※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 31 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *-7-


     || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, दशमी, शनिवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.......भगवान् श्रीकृष्ण जो कुछ भी करते थे, सबके अन्दर समता, निःस्वार्थता, अनासक्तता आदि भाव पूर्ण रहते थे, इसीसे वे कर्मों के द्वारा कभी लिपायमान नहीं होते थे | गीता में उन्होंने कहा भी है—

चातुर्वर्ण्यं   मया    सृष्टं   गुणकर्मविभागशः |

तस्य कर्तारमपि मां   विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ||

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा |

इति मां  योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ||

(४ | १३-१४)

‘हे अर्जुन ! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं, उनके कर्ता को भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान | क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिए मुझको कर्म लिपायमान नहीं करते | इस प्रकार जो मुझको तत्त्व से जानता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता |’ तथा—

न च मां तानि कर्माणि निबन्धन्ति धनंजय |

उदासीनवदासीनमसक्तं      तेषु      कर्मसु ||

(९ | ९)

‘हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बांधते |’

          भगवान् की तो बात ही क्या है, तत्त्व को जाननेवाला पुरुष भी कर्मों में लिपायमान नहीं होता | अब यह बात समझने की है कि उपर्युक्त श्लोकों के तत्त्व को जानना क्या है ? वह यही है कि भगवान् श्रीकृष्ण को कर्मों में आसक्ति, विषमता और फल की इच्छा नहीं रहती थी | जो मनुष्य यह समझकर कि कर्मों में आसक्ति, फल की इच्छा एवं विषमता ही बन्धन के हेतु हैं, इन दोषों को त्यागकर अहंकाररहित होकर कर्म करता है, वही कर्मों के तत्त्व को जानकर कर्म करता है | इस प्रकार कर्म के तत्त्व को जानकर कर्म करनेवाला कर्म के द्वारा नहीं बँधता | ऐसा समझकर जो स्वयं इन दोषों को त्यागकर कर्म करता है वही इस तत्त्व को समझता है | जैसे संखिया, पारा आदि के दोषों को मारकर उनका सेवन करनेवाले को हानि की जगह परम लाभ पहुँचता है, इसी प्रकार विषमता, अभिमान, फलकी इच्छा और आसक्ति को त्यागकर कर्मों का सेवन करनेवाला मनुष्य उनसे न बंधकर मुक्ति को प्राप्त होता है |

          दूध में विष मिला हुआ है, यह जानकर कोई भी मनुष्य उस दूधका पान नहीं करता है, यदि करता है तो उसे अत्यंत मूढ़ समझना चाहिए | इसी प्रकार कर्मों में आसक्ति, कर्तृत्व-अभिमान, फल की इच्छा और विषमता आदि दोष विष से भी अधिक विष होकर मनुष्य को बार-बार मृत्यु के चक्कर में डालनेवाले हैं | जो पुरुष इस प्रकार समझता है वह उपर्युक्त दोषों से मुक्त होकर कभी कर्म नहीं करता |........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *-6-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, दशमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.......भगवान् के लिए कोई कर्तव्य न होनेपर भी वे केवल जीवों को सन्मार्ग में लगाने के लिए ही कर्म किया करते हैं | गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है—

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |

नानवाप्तमावाप्तव्यं   वर्त  एव    कर्मणि ||

(३ | २२)

‘हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोको में कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |’

       भगवान् को समता भी बड़ी प्रिय थी | इसलिए गीता में भी उन्होंने समता का वर्णन किया है—

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||

(६ | ९)

‘सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बन्धुगणोंमें तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी जो समान भाववाला है, वह अति श्रेष्ठ है |’

         गीता में केवल कहा ही नहीं, अपितु काम पड़ने पर भगवान् ने अपने मित्र और वैरियों के साथ बर्ताव भी समता का ही किया | महाभारत-युद्ध के प्रारंभ में दुर्योधन और अर्जुन युद्ध के लिए मदद माँगने द्वारिका गये और दोनों ही ने भगवान् से युद्ध में सहायता की प्रार्थना की | भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि एक और मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना है और दूसरी ओर मैं अकेला हूँ, पर मैं युद्ध में हथियार नहीं लूँगा | इससे यह बात सिद्ध हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन और दुर्योधन दोनों के साथ समान व्यवहार किया | यहाँ यह विचारणीय विषय है कि भगवान् श्रीकृष्ण को अर्जुन कितना अधिक प्रिय था, वे कहने को ही दो शरीर थे | महाभारत मौसलपर्व में वसुदेवजी अर्जुन से कहने लगे—

योऽहं तमर्जुनं विद्धि योऽर्जुन: सोऽहमेव तु ||

यद्ब्रूयात्तत्तथा  कार्यमिति  बुध्यस्व भारत |

(६ | २१-२२)

‘हे अर्जुन ! तू समझ, श्रीकृष्ण ने मुझे कहा—‘जो मैं हूँ सो अर्जुन है और जो अर्जुन है सो मैं हूँ, वह जैसा कहे, आप वैसा ही कीजियेगा |’

        तथा श्रीमद्भगवतगीतामें भी भगवान् ने कहा है—

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् |

(४ | ३)

         इतना होते हुए भी वे अपने प्रिय सखा अर्जुन के विपक्ष में लड़नेवाले उसके शत्रु दुर्योधन को भी समानभाव से सहायता करने को तैयार हो गये | जो अपने मित्र का शत्रु होता है वह अपना शत्रु ही समझा जाता है | महाभारत उद्योगपर्व में भगवान् श्रीकृष्ण जब संधि कराने गये तब उन्होंने स्वयं यह कहा भी था—

यस्तान्द्वेष्टि स मां द्वेष्टि  यस्ताननु  स मामनु |

ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पाण्डवैर्धर्मचारिभि: ||

(९१ | २८)

‘जो पाण्डवोंका वैरी है, वह मेरा वैरी है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे अनुकूल है | मैं धर्मात्मा पाण्डवों से अलग नहीं हूँ |’ ऐसा होनेपर भी भगवान् ने दुर्योधन की सैन्यबल से सहायता की | संसार में ऐसा कौन पुरुष होगा जो अपने प्रेमी मित्र के शत्रु को उसी से युद्ध करने के कार्य में सहायता दे | परन्तु भगवान् की समता का कार्य विलक्षण था | इस मदद को पाकर दुर्योधन भी अपने को कृतकृत्य मानने लगा | और उसने ऐसा समझा कि मानो मैंने श्रीकृष्ण को ठग लिया—

कृष्णं चापहृतं ज्ञात्वा सम्प्राप परमां मुदम् |

दुर्योधनस्तु तत्सैन्यं सर्वमादाय पार्थिव: ||

(उद्योगपर्व ७ | २४)

        भगवान् श्रीकृष्ण के प्रभाव को दुर्योधन नहीं जानता था, इसीलिए उसने इसमें उनकी उदारता और समता तथा महत्ता का तत्त्व न जानकर इसे मूर्खता समझा | जो लोग महान पुरुषों के प्रभाव को नहीं जानते, उनको उन महापुरुषों की क्रियाओं के अन्दर दया, समता एवं उदारता आदि गुण दृष्टिगोचर नहीं होते | दुर्योधन के उदाहरण से यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणित होती है |........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *-5-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, नवमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.......तत्त्व को न जानने के कारण ही लोग भगवान् का अपमान भी किया करते हैं और भगवान् के शक्ति-सामर्थ्य की सीमा बांधते हुए कह देते हैं कि विज्ञानानंदघन निराकार परमात्मा साकाररूप से प्रकट हो ही नहीं सकते | वे साक्षात् परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को परमात्मा न मानकर एक मनुष्यविशेष मानते है; भगवान् के सम्बन्ध में इस प्रकार की धारणा करनी चक्रवर्ती विश्व-सम्राट को एक साधारण ताल्लुकेदार मानकर उसका अपमान करने की भांति ईश्वर अवज्ञा या उनका अपमान करना है | भगवान् ने गीता में कहा भी है—

अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम् |

परं    भावमजानन्तो   मम्   भूतमहेश्वरम् ||

(९ | ११)

‘सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वररूप मेरे परमभाव को न जाननेवाले मूढ़लोग, मनुष्य का शरीर धारण करनेवाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्यरूप में विचरते हुए मुझको साधारण मनुष्य मानते हैं |’

        इससे यह बात सिद्ध हो गयी कि निराकार सर्वव्यापी भगवान् जीवों के ऊपर दया करके धर्म की संस्थापना के लिए दिव्य साकाररूप से समय-समय पर अवतरित होते हैं | इस प्रकार शुद्ध सच्चिदानंद निराकार परमात्मा के दिव्य गुणों के सहित प्रकट होने के तत्त्व को जो जानता है वही पुरुष उस परमात्मा की दया से परमगति को प्राप्त होता है |

        जिस प्रकार भगवान् के जन्मकी अलौकिकता है उसी प्रकार भगवान् के कर्मो की भी अलौकिकता है | इसलिए भगवान् के कर्मों की दिव्यता जानने से पुरुष परमपद को प्राप्त हो जाता है | भगवान् के कर्मों में अहैतुकी दया, समता, स्वतंत्रता, उदारता, दक्षता और प्रेम आदि गुण भरे रहने के कारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, सिद्ध योगियों की अपेक्षा भी उनके कर्मों में अत्यंत विलक्षणता होती है | वे सर्वशक्तिमान, सर्वसामर्थ्यवान, असम्भव को भी सम्भव कर देनेवाले होनेपर भी न्यायविरुद्ध कोई कार्य नहीं करते, उन विज्ञानानंदघन भगवान् श्रीकृष्ण ने सर्व भूतप्राणियों पर परम दया करके धर्म की स्थापना और जीवों का कल्याण किया | उनकी प्रत्येक क्रिया में प्रेम एवं दक्षता, निष्कामता और दया परिपूर्ण है | जब भगवान् वृन्दावन में थे, तब उनकी बाललीला की प्रत्येक प्रेममयी क्रिया को देखकर गोप और गोपियाँ मुग्ध हो जाया करती थीं, भगवान् श्रीकृष्ण के तत्त्व को जाननेवाले जितने भी स्त्री-पुरुष थे, उनमें कोई एक भी ऐसा नहीं था जो उनकी प्रेममयी लीलाको देखकर मुग्ध न हो गया हो | उनकी मुरलीकी तान को सुनकर मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक मुग्ध हो जाते थे | उनके शरीर और वाणी की चेष्टाएँ ऐसी अद्भुत थीं, जिनका किसी मनुष्य में होना असम्भव है | प्रौढ़ावस्था में भी उनके कर्मों की विलक्षणता को देखकर उनके तत्त्व को जाननेवाले प्रेमी भक्त पद-पदपर मुग्ध हुआ करते थे | अर्जुन तो उनके कर्म और आचरणों पर तथा हाव-भाव-चेष्टा को देख-देखकर इतना मुग्ध हो गया था कि वह सदा उनके इशारेपर कठपुतली की भांति कर्म करने के लिए तैयार रहता था |........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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बुधवार, 28 अगस्त 2013

*जय श्रीकृष्णा* श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की आप सभीको हार्दिक शुभकामनाये


     || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
* जन्म कर्म च मे दिव्यं *
गत ब्लॉग से आगे.......मनुष्यों के शरीर के विनाश की तरह भगवान् के दिव्य वपु का विनाश भी नहीं समझना चाहिए | जिस शरीर का विनाश होता है वह तो यहीं पड़ा रहता है, किन्तु देवकी के सामने चतुर्भुजरूप के और अर्जुन के सामने विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के अदृश्य हो जाने पर उन वपुओं की उपलब्धि नहीं होती | इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्णचंद्रजी जिस देह से एक सौ पचीस वर्ष तक लोकहित के लिए विविध लीलाएँ कीं वह देह भी अन्त में नहीं मिला | वे उसी लीलामय वपु से ही परमधाम को पधार गये | इसके बाद भी जब-जब भक्तों ने इच्छा की, तब-तब उसी श्यामसुन्दर-शरीर से पुनः प्रकट होकर उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया | यदि उनके देह का विनाश हो गया होता तो परमधाम पधारने के अनन्तर इस प्रकार पुनः प्रकट होना कैसे बनता ?

          इससे यह बात सिद्ध हुई कि भगवान् का अन्तर्धान होना ही अपने परमधाम में सिधारना है, न कि मनुष्य देहों की भांति विनाश होना | श्रीमद्भागवत में भी लिखा है—

लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम् |

योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ||

(११ | ३१ | ६)

‘भगवान् योगधारणाजनित अग्नि के द्वारा धारणाध्यान में मंगलकारक अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्ति को भस्म किये बिना ही इस अपने शरीर से परमधाम को पधार गये |’

         भगवान् का प्राकट्य भूत-प्राणियों की उत्पत्ति की अपेक्षा ही नहीं, किन्तु योगियों के प्रकट होने की अपेक्षा भी अत्यंत विलक्षण है | वह जन्म दिव्य है, अलौकिक है, अद्भुत है | भगवान् मूल प्रकृति को अपने अधीन किये हुए ही अपनी योगमाया से प्रकट होते हैं | जगत के छोटे-बड़े सभी चराचर जीव प्रकृति के और अपने गुण , कर्म, स्वाभाव के वश में हुए प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुःखादि भोगों को भोगते हैं | यद्यपि योगीजन साधारण मनुष्यों की भांति ईश्वर की माया के और अपने स्वभाव के पराधीन तो नहीं हैं तथापि उनका जन्म मूल प्रकृतिको वश में करके ईश्वर की भांति लीलामात्र नहीं होता | परन्तु परमात्मा किसी के वश में होकर प्रकट नहीं होते | वे अपनी इच्छा से केवल कारुण्यतावश ही अवतरित होते हैं, इसीलिए भगवान् ने गीता में कहा है—

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ||

(४ | ६)

ईश्वरका प्रकट होना उनकी लीला है और जीवों का जन्म लेना दुःखमय है; ईश्वर प्रकट होने में सर्वथा स्वतन्त्र हैं और जीव जन्म लेनेमें सर्वथा परतंत्र हैं | ईश्वर के जन्म में हेतु हैं जीवों पर उनकी अहैतुकी दया और जीवों के जन्म में हेतु हैं उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म | जीवों के शरीर अनित्य पापमय, रोगग्रस्त, लौकिक और पांचभौतिक होते हैं एवं ईश्वर का शरीर परमदिव्य अप्राकृत होता है | वह पांचभौतिक नहीं होता | श्रीमद्भागवत में ब्रह्माजी कहते हैं—

अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि |

नेशे महि त्ववसितुं मनसाऽऽन्तरेण साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूते: ||

(१० | १४ | २)

‘हे देव ! आपके इस दिव्य प्रकट देह की महिमा को भी कोई भी नहीं जान सकता, जिसकी रचना पञ्चभूतों से न होकर मुझपर अनुग्रह करने के लिए अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार ही हुई है | फिर आपके उस साक्षात् आत्मसुखानुभव अर्थात् विज्ञानानंदघन स्वरुप को तो हमलोग समाधि के द्वारा भी नहीं जान सकते |’

        इससे भी यह बात समझ में आती है कि भगवान् का शरीर लौकिक पञ्च-भूतों से बना हुआ नहीं था | वह तो उनका ख़ास संकल्प है, दिव्य प्रकृतियों से बना है, पाप-पुण्य से रहित होने के कारण अनामय अर्थात् रोग से रहित एवं विशुद्ध है | विज्ञानानन्दघन परमात्मा के सगुणरूप में प्रकट होने के कारण ही उस रूप को आनंदमय कहा है | मानो सम्पूर्ण अनन्त आनंद ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है या यों समझिये कि साक्षात् प्रेम ही दिव्य मूर्ति धारणकर प्रकट हो गया है | इसी से जो उस आनंद और प्रेमार्णव श्यामसुन्दर दिव्य शरीर का तत्त्व जान लेता है वह प्रेम में मुग्ध हो जाता है; आनंदमय बन जाता है | प्रेम और आनंद वास्तव में एक ही चीज है, क्योंकि प्रेम से ही आनंद होता है | प्रकृति के सम्बन्ध बिना मनुष्य की चर्म-दृष्टि से वे दृष्टिगोचर नहीं हो सकते | इसीलिए परमेश्वर अपनी प्रकृति के शुद्ध सत्त्व को साथ लिए हुए प्रकट होते हैं अर्थात् जिन दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि का योगी लोगों को अनुभव होता है उन्हीं दिव्य धातुओं से सम्बन्ध किये हुए भगवान् प्रकट होते हैं; भक्तों पर अनुग्रह कर वे विज्ञानानंदघन परमात्मा जब अपने भक्तों को दर्शन देकर उनसे वार्तालाप करते हैं, तब अपनी लीला से उपर्युक्त दिव्य तन्मात्राओं को स्वाधीन करके ही वे प्रकट हुआ करते हैं, क्योंकि नेत्र रूप को देख सकता है, अतएव भगवान् को रूपवाला बनना पड़ता है; त्वचा स्पर्श को विषय करती है, अतएव भगवान् को स्पर्श वाला बनना पड़ता है; नासिका गन्ध को विषय करती है, अतएव भगवान् को दिव्य गन्धमय वपु धारण करना पड़ता है | इसी प्रकार मन और बुद्धि माया का कार्य होने से माया से सम्मिलित वस्तु को ही चिंतन करने और समझने में समर्थ हैं | इसलिए निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानंदघन परमात्मा प्रकृति के गुणोंसहित अपने भक्तों को विशेष ज्ञान कराने के लिए साकार होकर प्रकट होते हैं, प्रकृति के सहित उस शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा के प्रकट होने का तत्त्व सबकी समझ में नहीं आता | इसीलिए भगवान् ने गीता में कहा—

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः |

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ||

(७ | २५)

‘मैं अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसीलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है अर्थात् मुझे जन्मने-मरनेवाला मानता है |’.........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!