※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *-5-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, नवमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.......तत्त्व को न जानने के कारण ही लोग भगवान् का अपमान भी किया करते हैं और भगवान् के शक्ति-सामर्थ्य की सीमा बांधते हुए कह देते हैं कि विज्ञानानंदघन निराकार परमात्मा साकाररूप से प्रकट हो ही नहीं सकते | वे साक्षात् परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को परमात्मा न मानकर एक मनुष्यविशेष मानते है; भगवान् के सम्बन्ध में इस प्रकार की धारणा करनी चक्रवर्ती विश्व-सम्राट को एक साधारण ताल्लुकेदार मानकर उसका अपमान करने की भांति ईश्वर अवज्ञा या उनका अपमान करना है | भगवान् ने गीता में कहा भी है—

अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम् |

परं    भावमजानन्तो   मम्   भूतमहेश्वरम् ||

(९ | ११)

‘सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वररूप मेरे परमभाव को न जाननेवाले मूढ़लोग, मनुष्य का शरीर धारण करनेवाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्यरूप में विचरते हुए मुझको साधारण मनुष्य मानते हैं |’

        इससे यह बात सिद्ध हो गयी कि निराकार सर्वव्यापी भगवान् जीवों के ऊपर दया करके धर्म की संस्थापना के लिए दिव्य साकाररूप से समय-समय पर अवतरित होते हैं | इस प्रकार शुद्ध सच्चिदानंद निराकार परमात्मा के दिव्य गुणों के सहित प्रकट होने के तत्त्व को जो जानता है वही पुरुष उस परमात्मा की दया से परमगति को प्राप्त होता है |

        जिस प्रकार भगवान् के जन्मकी अलौकिकता है उसी प्रकार भगवान् के कर्मो की भी अलौकिकता है | इसलिए भगवान् के कर्मों की दिव्यता जानने से पुरुष परमपद को प्राप्त हो जाता है | भगवान् के कर्मों में अहैतुकी दया, समता, स्वतंत्रता, उदारता, दक्षता और प्रेम आदि गुण भरे रहने के कारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, सिद्ध योगियों की अपेक्षा भी उनके कर्मों में अत्यंत विलक्षणता होती है | वे सर्वशक्तिमान, सर्वसामर्थ्यवान, असम्भव को भी सम्भव कर देनेवाले होनेपर भी न्यायविरुद्ध कोई कार्य नहीं करते, उन विज्ञानानंदघन भगवान् श्रीकृष्ण ने सर्व भूतप्राणियों पर परम दया करके धर्म की स्थापना और जीवों का कल्याण किया | उनकी प्रत्येक क्रिया में प्रेम एवं दक्षता, निष्कामता और दया परिपूर्ण है | जब भगवान् वृन्दावन में थे, तब उनकी बाललीला की प्रत्येक प्रेममयी क्रिया को देखकर गोप और गोपियाँ मुग्ध हो जाया करती थीं, भगवान् श्रीकृष्ण के तत्त्व को जाननेवाले जितने भी स्त्री-पुरुष थे, उनमें कोई एक भी ऐसा नहीं था जो उनकी प्रेममयी लीलाको देखकर मुग्ध न हो गया हो | उनकी मुरलीकी तान को सुनकर मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक मुग्ध हो जाते थे | उनके शरीर और वाणी की चेष्टाएँ ऐसी अद्भुत थीं, जिनका किसी मनुष्य में होना असम्भव है | प्रौढ़ावस्था में भी उनके कर्मों की विलक्षणता को देखकर उनके तत्त्व को जाननेवाले प्रेमी भक्त पद-पदपर मुग्ध हुआ करते थे | अर्जुन तो उनके कर्म और आचरणों पर तथा हाव-भाव-चेष्टा को देख-देखकर इतना मुग्ध हो गया था कि वह सदा उनके इशारेपर कठपुतली की भांति कर्म करने के लिए तैयार रहता था |........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!