके लिये धर्मानुकूल जीविका नियत कर दे और जैसे पिता अपने खास पुत्र की रक्षा करता है वैसे ही इस वेद पाठी की सब भांति रक्षा करे | राजा से रक्षित होकर (वेद पाठी) जो नित्य धर्मानुस्ठान करता है उससे राजा के राज्य, धन और आयु की वृद्धि होती है |’ (मनु० ७|१३४-१३६)

यहाँ तक कहा गया है की –
‘जिन घरो में भोजन करने के लिये आये हुए ब्राह्मणों के चरणों की धोवन से कीचड़ नहीं होती, जिनमे वेद-शास्त्रो की ध्वनि नहीं गूँजती, जहा हवन सम्बन्धी स्वाहा और श्राध  सम्बन्धी स्वधा की ध्वनि नहीं होती वे घर श्मशान के समान है|’

‘ब्राह्मण दस वर्ष और राजा सौ वर्ष का हो तो उनको पिता-पुत्र के समान जानना चाहिये,अर्थात उन दोनों में छोटी उम्र के ब्राह्मणों के प्रति राजा को पिता के सामान मान देना चाहिये |’ (मनु० २|१३५)

ब्राह्मण सद्गुण और सदाचार संपन्न होने के साथ ही विद्वान हो तब तोह कहना ही क्या है, विद्वान् न हो तो भी वह सर्वात पूजनीय है |

‘अग्नि वेद मंत्रो से प्रकट की हुई हो या दुसरे प्रकार से, वह जैसे परम देवता है वैसे ही विद्वान हो या अविद्यवान, ब्राह्मण भी परम देवता है; अर्थात वह सभी स्थितियो में पूज्य है |’ (मनु० ९|३१७)


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सोमवार, 17 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

                                 || श्रीहरिः ||
                     आज की शुभतिथि-पंचांग
        ज्येष्ठ शुक्ल,अष्टमी, सोमवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....जिस मान-सम्मान को सब लोग चाहते है, ब्राह्मण उस मान से सदा डरता है और अपमान का स्वागत करता है –
‘ब्राह्मण को चाहिये की वह सम्मान से सदा विष के समान डरता रहे और अपमान की अमृत के समान इच्छा करता रहे |’ (मनु० २ | १६२)
इतना ही नहीं, उसकी साधना में जरा-सी भूल भी क्षम्य नहीं है –
‘जो ब्राह्मण न प्रातःकाल की संध्या करता है और न सायं संध्या करता है वह ब्राह्मणों के सम्पूर्ण कर्मो से शुद्र के समान बहिष्कार कर देने योग्य है |’ (मनु० २ | १०३)
ऐसे तप, त्याग और सदाचार की मूर्ति ब्राह्मणों को स्वार्थी बतलाना अनभिज्ञता के साथ उस पर अयथार्थ दोषारोपण करने के अपरध के सिवा और क्या है ?
अतएव धर्म पर श्रधा रखने वाले क्षत्रिय,वैश्य, शूद्र प्रत्येक का यह कर्तव्य होना चाहिये के वे दान, मान, पूजन आदि से ब्राह्मणों का सत्कार करे, सेवा और सद्व्यवहार के द्वारा ब्राह्मणों को अपने ब्रह्मनत्व के गौरव की बात याद दिला कर  उन्हें ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिए उत्साहित करे | 


शास्त्रीय कर्म, षोडश संस्कार (इनमे अधिक-से-अधिक जितने हो सके), सकाम-निष्काम कर्मअनुष्ठान, देवपूजन आदि के द्वारा ब्राह्मणों की सम्मान रक्षा और उनकी आजीविका की सुइधा कर दे, स्वयं ब्राह्मणों की जीविका कदापि न करे, जहा तक हो सके संस्कृत भाषा का आदर करे और अपने बालको को अधिकारानुसार ब्राह्मणों के द्वारा संस्कृत जा जानकार बनावे, संस्कृत पाठशालाओ में वृति देकर ब्राह्मण-बालको को पढावे | धर्म ग्रंथो में श्रधा करके धर्मअनुष्ठान का अधिकारानुसार प्रचार करे और शास्त्रोक्त रीती से जिस किसी प्रकार से भी ऐसे चेष्टा करते रहे, जिसमे ब्राह्मणों को आजीविका की चिंता न हो, उनके शास्त्रज्ञ होने से उनका आदर बढे और ब्राह्मणत्व में उनकी श्रधा बड़े |क्युकी ब्राह्मणत्व की रक्षा के लिये – जो वर्णाश्रम-धर्म का प्राण है-स्वयं भगवान पृथ्वी-तल पर अवतार लिया करते है |

ब्राह्मणसेवा और ब्राह्मणों को दान देने का क्या महत्व है, उससे किस प्रकार अनायास ही अर्थ,धर्म,मोक्ष की सिद्धी होती है | इसपर निचे उद्धरित थोड़े-से शास्त्र वचनों को देखिये |
महाराज पृथु कहते है –
‘सबके ह्रदय में स्थित,ब्राह्मण-प्रिय एवं स्वयं प्रकाशमान ईश्वर हरि जिसकी सेवा करने से यथेष्ट संतोष को प्राप्त होते है उस ब्राह्मण कुल की ही भागवत धर्म में तत्पर हो कर विनीत भाव से सर प्रकार सेवा करो | ब्राह्मण कुल के साथ नित्य सेवा रूप सम्बंध होने से शीघ्र मनुष्य का चित शुद्ध हो जाता है | तब अपने-आप ही परम शांति अर्थात मोक्ष मिलता है | भला ऐसे ब्राह्मणों के मुख से बढ़ कर दूसरा कौन देवताओ का मुख हो सकता है ? ज्ञान रूप,सबके अंतर्यामी अनंत हरि की भी तृप्ति भी ब्राह्मण मुख में ही होती है |  


तत्वज्ञानी पण्डितो द्वारा पूजनीय इन्द्रादि देवो का नाम लेकर श्रधा पूर्वक ब्राह्मण मुख में हवं किये हुए हविष्य को श्री हरि जितनी प्रसन्नता के साथ ग्रहण करते है उतनी प्रसन्नता के साथ अचेतन अग्नि मुख में डाली हुई हवि को नहीं स्वीकार करते | जिसमे यह सम्पूर्ण विश्व आदर्श की भांति भासित होता है उसी निति शुद्ध सनातन वेद को ये ब्राह्मण लोग श्रधा, तपस्या, मंगल कर्म, मौन (मननसीलता या भगवदविरोधी बातो का त्याग),संयम (इन्द्रियो का दमन) एवं समाधी (चित की भगवान में स्थिति ) करते हुए यथार्थ  अर्थ के देखने के लिये नित्य प्रति धारण करते है अर्थात अध्ययन करते रहते है |’  (श्रीमदभागवत ४|२१|३९-४२)

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रविवार, 16 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

                                 || श्रीहरिः ||
                      आज की शुभतिथि-पंचांग
          ज्येष्ठ शुक्ल,सप्तमी, रविवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....उपयुक्त  वृतियो में ब्राह्मण के लिये उञ्छ और शील ये दो  वृतिया सबसे उत्तम मानी गाई है | वेद पढाना, यज्ञ करवा कर दक्षिणा ग्रहण करना, तथा बिना याचना के दान लेना भी बहुत उत्तम अमृत के तुल्य कहा गया है | एवं भिक्षावृति  भी उनके लिये धर्मसंगत है | ब्राह्मण धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मणों के लिये अधिक-से-अधिक साल भर के अन्न-संग्रह करने की आज्ञा दी गयी है | जो एक मास से अधिक का अन्न-संग्रह नहीं करता  उसको उससे श्रेस्ठ माना है, उससे श्रेस्ठ  तीन दिन के लिये अन्न-संग्रह करने वाले को, और उससे भी श्रेस्ठ केवल एक दिन का अन्न-संग्रह  करने वाले को बताया गया है |
आपतिकाल में क्षत्रिय या वैश्य की वृति से भी ब्राह्मण अपना जीविका चलावे तो वह निंदनीय नहीं है | धर्मशास्त्र का यही आदेश है | 


विडालवृति और वकवृति ये दो वृतियाँ वर्जित है, इन दो वृतियो को और श्रवृतियो को छोड़कर उपयुक्त किसी भी वृति से जीविका चलाने वाला ब्राह्मण पूजनीय है और सेवनीय है | ब्राह्मणों की जीवननिर्वाह वृति इतनी कठिन है,यही नहीं है | ब्राह्मण के जीवन का उद्देश्य और उसके जीवन की का उद्देश्य और उसके जीवन की स्थिति कितनी कठोर, तपोमयी और त्यागपूर्ण है | यह भी देखिये !

‘उन ब्राह्मणों ने इस लोक में अति सुन्दर और पुरातन मेरी वेद रूपा मूर्ति को अध्य्यानादी द्वारा धारण किया है | उन्ही में परम पवित्र सत्व गुण, शम, दम, सत्य, अनुग्रह, तप, सहनशीलता और अनुभव आदि मेरा गुण विराजमान है | वे ब्राह्मण द्वार-द्वार पर भिक्षा मांगने वाले नहीं होते, साधारण मनुष्य से कुछ माँगना तो दूर रहा, देखो में अनंत हूँ और सर्वोत्तम परमेश्वर हूँ | एवं स्वर्ग और मोक्ष का स्वामी हूँ | किन्तु मुझसे भी कुछ नहीं चाहते ( उनके आगे राज्य आदि वस्तुए केवल तुच्छातीतुच्छ पदार्थ ही नहीं, विषतुल्य है | ) वे अकिंचन (सर्त्यागी) महात्मा विप्रगण मेरी भक्ति में ही संतुस्ट रहते है |’ (श्रीमदभागवत ५ | ५ | २४-२५)
‘ब्राह्मण की देह विषय सुख के लिये कदापि नहीं है, वह तो सदा-सर्वदा तपस्या का क्लेश सहने, धर्म का पालन करने और अंत में मुक्ति के लिये ही उत्पन्न होती है |’(वृहदधर्म पुराण,उतर खंड २ | ४४)


इसी प्रकार भागवत में कहा है –
‘ब्राह्मण का यह सरीर क्षुद्र विषय भोगो के लिये नहीं है, यह तो जीवन भर कठिन तपस्या और अंत में आत्यंतिक सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति के लिये है |’ (श्रीमदभागवत ११|१७|४२)
इससे पता चलता है की ब्राह्मण का जीवन कितना महान तप से पूर्ण है | वह अपने जीवन को साधनमय रखता है |


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शनिवार, 15 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

                                || श्रीहरिः ||
                   आज की शुभतिथि-पंचांग
          ज्येष्ठ शुक्ल,षष्ठी, शनिवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....इसी प्रकार मनु महाराज ने भी कहा है –
‘स्थावर जीवो में प्राणधारी श्रेस्ठ है, प्राणधारियो में बुद्धिमान: बुद्धिमानों में मनुष्य और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेस्ठ कहे गए है | ब्राह्मणों में विद्वानों, विद्वानों में कृत बुद्धि (अर्थात जिनकी शास्त्रोक्त कर्म में बुद्धि है) कृत बुद्धियो में शास्त्रोक्त कर्म करने वाले और उनमे भी ब्रह्म्वेता ब्राह्मण श्रेस्ठ है | उत्पन्न हुआ ब्राह्मण पृथ्वी पर सबसे श्रेस्ठ है; क्योकि वह सब प्राणियो के धर्म समूह की रक्षा के लिए समर्थ मना गया है | (मनु० १ | ९६,९७,९८) 


 
ब्राह्मणों की निंदा का निषेध करते हुए भीष्म पितामह युधिस्ठिर से कहते है –
‘हे राजन ! जो अज्ञानी मनुष्य ब्राह्मणों की निंदा करते है, में सत्य कहता हूँ की वे नष्ट हो जाते, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है |’ (महा अनु० ३३ | १८)


‘ब्राह्मणों की निंदा कभी नहीं सुननी चाहिये | यदि कही ब्राह्मण-निंदा होती हो तो वहा या तो निचा सिर करके  चुप चाप बैठा रहे अथवा वहाँ से उठ कर वहाँ से चला जाए | इस पृथ्वी पर ऐसा कोई भी मनुष्य न जन्मा है और न जन्मेगा ही जो ब्राह्मणों से विरोध करके सुख से जीवन व्यतीत कर सके |’ (महा अनु० ३३ | २५-२६)
इस पर यदि कोई कहे की ब्राह्मणों की जो इतनी महिमा कही जाति है, यह उन ग्रंथो के कारण ही तो है, जो प्राय ब्राह्मणों के बनाये हुए है और जिनमे ब्राह्मणों ने जान बूझ कर अपने स्वार्थ साधन के लिए नाना प्रकार के रास्ते खोल दिए है | तो इसके उत्तर यह है की ऐसा करना वस्तुतः शास्त्र-ग्रंथो से यथार्थ परिचय न होने के कारण ही है | 


शास्त्रो और प्राचीन ग्रंथो के देखने से यह बात सिद्ध होती है, ब्राह्मण ने तो त्याग ही त्याग किया है | राज्य क्षत्रियो के लिए छोड़ दिया,धन के उत्पत्ति स्थान कृषि,गो रक्षा और वाणिज्य आदि को और धन-भण्डार को विषयो के हाथ दे दिया | शारीरिक श्रम से अर्थोपार्जन करने का कार्य शूद्रों के हिस्से में आ गया है | ब्राह्मणों ने तो अपने लिए रखा अपने लिखे केवल संतोष से भरा त्याग पूर्ण जीवन |

इसका प्रमाण शास्त्रो के वे शब्द है, जिनमे ब्राह्मण की वृत्ति का वर्णन है –
‘ब्राह्मण ऋत, अमृत, मृत,प्रमृत, या सत्यानृत से अपना जीवन बितावे परन्तु श्रवृति अर्थात सेवावृति- नौकरी न करे | उञ्छ और शील  को ऋत  को जानना चाहिये | बिना मांगे मिला हुआ अमृत है | मांगी हुई भिक्षा मृत कहलाती है और खेती को प्रमृत कहते है | वाणिज्य को सत्यानृत कहते है, उससे भी जीविका चलाई जा सकती है किन्तु सेवाको  श्रवृति   कहते है इसलिए उसका त्याग कर देना चाहिये |’ (मनु० ४ | ४-६ )


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शुक्रवार, 14 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

                                   || श्रीहरिः ||
                        आज की शुभतिथि-पंचांग 

        ज्येष्ठ शुक्ल,पंचमी,  शुक्रवार, वि० स० २०७०

 गत ब्लॉग से आगे....मनु महाराज ने कहा है -
अधियिरनस्त्र्यो वर्णाः स्वकर्मस्था दिविजातय: |
प्रब्रुयाद ब्राह्मणस्त्वेसाम् नेतराविति निश्चयः || (मनु १० | १)

“अपने-अपने कर्मो में लगे हुए (ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य-तीनो) द्विजाती वेद पढ़े परन्तु इनमे से वेद पढावे ब्राह्मण ही, क्षत्रिय वैश्य नहीं यह निश्चय है |”

इससे यह सिद्ध होता है की ब्राह्मण के बिना वेद की शिक्षा और कोई नहीं दे सकता और वेद के बिना वैदिक वर्णाश्रम-धर्म नहीं रह सकता, इसलिए ब्राह्मण की रक्षा अत्यंत आवश्यक है |


शास्त्रोमें ब्राह्मण को सबसे श्रेस्ठ बतलाया है | ब्राह्मण की बतलाई हुई विधि से ही धर्म, अर्थ, कम, मोक्ष चारों की सिद्धी मानी गयी है | ब्राह्मण का महत्व बतलाते हुए शास्त्र कहते है –

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बाहु राजन्य: क्रतः |
ऊरु तदस्य यद्वैश्य पदाभ्यां शूद्रो अजायत || (यजुर्वेद ३१ | ११)
‘श्री भगवान के मुख से ब्राह्मण की, बाहू से क्षत्रिय की, उरु से वैश्य की और चरणों से शुद्र की उत्पति हुई है |’

‘उत्तम अंग से (अर्थात भगवान के श्री मुख से) उत्पन्न होने तथा सबसे पहले उत्पन्न होने से और वेद के धारण करने से ब्राह्मण इस जगत का धर्म स्वामी होता है | ब्रह्मा ने तप करके हव्य-कव्य पहुचाने के लिए और सम्पूर्ण जगत की रक्षा के लिए अपने मुख से सबसे पहले ब्राह्मण को उत्पन्न किया |’ (मनु १ | ९३-९४)

‘जाति की श्रेष्ठता से, उत्पत्ति स्थान की श्रेष्ठता से, वेद के पढ़ने-पढ़ाने आदि नियमो को धारण करने से तथा संस्कार की विशेषता से ब्राह्मण सब वर्णों का प्रभु है |’ (मनु० १० | ३)

‘समस्त भूतो में स्थावर (वृक्ष) श्रेस्ठ है | उनसे सर्प आदि कीड़े श्रेस्ठ है | उनसे बोध्युक्त प्राणी श्रेस्ठ है | उनसे मनुष्य और मनुष्यों में प्रथमगण श्रेस्ठ है | प्रथमगण से गन्धर्व और गन्धर्वो से सिद्धगण,सिद्धगण से देवताओ के भर्त्य किन्नर आदि श्रेस्ठ है | किन्नरों और असुरो की अपेक्षा इन्द्र आदि देवता श्रेस्ठ है | इन्द्रादि देवताओ से दक्ष आदि ब्रह्मा के पुत्र श्रेस्ठ है | दक्ष आदि की अपेक्षा शंकर श्रेस्ठ है और शंकर ब्रह्मा के अंश है इसलिए शंकर से ब्रह्मा श्रेस्ठ है | ब्रह्मा मुझे अपना परम आराध्य परमेश्वर मानते है | इसलिए ब्रह्मा से में श्रेस्ठ हु और मैं दिज देव ब्राह्मण को अपना देवता या पूजनीय समजह्ता हु | इसलिए ब्राह्मण मुझसे भी श्रेस्ठ है | इस कारण ब्राह्मण सर्व पूजनीय है, हे ब्राह्मणों ! में इस जगत में दुसरे किसी की ब्राह्मणों के साथ तुलना भी नहीं करता फिर उससे बढ़ कर तो किसी को मान ही कैसे सकता हु | ब्राह्मण क्यों श्रेस्ठ है ? इसका उत्तर तो यही है की मेरे ब्राह्मण रूप मुख में जो श्रधापूर्वक अर्पण किया जाता है (ब्राह्मण भोजन कराया जाता है) उससे मुझे परम तृप्ति होती है; यहाँ तक की मेरे अग्निरूप मुख में हवन रूप करने से भी मुझे वैसी तृप्ति नहीं होती |’ (श्रीमदभागवत ५ | ५ | २१-२३)

उपयुक्त शब्दों से ब्राह्मण के स्वरुप और महत्व का अच्छा परिचय मिलता है |   

शेष अगले ब्लॉग में.......

—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 13 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

                                     || श्रीहरिः ||

                          आज की शुभतिथि-पंचांग

          ज्येष्ठ शुक्ल,चतुर्थी,  गुरूवार, वि० स० २०७०


 गत ब्लॉग से आगे.... धर्मग्रंथ और संस्कृत भाषा की रक्षा होने से ही सनातन धर्म की रक्षा होगी; परन्तु इसके लिए ब्राह्मण के ब्राह्मणत्व की रक्षा की रक्षा की सर्वप्रथम आवश्यकता है | आजकल जो ब्राह्मण जाति ब्रह्मनत्व की और से उदासीन होती जा रही है और क्रमशः वर्णअंतर के कर्मो को ग्रहण करती जा रही है,यह बड़े खेद की बात है | परन्तु केवल खेद प्रगट करने से काम नहीं चलेगा | हमे वह कारण खोजने चाहिये जिससे ऐसा हो रहा है | इसमें कई कारण है | जैसे –
(१) पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता के प्रभाव से धर्म के प्रति अनास्था |
(२) धर्म,अर्थ,काम, मोक्ष के लिए किये जाने वाले हमारे प्रत्येक कर्म का सम्बंध धर्म से है और धार्मिक कार्य में ब्राह्मण का संयोग सर्वथा आवश्यक है, इस सिद्धांत को भूल जाना |
(३) ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी पुरुषो के द्वारा जो वस्तुत: ज्ञान और भक्ति के तत्व को नहीं जानते, ज्ञान और भक्ति के नाम पर कर्मकांड की उपेक्षा होना, और इसी प्रकार निष्काम कर्म के तत्व की बात को कहने वाले लोगो द्वारा सकाम कर्म की उपेक्षा करने के भाव से प्रकारान्तर से कर्म कांड का विरोधी हो जाना |
(४) संस्कृतग्य ब्राहमण का सम्मान न होना | शास्त्रीय कर्मकांड की अनावास्यकता मान लेने से ब्राह्मण का अनावश्यक समज्हा जाना |
(५) कर्मकाण्ड के त्याग और राज्याश्रय न होने से ब्राहमण की अजीविका में कस्ट होना और उसके परिवार-पालन में बाधा पहुचना |
(६) त्याग का आदर्श भूल जाने से ब्राह्मणों की भी भोग में प्रवर्ती होना  और भोगो के लिए अधिक धन की अवश्यकता का अनुभव होना |
(७)  शास्त्रों में श्रधा का घट जाना |
इस प्रकार के अनेको कारणों से आज ब्राह्मण जाती ब्राह्मणत्व से विमुख होती जा रही है,जो वर्णाश्रम-धर्म के लिए बहुत ही चिंता की बात है |
यह स्मरण रखना चाहिये की ब्राह्मणत्व की रक्षा ब्राह्मण के द्वारा ही होगी | क्षत्रिय, वैश्य और सूद्र अपने सदाचार,सद्गुण तथा ज्ञान आदि के प्रभाव से भगवन को प्राप्त को कर सकते है; परन्तु वे ब्राह्मण नहीं बन सकते | ब्राह्मण तो वही है जो जन्म से ही ब्राह्मण है और उसी को वेदादि  पढ़ाने का अधिकार है |



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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत 

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
 

बुधवार, 12 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

 || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ शुक्ल,चतुर्थी, बुधवार, वि० स० २०७०

गत ब्लॉग से आगे....दुःख की बात है की पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के मोह में पढ़ कर आज हिन्दू-जाति के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग दुसरे के आचार-व्यवहार का अनुकरण कर बोलचाल, रहन-सहन और खान-पान में धर्म विरुद्ध आचरण करने लगे है और इसके परिणाम स्वरुप वर्णाश्रम-धर्म को न मानने वाली विधर्मी जातियो में विवाह आदि सम्बंध स्थापित करके वर्ण में संकरता उत्पन्न कर रहे है | वर्ण में संकरता आने से जब वर्ण-धर्म,जाति-धर्म नष्ट हो जायेगा तब आश्रम-धर्म तो बचेगा ही कैसे? अतएव सब लोगो को बहुत चेष्टा करके पाश्चात्य आचार-व्यवहारो के अनुकरण से स्वयं बचना और भ्रमवश अनुकरण करने वाले लोगो को बचाना चाहिए |

 

हिंदी सनातन धर्म में अत्यंत छोटे से लेकर बहुत बड़े तक सभी कार्यो का धर्म से सम्बंध है | हिन्दू का जीवन धर्ममय है | उसका जन्मना-मरना, खाना-पीना, सोना-जागना, देना-लेना, उपार्जन करना और त्याग करना- सभी कुछ धर्म सांगत होना चाहिए | धर्म से बाहर उसकी कोई क्रिया नहीं होती | इस धर्म का तत्व ही वर्णाश्रम-धर्म में भरा है | वर्णाश्रम-धर्म हमे बतलाता है की किसके लिए किस समय, कौन- सा कर्म किस प्रकार करना उचित है | और इसी कर्म-कौशल से हिन्दू अपने इहलौकिक जीवन को सुखमय बिता कर अपने सब कर्म भगवान् के अर्पण करता हुआ अंत में मनुष्य-जीवन के परम ध्येय परमात्मा को प्राप्त कर सकता है | इस धर्ममय जीवन में चार वर्ण और उन चार वर्णों में धर्म की सुव्यवस्था रखे के लिए सबसे प्रथम ब्राह्मण का अधिकार और कर्तव्य माना गया है |


 ब्राह्मण धर्म-ग्रंथो की रक्षा, प्रचार और विस्तार  करता है और उसके अनुसार तीनो वर्णों से कर्म कराने के व्यवस्था करता है | इसी से हमारे धर्मग्रंथो का  सम्बंध आज भी ब्राह्मण जाति से है और आज भी ब्राह्मण जाति धर्मग्रंथो के अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा पढने में सबसे आगे है | यह स्मरण रखना चाहिए की संस्कृत अनादि भाषा है और सर्वांगपूर्ण है | संस्कृत के सामान वस्तुतः सुसंकृत भाषा दुनिया और कोई है ही नहीं | 

आज जो संस्कृत की अवहेलना है उसका कारण यही है की संस्कृत राजभाषा तो है ही नहीं, उसे राज्य की और से यथा योग्य आश्रय भी प्राप्त नहीं है और तब तक होना बहुत ही कठिन भी है जब तक हिन्दू-सभ्यता के प्रति श्रधा रखने वाले संस्कृत के प्रेमी शासक न हो | इस लिए जब तक वैसा नहीं होता, कम-से-कम तब तक प्रत्येक धर्म-प्रेमी पुरुष का कर्तव्य होता है की वह सनातन वैदिक वर्णाश्रम-धर्म की रक्षा के हेतु भूत  ब्राह्मणत्व की और परम धर्म रूप संस्कृत ग्रंथो की एवं संस्कृत भाषा की रक्षा करे |


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मंगलवार, 11 जून 2013

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

|| श्रीहरिः ||


 आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल,तृतीया, मंगलवार, वि० स० २०७०



हिंदू जाति की आज जो दुर्दशा है,वह पराधीन है, दीन है, दुखी है और सभी प्रकार से अवनत है; इसके कारण पर विचार करते समय आजकल कुछ भाई ऐसा मत प्रकट किया करते है की वर्णाश्रम-धर्म के कारण ही हिन्दू जाति की ऐसी दुर्दशा हुई है |

वर्णाश्रम-धर्म न होता तो हमारी ऐसी स्थिति न होती | परन्तु विचार करने पर मालूम होता है की इस मत को प्रकट करने वाले भाईओ ने वर्णाश्रम-धर्म के तत्व को वस्तुत: समझा ही नहीं है | सच्ची बात तो यह है की जब तक इस देश में वर्ण आश्रम-धर्म का सुचारू रूप से पालन होता था | तब तक देश स्वाधीन था तथा यहाँ पर प्राय: सभी  प्रकार की सुख-समृधि थी | जबसे वर्णाश्रम-धर्म के पालन में अवेहलना होने लगी, तभी से हमारी दशा बिगड़ने लगी | इतने पर भी वर्णाश्रम-धर्म की द्रढ़ता ने ही हिन्दू जाती को बचाए रखा है | वर्णाश्रम  न होता और उसपर हिन्दू जाती की आस्था न होती तो शताब्दियों में होने वाले आक्रमणों से और विजेताओ के प्रभाव से हिन्दू जाती से अब तक नष्ट हो गयी होती |

पर-देशीय और पर-धर्मीय लोगो की सभ्यता,भाषा,आचरण,व्यवहार,रहन-सहन और पोशाक-पहनावा आदि के अनुकरण ने वर्णाश्रम-धर्म की शिथिलता में बड़ी सहायता दी है | पहले तो मुसलमानी शासन में हम लोग उनके आचारो की और झुके-किसी अंश में उनके आचार-व्यवहार की नक़ल की, परन्तु उस समय तक हमारी अपने शास्त्रो में, अपने पूर्वजो में, अपने धर्म में, अपने नीति में श्रधा थी, इससे उतनी हानि नहीं हुई, परन्तु वर्तमान पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति आँधी में तो हमारी आंखे सर्वथा बंद सी हो गयी | हम मनो आँखें मूँद कर- अंधे हो कर अपनी नक़ल करने लगे है | इससे से वर्णाश्रम-धर्म में आज कल बहुत शिथिलता आ गयी है | और यदि यही गति रही तो कुछ समय में वर्णाश्रम-धर्म का बहुत ही हास हो जायेगा | और हमारा ऐसा  करना अपने ही हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मरने के समान होगा |



धर्म और नीति के त्याग से एक बार भ्रमवश चाहे कुछ सुख-सा प्रतीत हो,परन्तु वह सुख की चमक उस बिजली के प्रकाश की चमक के समान है जो गिर कर सब कुछ जला देती है | धर्म और नीति का त्याग करने वाला रावण, हिरन्यकस्यपू, कंस और दुर्योधन आदि की भी एक बार कुछ उन्नती-सी दिखायी दी थी, परन्तु अंत में उनका समूल विनाश हो गया |


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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत


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