|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, दशमी,
गुरूवार, वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे.......भगवान् के लिए कोई कर्तव्य न
होनेपर भी वे केवल जीवों को सन्मार्ग में लगाने के लिए ही कर्म किया करते हैं |
गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है—
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानवाप्तमावाप्तव्यं
वर्त एव च
कर्मणि ||
(३
| २२)
‘हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोको में कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है
तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही
बरतता हूँ |’
भगवान् को समता भी बड़ी प्रिय थी | इसलिए
गीता में भी उन्होंने समता का वर्णन किया है—
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||
(६
| ९)
‘सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बन्धुगणोंमें तथा
धर्मात्माओं में और पापियों में भी जो समान भाववाला है, वह अति श्रेष्ठ है |’
गीता
में केवल कहा ही नहीं, अपितु काम पड़ने पर भगवान् ने अपने मित्र और वैरियों के साथ
बर्ताव भी समता का ही किया | महाभारत-युद्ध के प्रारंभ में दुर्योधन और अर्जुन
युद्ध के लिए मदद माँगने द्वारिका गये और दोनों ही ने भगवान् से युद्ध में सहायता
की प्रार्थना की | भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि एक और मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी
सेना है और दूसरी ओर मैं अकेला हूँ, पर मैं युद्ध में हथियार नहीं लूँगा | इससे यह
बात सिद्ध हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन और दुर्योधन दोनों के साथ समान
व्यवहार किया | यहाँ यह विचारणीय विषय है कि भगवान् श्रीकृष्ण को अर्जुन कितना
अधिक प्रिय था, वे कहने को ही दो शरीर थे | महाभारत मौसलपर्व में वसुदेवजी अर्जुन
से कहने लगे—
योऽहं तमर्जुनं विद्धि योऽर्जुन: सोऽहमेव तु ||
यद्ब्रूयात्तत्तथा कार्यमिति बुध्यस्व भारत |
(६
| २१-२२)
‘हे अर्जुन ! तू समझ, श्रीकृष्ण ने मुझे कहा—‘जो मैं हूँ सो अर्जुन है
और जो अर्जुन है सो मैं हूँ, वह जैसा कहे, आप वैसा ही कीजियेगा |’
तथा श्रीमद्भगवतगीतामें भी भगवान् ने कहा
है—
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् |
(४
| ३)
इतना होते हुए भी वे अपने प्रिय सखा
अर्जुन के विपक्ष में लड़नेवाले उसके शत्रु दुर्योधन को भी समानभाव से सहायता करने
को तैयार हो गये | जो अपने मित्र का शत्रु होता है वह अपना शत्रु ही समझा जाता है
| महाभारत उद्योगपर्व में भगवान् श्रीकृष्ण जब संधि कराने गये तब उन्होंने स्वयं
यह कहा भी था—
यस्तान्द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु |
ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पाण्डवैर्धर्मचारिभि: ||
(९१
| २८)
‘जो पाण्डवोंका वैरी है, वह मेरा वैरी है और जो उनके अनुकूल है, वह
मेरे अनुकूल है | मैं धर्मात्मा पाण्डवों से अलग नहीं हूँ |’
ऐसा होनेपर भी भगवान् ने दुर्योधन की सैन्यबल से सहायता की | संसार में ऐसा कौन
पुरुष होगा जो अपने प्रेमी मित्र के शत्रु को उसी से युद्ध करने के कार्य में
सहायता दे | परन्तु भगवान् की समता का कार्य विलक्षण था | इस मदद को पाकर दुर्योधन
भी अपने को कृतकृत्य मानने लगा | और उसने ऐसा समझा कि मानो मैंने श्रीकृष्ण को ठग
लिया—
कृष्णं चापहृतं ज्ञात्वा सम्प्राप परमां मुदम् |
दुर्योधनस्तु तत्सैन्यं सर्वमादाय पार्थिव: ||
(उद्योगपर्व
७ | २४)
भगवान् श्रीकृष्ण के प्रभाव को दुर्योधन
नहीं जानता था, इसीलिए उसने इसमें उनकी उदारता और समता तथा महत्ता का तत्त्व न
जानकर इसे मूर्खता समझा | जो लोग महान पुरुषों के प्रभाव को नहीं जानते, उनको उन
महापुरुषों की क्रियाओं के अन्दर दया, समता एवं उदारता आदि गुण दृष्टिगोचर नहीं
होते | दुर्योधन के उदाहरण से यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणित होती है |........शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि
पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!