|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण, पंचमी, गुरूवार, वि० स० २०७०
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भगवान की शरण ग्रहण करने पर उनकी दयासे आप ही सारे विघ्नों का नाश होकर भक्त को भगवतप्राप्ति हो जाती है | योगदर्शन में कहा है ‘उसका वाचक प्रणव (ओंकार) है |’ ‘उसका जप और उसके अर्थ की भावना करनी चाहिये |’ ‘इससे अन्तरात्मा की प्राप्ति और विघ्नों का अभाव भी होता हैं |’
भगवत-शरणागति के बिना इस कलिकाल में संसार-सागर से पार होना अत्यन्त ही कठिन है |
कलिजुग केवल नाम अधारा | सुमिर सुमिर भव उतरही पारा |
कलिजुग सम जुग आन नहीं जो नर कर बिस्वास |
गाई राम गुनगन बिमल भाव तर बिनही प्रयास |||
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनामेव केवलम |
कलो नास्तःयेव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ||
दैवी हेशाम गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रप्ध्यनते मायामेता तरन्ति ते ||
‘कलियुग में हरी का नाम, हरी का नाम, केवल हरी का नाम ही (उद्धार करता) है, इसके सिवा अन्य उपाय नहीं है, नहीं है, नहीं है |’
‘क्योकि यह अलोकिक (अति अद्भुत) त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, जो पुरुष निरन्तर मुझको ही भजते है, वे इस माया को उलंघन कर जाते है यानि संसार से तर जाते है |
हरी माया कृत दोष गुण बिनु हरी भजन न जाही |
भजीअ राम तजि काम सब अस बिचारी मन माहि |
शेष अगले ब्लॉग में.......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!