※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *-6-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, दशमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.......भगवान् के लिए कोई कर्तव्य न होनेपर भी वे केवल जीवों को सन्मार्ग में लगाने के लिए ही कर्म किया करते हैं | गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है—

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |

नानवाप्तमावाप्तव्यं   वर्त  एव    कर्मणि ||

(३ | २२)

‘हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोको में कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |’

       भगवान् को समता भी बड़ी प्रिय थी | इसलिए गीता में भी उन्होंने समता का वर्णन किया है—

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ||

(६ | ९)

‘सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बन्धुगणोंमें तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी जो समान भाववाला है, वह अति श्रेष्ठ है |’

         गीता में केवल कहा ही नहीं, अपितु काम पड़ने पर भगवान् ने अपने मित्र और वैरियों के साथ बर्ताव भी समता का ही किया | महाभारत-युद्ध के प्रारंभ में दुर्योधन और अर्जुन युद्ध के लिए मदद माँगने द्वारिका गये और दोनों ही ने भगवान् से युद्ध में सहायता की प्रार्थना की | भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि एक और मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना है और दूसरी ओर मैं अकेला हूँ, पर मैं युद्ध में हथियार नहीं लूँगा | इससे यह बात सिद्ध हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन और दुर्योधन दोनों के साथ समान व्यवहार किया | यहाँ यह विचारणीय विषय है कि भगवान् श्रीकृष्ण को अर्जुन कितना अधिक प्रिय था, वे कहने को ही दो शरीर थे | महाभारत मौसलपर्व में वसुदेवजी अर्जुन से कहने लगे—

योऽहं तमर्जुनं विद्धि योऽर्जुन: सोऽहमेव तु ||

यद्ब्रूयात्तत्तथा  कार्यमिति  बुध्यस्व भारत |

(६ | २१-२२)

‘हे अर्जुन ! तू समझ, श्रीकृष्ण ने मुझे कहा—‘जो मैं हूँ सो अर्जुन है और जो अर्जुन है सो मैं हूँ, वह जैसा कहे, आप वैसा ही कीजियेगा |’

        तथा श्रीमद्भगवतगीतामें भी भगवान् ने कहा है—

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् |

(४ | ३)

         इतना होते हुए भी वे अपने प्रिय सखा अर्जुन के विपक्ष में लड़नेवाले उसके शत्रु दुर्योधन को भी समानभाव से सहायता करने को तैयार हो गये | जो अपने मित्र का शत्रु होता है वह अपना शत्रु ही समझा जाता है | महाभारत उद्योगपर्व में भगवान् श्रीकृष्ण जब संधि कराने गये तब उन्होंने स्वयं यह कहा भी था—

यस्तान्द्वेष्टि स मां द्वेष्टि  यस्ताननु  स मामनु |

ऐकात्म्यं मां गतं विद्धि पाण्डवैर्धर्मचारिभि: ||

(९१ | २८)

‘जो पाण्डवोंका वैरी है, वह मेरा वैरी है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे अनुकूल है | मैं धर्मात्मा पाण्डवों से अलग नहीं हूँ |’ ऐसा होनेपर भी भगवान् ने दुर्योधन की सैन्यबल से सहायता की | संसार में ऐसा कौन पुरुष होगा जो अपने प्रेमी मित्र के शत्रु को उसी से युद्ध करने के कार्य में सहायता दे | परन्तु भगवान् की समता का कार्य विलक्षण था | इस मदद को पाकर दुर्योधन भी अपने को कृतकृत्य मानने लगा | और उसने ऐसा समझा कि मानो मैंने श्रीकृष्ण को ठग लिया—

कृष्णं चापहृतं ज्ञात्वा सम्प्राप परमां मुदम् |

दुर्योधनस्तु तत्सैन्यं सर्वमादाय पार्थिव: ||

(उद्योगपर्व ७ | २४)

        भगवान् श्रीकृष्ण के प्रभाव को दुर्योधन नहीं जानता था, इसीलिए उसने इसमें उनकी उदारता और समता तथा महत्ता का तत्त्व न जानकर इसे मूर्खता समझा | जो लोग महान पुरुषों के प्रभाव को नहीं जानते, उनको उन महापुरुषों की क्रियाओं के अन्दर दया, समता एवं उदारता आदि गुण दृष्टिगोचर नहीं होते | दुर्योधन के उदाहरण से यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणित होती है |........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!