※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 26 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ?-७-

                                || श्रीहरिः ||
                  आज की शुभतिथि-पंचांग
        आषाढ़ कृष्ण,चतुर्थी, बुधवार, वि० स० २०७०

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                         महात्मा बनने के उपाय

इसका वास्तविक उपाय तो परमेश्वर की अनन्य-शरण होना ही है , क्योकि परमेश्वर की कृपा से ही यह पद मिलता है | श्रीम्ध्भ्गवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ‘हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की दया से ही तू परमशान्ति और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा |’ (१८|६२) परन्तु इसके लिए ऋषियों ने और भी उपाय बतलाये है | जैसे मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण कहे है ‘घृति, क्षमा, मन का निग्रह, अस्तेय, सौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध – ये धर्म के दस लक्षण है |’

महर्षि पतंजलि ने अंत:करणकी शुद्धिके लिए (जो की आत्मसाक्षात्कार के लिए अत्यन्त आवश्यक है ) एवं मन को निरोध करने के लिए बहुत-से उपाय बतलाये है | जैसे ‘सुखियोंके परति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा, पुन्यमाओं को देख कर प्रसन्नता और पापियों के प्रति उपेक्षा की भावना से चित स्थिर होता है |’ (१|३३)
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहचर्य, अपरिग्रह-ये पाँच यम है और सौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और इस्वरप्रणिधान-ये पाँच नियम है |’ (२|३०) (२|३२)
और भी अनेकों ऋषियों ने महात्मा बननेके यानी परमात्माके पद को प्राप्त होनेके लिए सद्भाव और सदाचार अनेक उपाय बतलाये है |


भगवान ने श्रीमध्भगवतगीता के तेरहवेअध्याय मेंन श्लोक ७ से ११ तक ‘ज्ञान’ के नाम से और सोलहवे अध्याय में श्लोक १-२-३ में ‘दैवी सम्पदा’ के नाम से एवं सत्रहवे अध्याय में श्लोक १४-१५-१६ में ‘तप’ के नाम से सदाचार और सद्गुणों का वर्णन किया है |
यह सब होने पर भी महर्षि पतंजलि, शुकदेव, भीष्म, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास यहांतक की स्वयं भगवान ने भी शरणागति को ही बहुत सहज और सुगम उपाय बताया है | अनन्य शक्ति, ईश्वर-प्रणिधान, अव्यभिचारिणी भक्ति और परम प्रेम आदि उसी के नाम है |
‘हे पार्थ ! जो पुरुष मुझमे अनन्य चित से स्तिथ हुआ  सदा ही निरन्तर मुझको स्मरण करता है उस मुझमे युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ |’ (गीता ८|१४)
‘जो एक बार भी मेरे शरण होकर ‘मैं तेरा हूँ’ ऐसा कह देता है, मैं उसे सर्व भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |’ (वा० रा० ६|१८|३३)


इसलिए पाठक सज्जनों से प्रार्थना है की ज्ञानी, महात्मा और भक्त बनने के लिए ज्ञान और आनन्द के भण्डार सत्यस्वरूप उस परमात्मा की ही अनन्य शरण ली चाहिये | फिर उपर्युक्त सदाचार और सद्भाव तो अनायास ही प्राप्त हो जाते है |....


शेष अगले ब्लॉग में.......

—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!