※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 28 अगस्त 2013

*जय श्रीकृष्णा* श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की आप सभीको हार्दिक शुभकामनाये


     || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
* जन्म कर्म च मे दिव्यं *
गत ब्लॉग से आगे.......मनुष्यों के शरीर के विनाश की तरह भगवान् के दिव्य वपु का विनाश भी नहीं समझना चाहिए | जिस शरीर का विनाश होता है वह तो यहीं पड़ा रहता है, किन्तु देवकी के सामने चतुर्भुजरूप के और अर्जुन के सामने विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के अदृश्य हो जाने पर उन वपुओं की उपलब्धि नहीं होती | इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्णचंद्रजी जिस देह से एक सौ पचीस वर्ष तक लोकहित के लिए विविध लीलाएँ कीं वह देह भी अन्त में नहीं मिला | वे उसी लीलामय वपु से ही परमधाम को पधार गये | इसके बाद भी जब-जब भक्तों ने इच्छा की, तब-तब उसी श्यामसुन्दर-शरीर से पुनः प्रकट होकर उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया | यदि उनके देह का विनाश हो गया होता तो परमधाम पधारने के अनन्तर इस प्रकार पुनः प्रकट होना कैसे बनता ?

          इससे यह बात सिद्ध हुई कि भगवान् का अन्तर्धान होना ही अपने परमधाम में सिधारना है, न कि मनुष्य देहों की भांति विनाश होना | श्रीमद्भागवत में भी लिखा है—

लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम् |

योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ||

(११ | ३१ | ६)

‘भगवान् योगधारणाजनित अग्नि के द्वारा धारणाध्यान में मंगलकारक अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्ति को भस्म किये बिना ही इस अपने शरीर से परमधाम को पधार गये |’

         भगवान् का प्राकट्य भूत-प्राणियों की उत्पत्ति की अपेक्षा ही नहीं, किन्तु योगियों के प्रकट होने की अपेक्षा भी अत्यंत विलक्षण है | वह जन्म दिव्य है, अलौकिक है, अद्भुत है | भगवान् मूल प्रकृति को अपने अधीन किये हुए ही अपनी योगमाया से प्रकट होते हैं | जगत के छोटे-बड़े सभी चराचर जीव प्रकृति के और अपने गुण , कर्म, स्वाभाव के वश में हुए प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुःखादि भोगों को भोगते हैं | यद्यपि योगीजन साधारण मनुष्यों की भांति ईश्वर की माया के और अपने स्वभाव के पराधीन तो नहीं हैं तथापि उनका जन्म मूल प्रकृतिको वश में करके ईश्वर की भांति लीलामात्र नहीं होता | परन्तु परमात्मा किसी के वश में होकर प्रकट नहीं होते | वे अपनी इच्छा से केवल कारुण्यतावश ही अवतरित होते हैं, इसीलिए भगवान् ने गीता में कहा है—

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ||

(४ | ६)

ईश्वरका प्रकट होना उनकी लीला है और जीवों का जन्म लेना दुःखमय है; ईश्वर प्रकट होने में सर्वथा स्वतन्त्र हैं और जीव जन्म लेनेमें सर्वथा परतंत्र हैं | ईश्वर के जन्म में हेतु हैं जीवों पर उनकी अहैतुकी दया और जीवों के जन्म में हेतु हैं उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म | जीवों के शरीर अनित्य पापमय, रोगग्रस्त, लौकिक और पांचभौतिक होते हैं एवं ईश्वर का शरीर परमदिव्य अप्राकृत होता है | वह पांचभौतिक नहीं होता | श्रीमद्भागवत में ब्रह्माजी कहते हैं—

अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि |

नेशे महि त्ववसितुं मनसाऽऽन्तरेण साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूते: ||

(१० | १४ | २)

‘हे देव ! आपके इस दिव्य प्रकट देह की महिमा को भी कोई भी नहीं जान सकता, जिसकी रचना पञ्चभूतों से न होकर मुझपर अनुग्रह करने के लिए अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार ही हुई है | फिर आपके उस साक्षात् आत्मसुखानुभव अर्थात् विज्ञानानंदघन स्वरुप को तो हमलोग समाधि के द्वारा भी नहीं जान सकते |’

        इससे भी यह बात समझ में आती है कि भगवान् का शरीर लौकिक पञ्च-भूतों से बना हुआ नहीं था | वह तो उनका ख़ास संकल्प है, दिव्य प्रकृतियों से बना है, पाप-पुण्य से रहित होने के कारण अनामय अर्थात् रोग से रहित एवं विशुद्ध है | विज्ञानानन्दघन परमात्मा के सगुणरूप में प्रकट होने के कारण ही उस रूप को आनंदमय कहा है | मानो सम्पूर्ण अनन्त आनंद ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है या यों समझिये कि साक्षात् प्रेम ही दिव्य मूर्ति धारणकर प्रकट हो गया है | इसी से जो उस आनंद और प्रेमार्णव श्यामसुन्दर दिव्य शरीर का तत्त्व जान लेता है वह प्रेम में मुग्ध हो जाता है; आनंदमय बन जाता है | प्रेम और आनंद वास्तव में एक ही चीज है, क्योंकि प्रेम से ही आनंद होता है | प्रकृति के सम्बन्ध बिना मनुष्य की चर्म-दृष्टि से वे दृष्टिगोचर नहीं हो सकते | इसीलिए परमेश्वर अपनी प्रकृति के शुद्ध सत्त्व को साथ लिए हुए प्रकट होते हैं अर्थात् जिन दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि का योगी लोगों को अनुभव होता है उन्हीं दिव्य धातुओं से सम्बन्ध किये हुए भगवान् प्रकट होते हैं; भक्तों पर अनुग्रह कर वे विज्ञानानंदघन परमात्मा जब अपने भक्तों को दर्शन देकर उनसे वार्तालाप करते हैं, तब अपनी लीला से उपर्युक्त दिव्य तन्मात्राओं को स्वाधीन करके ही वे प्रकट हुआ करते हैं, क्योंकि नेत्र रूप को देख सकता है, अतएव भगवान् को रूपवाला बनना पड़ता है; त्वचा स्पर्श को विषय करती है, अतएव भगवान् को स्पर्श वाला बनना पड़ता है; नासिका गन्ध को विषय करती है, अतएव भगवान् को दिव्य गन्धमय वपु धारण करना पड़ता है | इसी प्रकार मन और बुद्धि माया का कार्य होने से माया से सम्मिलित वस्तु को ही चिंतन करने और समझने में समर्थ हैं | इसलिए निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानंदघन परमात्मा प्रकृति के गुणोंसहित अपने भक्तों को विशेष ज्ञान कराने के लिए साकार होकर प्रकट होते हैं, प्रकृति के सहित उस शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा के प्रकट होने का तत्त्व सबकी समझ में नहीं आता | इसीलिए भगवान् ने गीता में कहा—

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः |

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ||

(७ | २५)

‘मैं अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसीलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है अर्थात् मुझे जन्मने-मरनेवाला मानता है |’.........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!