※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष कृष्ण, चतुर्दशी,मंगलवार, वि० स० २०७०

 
 तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते  -२-

 

(५)      कंच्चन-कामिनी के लोलुप, अपने नाम रूपको पुजवाकर लोगो को उच्चिस्ठ (जूठन) खिलने वाले, मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा के गुलाम, प्रमादी और विषयासक्त पुरुषों का भूल कर भी संग नहीं करना चाहिये, चाहे वे साधु, ब्रह्मचारी और तपस्वी के भेष में भी क्यों न हो । माँसाहारी, मादक पदार्थों का सेवन करने वाले, पापी, दुराचारी और नास्तिक पुरुषों का तो दर्शन भी नहीं करना चाहियें ।

तीर्थ में किसी-किसी स्थान पर तो पण्डे-पुजारी और महन्त आदि यात्रियों को अनेक प्रकार से तंग किया करते है । जैसे यात्रा सफल करवाने के नाम पर दुराग्रहपूर्वक अधिक धन लेने के लिए अड़ जाना, देव मंदिर में बिना पैसे लिए दर्शन न करवाना, बिना भेट लिए स्नान न करने देना, यात्रियों को धमकाकर और पाप का भय दिखाकर जबरदस्ती रुपयें ऐठना, मंदिरों और तीर्थों पर भोग-भण्डारे और अटके आदि के नाम पर भेट लेने के लिए अनुचित दबाब डालना, अपने स्थान पर ठहराकर अधिक धन प्राप्त करने का दुराग्रह करना, सफ़ेद चील (गिद्ध) पक्षियों को ऋषियों और देवताओं का रूप देकर और उनकी  जूठन खिलाकर भोलेभाले यात्रिओ से धन ठगना और देवमूर्तियों द्वारा शर्बत पिये जाने आदि झूठी करामात को प्रसिद्द करके लोगो को ठगना इत्यादि । यात्रियों को इन सबसे सावधान रहना चाहिये ।

(६)      साधु, ब्राह्मण, तपस्वी, ब्र्ह्चारी, विद्यार्थी आदि सत्पात्रों की तथा दुखी, अनाथ, आतुर, अंगहीन, बीमार और साधक पुरुषों की अन्न, वस्त्र, औसध और धार्मिक पुस्तके आदि के द्वारा यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।

(७)      भोग और ऐश्वर्य को अनित्य समझते हुए विवेक-वैराग्यपूर्वक वश में किये हुए मन और इन्द्रियों को शरीर-निर्वाह के अतिरिक्त अपने-अपने विषयों से हटाने की चेष्टा करनी चाहिये ।

(८)      अपने अपने अधिकार के अनुसार संध्या, तर्पण, जप, ध्यान, पूजा-पाठ, स्वाध्याय, हवंन,बलिवैश्व, सेवा आदि नित्य और नैमितिक कर्म ठीक समय पर करने की चेष्टा करनी चाहिये । यदि किसी विशेष कारणवश समय का उल्लंघन हो जाय तो भी कर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।

गीता रामायण आदि शास्त्रों का अध्यन्न, भगवान्नाम जप, सूर्य भगवान को अर्घ्यदान, ईस्टदेव की पूजा, ध्यान, स्तुति, नमस्कार और प्रार्थना आदि तो सभी वर्ण और आश्रम के स्त्री-पुरुषों को अवश्य ही करने चाहिये ।

(९)      काम, क्रोध, लोभ आदि के वश में होकर किसी भी जीव को किसी प्रकार किन्चितमात्र भी दुःख नहीं पहुचाना चाहिये ।....शेष अगले ब्लॉग में..
        

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष कृष्ण, त्रयोदशी, सोमवार, वि० स० २०७०


 तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते  -१-

 

संसार में चार पदार्थ हैं  धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । तीर्थो में (पवित्र स्थानों में) यात्रा करते समय अर्थ (धन) तो व्यय होता है । अब रहे धर्म, काम और मोक्ष सो जो राजसी पुरुष होते है वे तो तीर्थों में संसारिक कामना की पूर्ती के लिए जाते है और जो सात्विक पुरुष होते है वे धर्म और मोक्ष के लिए जाते है । धर्म का पालन भी वे आत्मोउद्धार के लिए निष्काम भाव से करते है । अतेव कल्याणकामी पुरुषों को तो अन्तकरण की शुद्धि और परमात्मा प्राप्ति के लिए ही तीर्थों में जाना चाहिये ।

तीर्थ में जाकर किस प्रकार क्या-क्या करना चाहिये,ये बाते बतलाई जाती है ।

(१)      पैदल यात्रा करते समय मन के द्वारा भगवान के स्वरुप का ध्यान और वाणी के द्वारा नाम-जप करते हुए चलना चाहिये । यदि बहुत आदमी साथ हो तो सबको मिलकर भगवान का नाम-कीर्तन करते हुए चलना चाहिये । रेलगाड़ी आदि सवारीयों पर यात्रा करते समय भी भगवान को याद रखते हुए ही धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन अथवा भगवान के नाम का जप करते रहना चाहिये ।

(२)      गंगा, सिन्धु, सरस्वती, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा, सरयू, मानसरोवर, कुरक्षेत्र, पुष्कर, गंगासागर आदि तीर्थों में उनके गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य और महिमा का स्मरण करते हुए आत्मशुद्धि और कल्याण के लिए स्नान करना चाहिये ।

(३)      तीर्थों में श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीशिव, श्रीविष्णु आदि भगवदविग्रहो का श्रद्धा-प्रेमपूर्वक दर्शन करते हुए उनके गुण, प्रभाव, लीला, तत्व, रहस्य और महिमा आदि का स्मरण करके दिव्य स्त्रोतों के द्वारा आत्मउद्धार के लिए उनकी स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये ।

(४)      तीर्थों में साधु, महात्मा, योगी और भक्तों के दर्शन, सेवा, सत्संग, नमस्कार, उपदेश, आदेश और वार्तालाप के द्वारा विशेष लाभ उठाने के लिए उनकी खोज करनी चाहिये ।

भगवान ने अर्जुन के प्रति गीता में कहा है-‘उस ज्ञान को तू समझ; क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के पास जाकर, उनको भली भाति दंडवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे । शेष अगले ब्लॉग में .....     
         

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

पाप और पुण्य


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष कृष्ण, दशमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
पाप और पुण्य
 

प्रश्न  (क)  पुण्य और पाप क्या हैं ?

उत्तर (क) यदपि पाप-पुण्य का विषय बहुत गंभीर है तथा इसका दायरा बहुत विस्तृत है तथापि संक्षेप में साररूप यही कहा जा सकता है का
‘मानव-कर्तव्य ही पुण्य या सुकृत है और अकर्तव्य ही पाप या दुष्कृत है |’

 
प्रश्न  (ख) जो मनुष्य ईश्वर और किसी धर्मशास्त्र पर विश्वास नहीं करता,वह शास्त्रीय विधि-निषेध को तो पुण्य-पाप मानता नहीं, फिर उसके लिये पाप-पुण्य की व्यवस्था किस प्रकार हो सकती है ?

उत्तर (ख) पुण्य-पाप अथवा कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में शास्त्र (धर्मग्रंथ) ही प्रमाण है , इसलिए श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा की ‘तेरे लिए इस  कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जान कर तुझे शास्त्र-विधि से नियत किये हुए कर्म ही करने चाहिये |’ (गीता १६|२४)

परन्तु जिस मनुष्य का इश्वर और शास्त्र में विश्वास नहीं है, शास्त्र की व्यवस्था न मानने पर भी, उसके लिए भी मानव-कर्तव्य ही पुण्य है और अकर्तव्य ही पाप है |

अब यह प्रश्न आता है की शास्त्र को न मानने वाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय किस प्रकार करे ? इसका उत्तर यह है की उसे प्राचीन और वर्तमान महापुरुषों के किये हुए निर्णय और आचरण को प्रमाण मानकर अपने कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय करना चाहिये |      

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, भगवत्प्राप्ति के विविध उपाय, कोड ३०९, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

आप सभी पाठक सज्जनों को गीता जयंती की हार्दिक शुभकामनायें |

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल मोक्षदा एकादशी (गीता जयंती), शुक्रवार, वि०स० २०७०
** सेठजी का निवेदन **
         मेरी यह प्रार्थना है कि गीता का अनुशीलन अर्थ और भावसहित करना चाहिए यानी गीता में प्रवेश करके उसका अध्ययन करना चाहिए | गीता का भाव बड़ा गंभीर है | जैसे समुद्र की थाह नहीं, वैसे ही गीता के भावों की थाह नहीं |
          आपलोग किसी अंश में यह मानते होंगे कि यह गीता का जाननेवाला है; पर जब मैं खयाल करता हूँ, तब मुझे यही मालूम होता है कि मैं इसका शतांश भी नहीं जानता | एक जन्म में नहीं, कई जन्मों तक मैं गीता का ही अध्ययन करता रहूँ तो भी उसके भावों की समाप्ति नहीं | मेरी आयु समाप्त हो सकती है, पर गीता के भावों की समाप्ति नहीं हो सकती |
          इसलिए प्रत्येक भाईको अपना जीवन गीतामय बनाना चाहिए | मनुष्य-जन्म पाकर जिसका जीवन गीतामय है, उसी का जीवन धन्य है | जिनका सारा जीवन गीतामय होता है, उनके दर्शन, भाषण, स्पर्श और वार्तालाप से दूसरे मनुष्य पवित्र हो जाते हैं |
         गीता बहुत ही उच्चकोटि का ग्रन्थ है | गीता की संस्कृत बहुत ही सरल, सुन्दर और मधुर है | एक श्लोक को भी आप भावसहित धारण कर लें, तो आपके आत्मा का कल्याण हो सकता है | गीता में ऐसे सैकड़ों श्लोक हैं, जिनमें से एक श्लोक के अनुसार जीवन बनानेपर आत्माका उद्धार हो सकता है |
          गीताको हम गंगा से बढ़कर कहें तो अनुचित न होगा; क्योंकि गंगा में नहानेवाला मनुष्य तो स्वयं ही मुक्त होता है—यह बात शास्त्रों में लिखी है; किन्तु गीतारूपी गंगा में स्नान करनेवाला स्वयं तो मुक्त हो ही जाता है, दूसरों का भी उद्धार कर सकता है |
         गीता का अच्छी प्रकार अध्ययन करनेवाले को अपने आत्मा के कल्याण अन्य शास्त्रों की आवश्यकता नहीं पड़ती | इससे यह नहीं समझना चाहिए कि मैं अन्य शास्त्रों की अवहेलना करता हूँ | गीता एक ऐसा ग्रन्थ है कि उसे हमारे शास्त्रों में सबसे बढ़कर भी कह दें तो अत्युक्ति नहीं होगी; क्योंकि श्रीवेदव्यासजी ने स्वयं कहा है—
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रसंग्रहैः |
या  स्वयं  पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ||
(महा० भीष्म० ४३ | १)
‘गीता का गायन अच्छी प्रकार करना चाहिए; गीता का अध्ययन अच्छी प्रकार करना चाहिए, गीता का मनन अच्छी प्रकार से करना चाहिए’, यही है—‘गीता सुगीता कर्तव्या |’ फिर अन्य शास्त्रों के संग्रह की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह गीता स्वयं भगवान् कमलनाभ के मुखकमल से निकली है | अन्य जितने भी शास्त्र हैं, वे ऋषियों के मुख से निकले हैं | वेद ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए हैं; परन्तु गीता तो स्वयं भगवान् के मुखकमल से प्रकट हुई है | इसलिए हम उसको सर्वोपरि कह दें तो कोई अत्युक्ति नहीं |
          गीताको हम गायत्री से भी बढ़कर कह सकते हैं | गायत्री के जप से जपनेवालेका कल्याण होता है, किन्तु गीता का अर्थ और भाव सहित अच्छी प्रकार अध्ययन करके धारण कर लेनेपर वह दूसरों का भी कल्याण कर सकता है | इसलिए हम गीता को गायत्री से भी बढ़कर कह सकते हैं |
          यदि मनुष्य का जन्म पाकर किसी ने गीता का अभ्यास नहीं किया, गीता का अध्ययन नहीं किया, गीता का मनन नहीं किया, गीता के अनुसार अपना जीवन नहीं बनाया तो मैं समझता हूँ कि उसका जन्म व्यर्थ है | हमको ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि हमारी वाणी में गीता, हमारे हृदय में गीता, हमारे कानों में गीता, हमारे कंठ में गीता, हमारे रोम-रोम में गीता और हमारे जीवन में गीता भरी हो—वह गीतामय हो | जो ऐसा है, उसी के लिए हम कह सकते हैं कि उसका जीवन धन्य है, उसके माता-पिता धन्य हैं |
          ऐसा पुरुष संसार में गीता का प्रचार करके अपना ही नहीं, हजारों-लाखों व्यक्तियों का उद्धार कर सकता है | आज तुलसीदासजी नहीं हैं, किन्तु उन्होंने रामायण की रचना करके संसार का बड़ा भारी उपकार किया है | उससे हजारों का उद्धार हो रहा है और जबतक वह रहेगी, उद्धार होता रहेगा |
          इसी प्रकार जो मनुष्य गीता का अच्छी प्रकार अनुशीलन करके उसके अनुसार अपना जीवन बना लेता है, अपने जीवन को गीता के प्रचार में लगा देता है, उस पुरुष के द्वारा ही वस्तुतः संसार में गीता के भावों का प्रचार होता है | उसके द्वारा भविष्य में भी कितनों का उद्धार होता रहेगा, कहा नहीं जा सकता | भगवान् ने गीता के प्रचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है | भगवान् ने यहाँ तक कह दिया है कि ‘जो गीता-शास्त्र का मेरे भक्तों में प्रचार करता है, इसके अर्थ और भाव को धारण करता है, वह मेरी भक्ति के द्वारा मुझे प्राप्त होता है | उसके समान मेरा प्रिय कार्य करनेवाला न कोई हुआ, न हो सकता है और न होगा |’ यही भाव भगवान् ने गीता के अठारहवें अध्याय के ६८, ६९वें श्लोकों में दिखलाया है इस बात को खयाल में रखकर अपना जीवन गीतामय बनाना चाहिये | मैंने जिस दिन यह श्लोक पढ़ा और इसका अर्थ कुछ समझा, तभी से मेरे हृदय में यह भाव आया कि अपने जीवन को गीता में लगाना चाहिये | मैं अभीतक अपने जीवन को गीतामय बना नहीं सका, किन्तु इस बात को मैं बहुत ही उत्तम समझता हूँ | इसलिए सबसे प्रार्थना करने का मेरा अधिकार है कि आपको अपना जीवन गीतामय बनाना चाहिए; फिर अपने घरमें, अपने प्रान्त में, अपने देश में सारी त्रिलोकी में गीता का खूब जोरों से प्रचार करना चाहिए |
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

गीताके अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतंत्र है

 || श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल नवमीं, बुधवार, वि०स० २०७०
** गीताके अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतंत्र है **
गत ब्लॉग से आगे.....संसार में जितने भी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी,यहूदी, सिख आदि मत और सिद्धांत माने जाते हैं, उन सबसे आदरपूर्वक निरपेक्ष होकर पक्षपातरहित हो समभाव से विवेकपूर्वक गम्भीरता से अपनी बुद्धि के द्वारा निर्णय करते हुए विचार करना चाहिये कि परम कल्याणदायक भाव और आचरण कौन-से हैं और उनके विपरीत पतनकारक भाव और आचरण कौन-से हैं | एवं इसके लिए जो-जो बातें अपने मनमें आयें, उनपर सोच-विचार करके निर्णय की हुई बातों की हमें दो श्रेणियाँ बना लेनी चाहियें—(१) कल्याणकारक अच्छी बातें और (२) पतनकारक बुरी बातें | जो कल्याण-कारक बातें हों, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हो, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हों, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हों, उनकों बायीं ओर रखें | इस प्रकार अलग-अलग दो पंक्तियाँ बन जायँगी, जिनमें से दाहिनी ओर की पंक्ति ग्रहण करने के लिए एवं बायीं ओर की पंक्ति त्याग करने के लिए होगी | उदाहरण के लिए—
१-एक ओर सदव्यवहार है और दूसरी ओर दुर्व्यवहार है | अब यह निर्णय करना है कि इन दोनों में कौन उत्तम और कल्याणकारक है तथा कौन निकृष्ट और पतनकारक है |
          एक मनुष्य आपके साथ अपना स्वार्थ और अभिमान छोड़कर बहुत उत्तम श्रेणी का व्यवहार करता है तो इससे आपको कितनी प्रसन्नता और शांति मिलती है | आपके हृदय पर यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया | अतः इससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिए कि आप भी दूसरों के साथ ऐसा ही उत्तम व्यवहार करें | इसके विपरीत, कोई व्यक्ति आपके प्रति अत्याचार करता है, दुर्व्यवहार करता है, आपका अपमान करता है तो उससे आपके चित्त में क्रोध, भय, अशांति और क्षोभ हो जाते हैं | आपके चित्त में उसके व्यवहार का यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अनुचित और बुरा बर्ताव किया | अतः उससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिए कि आप ऐसा दुर्व्यवहार किसी के साथ न करें |
          इससे यह निर्णय हो जाता है कि सदव्यवहार ही उत्तम और कल्याणकारक है तथा दुर्व्यवहार निकृष्ट और पतनकारक है | अतः सदव्यवहार को दाहिनी पक्तिं में और दुर्व्यवहार को बायीं पंक्ति में रखें |

२-एक ओर समता है और दूसरी ओर विषमता | इन दोनों में कौन उत्तम और कौन निकृष्ट है—इसका निर्णय करें | विचार करनेपर यही निर्णय होता है कि समता ही अमृत है और विषमता (राग-द्वेष) ही विष है, जो सब अनर्थों की जड़ है | अतः समता को दाहिनी ओर की पंक्ति में और विषमता को बायीं ओर की पंक्ति में रखें |

३-एक ओर दूसरों का हित करना है और दूसरी ओर दूसरों का अहित करना | इन दोनों में से कौन उत्तम है, इसपर विचार करनेपर यही निर्णय प्राप्त होता है कि किसी को दुःख न पहुँचाकर अहंकार, ममता, स्वार्थ और आसक्ति से रहित हो तन, मन, धन आदि द्वारा हर प्रकार से उसको सुख पहुँचाना ही अपने लिए कल्याणकारक और उत्तम है | इसके विपरीत काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आदि के वश में होकर किसी भी प्रकार कहीं कभी किसी निमित्त से किसी प्राणी की आत्मा को किंचिन्मात्र भी दुःख पहुँचाना अपने लिए पतनकारक है | जब यह निर्णय हो गया कि दूसरों का अहित करना हमारे लिए पतनकारक है, तब हमें दूसरों के हित को दाहिनी ओर की पंक्ति में और दूसरों के अहित को बायीं ओर की पंक्ति में रखना चाहिए |

४- एक ओर सत्य-भाषण है और एक ओर असत्य-भाषण | इन दोनों में कौन उत्तम और कल्याणकारक है | इस विषय में अपने आत्मा से पूछनेपर यही उत्तर मिलता है कि जो बात जैसी देखी, सुनी, समझी  हो, उसको न घटाकर, न बढ़ाकर कपट छोड़कर ज्यों-का-त्यों सत्य कह देना ही उत्तम है | इसके विपरीत, काम-क्रोध, लोभ-मोह और भय के वश में होकर मिथ्याभाषण करना पाप है | जब यह निर्णय हो गया, तब सत्यभाषण को दाहिनी ओर की पंक्ति में और असत्य-भाषण को बायीं ओर की पंक्ति में रखें |

५-एक ओर ब्रह्मचर्य का पालन है और एक ओर व्यभिचार | इन दोनों के विषय में विचार करनेपर यही निर्णय मिलता है कि ब्रह्मचर्य का पालन करना अर्थात् किसी भी स्त्री या बालक के साथ कुत्सितभाव से श्रवण, दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, एकान्तवास, चिन्तन, सहवास, हँसी-मजाक आदि क्रियाओं को न करना तथा कामोद्दीपक वस्तुओं का सेवन न करना ही श्रेष्ठ और कल्याणकारक है | किन्तु काम, क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत होकर इसके विपरीत आचरण करना—व्यभिचार करना महान पतनकारक है | अतः ब्रह्मचर्यपालन को दाहिनी पंक्ति में तथा व्यभिचार को बायीं पंक्ति में रखें |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से,कोड ८१४ गीताप्रेस गोरखपुर
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मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

गीताके अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतंत्र है



     || श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, मंगलवार, वि०स० २०७०
** गीताके अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतंत्र है **
गत ब्लॉग से आगे.....गीतामें अठारह अध्याय हैं, सात सौ श्लोक हैं; उनमें बहुत-से ऐसे श्लोक हैं, जिनमें से एक श्लोक भी यदि मनुष्य अर्थ और भावसहित मनन करके काम में लाये तो उसका उद्धार हो सकता है | यहाँ गीता के एक श्लोक के विषय में कुछ विचार किया जाता है—
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||
(६ | ५)
‘अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु |’
          इस श्लोक में प्रधान चार बातें बतलायी गयी हैं—
१-मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये |
२-मनुष्य को अपने द्वारा अपना अधःपतन नहीं करना चाहिए |
३-मनुष्य आप ही अपना मित्र है |
४-मनुष्य आप ही अपना शत्रु है |
         अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य जिससे अपना परम हित—कल्याण हो, उस भाव और आचरण को तो ग्रहण करता है और जिससे अपना अधःपतन हो, उस भाव और आचरण का सर्वथा त्याग करता है, वही अपने द्वारा अपना उद्धार कर रहा है | इसके विपरीत, जो मनुष्य जिससे अपना अधःपतन हो, उस भाव और आचरण को ग्रहण करता है तथा जिससे अपना कल्याण हो, उस भाव और आचरण को ग्रहण नहीं करता, वही अपने द्वारा अपना अधःपतन पतन करता है | अतः जो मनुष्य अपने द्वारा अपने उद्धार का उपाय करता है, वह स्वयं ही अपना मित्र है; इसके विपरीत, जो मनुष्य समझ-बूझकर भी अपने कल्याण के विरुद्ध आचरण करता है, वह स्वयं ही अपना शत्रु है |
            अब यह भलीभांति विचार करना चाहिए कि अपने द्वारा अपना उद्धार करना क्या है और अपने द्वारा अपना अधःपतन करना क्या है |
          शास्त्रों में कल्याण के लिए बहुत-से उपाय बतलाये गये हैं और सज्जन पुरुष भी हमारे कल्याणकी बहुत-सी बातें कहते हैं | उन सबपर तथा उसके अतिरिक्त भी, ईश्वर ने आपको जो बुद्धि, विवेक और ज्ञान दिया है, उसका आश्रय लेकर पक्षपातरहित हो आपको आपको गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए | इस प्रकार गम्भीर विचार करनेपर आपकी बुद्धि में संशय और भ्रम से रहित जो कल्याणकर भाव और आचरण प्रतीत हो, उसको सिद्धान्त मानकर तत्परतापूर्वक कटिबद्ध हो उसका सेवन करना और उसके विपरीत भाव और आचरण का कभी सेवन न करना—यही अपने द्वारा अपना उद्धार करना है | इसी प्रकार जो भाव और आचरण हमें विचार करने पर लाभप्रद प्रतीत हो, उसका सेवन न करना और जो पतनकारक प्रतीत हो, उसका सेवन करना अपना अधःपतन करना है |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से,कोड ८१४ गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!