※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-जयदयाल जी गोयन्दका के कुछ आश्वासन-१४-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, चतुर्दशी, सोमवार, वि० स० २०७१
 
गीताप्रेस के संस्थापक-जयदयाल जी गोयन्दका के कुछ आश्वासन-१४-

 

गत ब्लॉग से आगे….....सेठ जी कोई चमत्कार करने या अपनी महत्ता बढ़ाने के लिए भविष्यवाणी इत्यादि कदापि न करते थे, लेकिन सहजता में उनके मुख से कुछ बाते निकली जो आज भी जीवन में उतारकर देखी जा सकती है-

किसी से पुछा की सेठजी मुझे काम, क्रोध आदि काफी सताते हैं मैं क्या करूँ ? सेठजी बोले की जब ऐसा समय हो तो कह दिया करों की क्या तुमने हमे सूना समझ लिया है ? मैं जयदयाल का सत्संगी हूँ, फिर वे तुम्हे नहीं सतायेंगे ।

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प्रवचन के दौरान सेठजी के मुहँ से अनायास निकल गया की गीता-तत्वविवेचनी टीका के प्रारम्भ में नम्र निवेदन है, उसको जो नित्य पढ़ेगा उसका में ऋणी रहूँगा और जो उसे जीवन में ले आयेगा, वह मुझे बेच सकता है, अर्थात मुझे जब चाहे प्रगट कर सकता है । गीता जी को जीवन में ले आयेगा वह भगवान् को बेच सकता है, यानी उनको जब चाहे प्रगट कर सकता है ।

*      *      *      *

सेठजी ने एक दिन कहा था की भगवान् कृष्ण ने लोगों को ऐरे की (एरका घास) धार से तारा, रामजी ने सरयू के धार से तारा, इसी तरह मैं पुस्तकों और सत्संग से लोगों को तारता हूँ । जयदयाल जी गोयन्दका तो ब्रह्मलीन हो गए, लेकिन अपना आत्म-कल्याण करने के लिए उनके द्वारा लिखित तथा उनके प्रवचनों के आधार पर प्रकाशित पुस्तके उपलब्ध है ।

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नित्य बलिवैश्वदेव करने पर उनका बड़ा जोर रहता था । वे कहा करते थे की बलिवैश्वदेव करने वाला पूरे विश्व को भोजन देता है । वह विश्वम्भर के तुल्य हो जाता है ।

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एक दिन प्रवचन के समय सेठजी बोले की यदि कोई भी भाई जिसने झूठ, कपट, चोरी करते हुए व्यापार किया है, वह मेरी बात मान कर आगे तीन साल तक सत्यता, इमानदारी पूर्वक व्यापार करे तो उसको तीन साल की अपेक्षा बाद में तीन साल में कोई घाटा नहीं रहेगा, यदि घाटा रहेगा तो उसकी पूर्ती मैं स्वयं करूँगा । जिन लोगों ने ऐसा किया उन्हें काफी लाभ हुआ ।

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ये आश्वाशन कैसे है इनको तो व्यवहार में लाने वाला ही समझ सकता है । ...... शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

रविवार, 27 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-सिद्धान्त-१३-


 

।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, त्रयोदशी, रविवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-सिद्धान्त-१३-

 

गत ब्लॉग से आगे…..... एक दिन जलपान देते समय एक रसगुल्ला उनकी कटोरी के लग कर पाटे पर गिर गया । परोसने वाले ने कहा की यह बच्चे को दे देवे तो सेठजी ने बहुत जोर से गर्म होकर सामने खड़े अपने अनुज मोहनलाल जी गोयन्दका से कहा-देख मोहन ! यह मेरे साथ दुर्व्यवहार कर रहा है, मुझे तो ऐसे ही लोग बदनाम करते है फिर मैं बोलने लायक नहीं रहूँगा । कोई है जहाँ जो इसे जमीन में गड्ढा खोदकर नष्ट कर दे ।

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किसी धनी व्यक्ति ने कहा की हमारे यहाँ महात्मा बहुत आते हैं । सेठजी बोले की पैसा देखकर जो आते है वे महात्मा नहीं होते ।

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यों तो सेठजी को सारी गीता याद थी और उनके एक-एक श्लोक प्रिय थे; परन्तु फिर भी कुछ श्लोक विशेष प्रिय प्रतीत होते थे-जिनमे स्वयं सेठजी का जीवन झांकता था –

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ४ /१८

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति गीता ६ / ३०

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ९ / २२

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च १० /

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् १८ / ५५

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे १८ / ६५

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं  त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥ १८ / ६६

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प्रिय भजन:- यों तो सेठजी कई भजन गाया करते थे; किन्तु निम्न भजन उन्हें विशेष प्रिय था-

उड़ जायेगा रे हँस अकेला, दिन दोय का दर्शन मेला ।। टेर।।

राजा भी जाएगा, जोगी भी जायेगा, गुरु भी जायेगा चेला ।। १ ।।

माता-पिता भाई-बन्धु भी जायेंगे, और रुपयों का थैला ।। २ ।।

तन भी जायेगा, मन भी जायेगा, तू क्यों भया है गैला ।। ३ ।।

तू भ जायेगा, तेरा भी जायेगा, यह सब माया का खेला ।। ४ ।।

कोडी रे कोडी माया जोड़ी, सँग चलेगा न अधेला ।। ५ ।।

साथी रे साथी तेरे पार उतर गए, तू क्यों रहा अकेला ।। ६ ।।

राम-नाम निष्काम रटो नर, बीती जात है बेला ।। ७ ।।

कीर्तन में उन्हें श्रीमन्ननारायण नारायण नारायण का गान विशेष प्रिय था । ...... शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

 

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-सिद्धान्त-१२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, द्वादशी, शनिवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-सिद्धान्त-१२-
 

गत ब्लॉग से आगे….....उचिष्ठ (जूठा) खिलाने का निषेध, चरण धुला हुआ जल देना, चरण-धूलि देना, आरती उतरवाना, अपनी पूजा करवाना, फोटो खिचवाना, फोटो पुजवाना, मरने के बार स्मारक बनाना, झूठ-कपट-बेईमानी से धन कमाना, ऋण लेकर उसे न चुकाना इत्यादि को जयदयालजी गोयन्दका अत्यन्त निन्दित कर्म मानते थे तथा माताओं द्वारा मंच पर बैठकर सत्संग या भजन करवाने का निषेध करते थे  । सकाम प्रार्थना करना भी सेठजी उचित नहीं मानते थे । यहाँ तक की दीपावली के पूजन के अवसर पर अपने घरों या बहियों में जो लोग ‘लक्ष्मी, कुबेर जी सदा सहाय’, ‘लक्ष्मी जी भण्डार भरसी’, ‘शुभ-लाभ’ इत्यादि लिखते है उसके भी विरोधी थे । वे केवल भगवत्प्रीत्यर्थ बाते ही लिखवाना चाहते थे । जैसे ‘श्री परमात्मदेव  सर्वत्र विराजमान है’, ‘भगवत्कृपा सर्वत्र समान रूप से है’, इत्यादि ।

उनका कहना था की वक्ता को अपने को श्रोताओं का ऋणी मानना चाहिये क्योकि श्रोताओं से वक्ताओं को विशेष अध्यात्मिक लाभ होता है । जो बात वह कहता है, उसके पालन करें की स्वयं पर ज्यादा जिम्मेवारी आती है तथा पहले उसकी बुद्धि में, फिर मन में फिर वाणी में आकर कानों तक पहुचती है, कानों में पूरी सुनायी सुनायी दे, न भी दे, फिर मन तक पहुचे, फिर बुद्धि तक पहुचे । वक्ता के भावों का कितना थोडा अंश श्रोताओं की बुद्धि तक पहुचता है । अत: वक्ता को हमेशा अपने को श्रोताओं का ऋणी मानना चाहिये । कैसे अदभुत भाव था । प्राय: वक्ता श्रोताओं पर अपना उपकार मानते है ।

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वास्तव में महात्मा लोग यह नही मान सकते की मेरे शरीर, गुण, प्रभाव आदि से लोगों का कल्याण हो जायेगा । इस बात क मानने वाला धर्मी वहां नहीं रहता, यदि कोई व्यक्ति अपने में ऐसी बात मानता है तो वह वास्तव में महात्मा है ही नहीं । इस सम्बन्ध में कुछ प्रसंग इस प्रकार है ।

एक बार बद्रीदासजी गोयन्दका ने जो सेठजी में श्रद्धा रखते थे उनकी खड़ाऊ को धोकर जल पी लिया । इस बात की सूचना सेठजी को मिल गयी । सेठजी ने उनको कहा की आपको ऐसा नही करना चाहिये । यदि चोरी से धन मिलता हो, तो भी चोरी नहीं करनी चाहिये ।

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एक बार वटवृक्ष के नीचे से कुछ लोगों ने सेठजी जहाँ बैठे थे वहां की धूल अपने गमछे इत्यादि में ले ली और चलने लगे । सेठजी को पता चला तो उन्होंने कडाई से कहा-इस प्रकार धूल ले जाने वालों को नरकों में जाना पड़ेगा । सब डर गए उन्होंने पुछा अब क्या करे ! सेठजी ने उत्तर दिया-जहाँ से धूल लाये हो, वहीं वापस डाल दो, नरक में नहीं जाना पड़ेगा ।

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एक दिन हरिराम जी लुहारीवाला ने कहा की एक व्यक्ति तो साधन करके भगवतप्राप्ति करता है और एक महापुरुष के दर्शन या तीर्थ सेवन या अन्त-समय में स्मृति होने से प्राप्ति होती है, प्राप्ति होने के बाद तो सभी समान है, फिर साधन की खटनी जो की, उससे क्या लाभ हुआ । सेठजी ने बताया की जो साधन को खटनी समझता है, वह सदाहं के तत्व को नहीं समझता । जिसे साधन द्वारा मुक्ति मिली है उसका जन जीवन पर जो असर पड़ेगा, वह वैसे ही मुक्ति मिलने वाले को नहीं पड़ेगा ।...... शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-११-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, एकादशी, शुक्रवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-११-

 

गत ब्लॉग से आगे….....जब से होश संभाला विदेशी वस्त्र नहीं छुए, अंग्रेजी दवाईयां नहीं ली । अंग्रेजी दवामात्र से उन्हें पूरा परहेज थी । गोली, सुई, सीरप किसी भी रूप में वे ग्रहण करने को तैयार नही होते । यहाँ तक की कई अवसरों पर प्राण जाने का खतरा उठा लिया; परन्तु अंग्रेजी दावा लेने से साफ़-साफ़ ईन्कार कर दिया । इतना ही नहीं, स्वजनों को भी अंग्रेजी दवा के विष से सर्वथा मुक्त रखा । कितना विलक्षण था उनका सर्वतोमुखी आत्मसंयम का भाव-ऐसी तपस्चर्या जो सहज ही आपके जीवन का अंग बन गयी थी ।

ऐसा प्रतीत होता है की गोयन्दका जी एक विशिस्ट मिशन लेकर आये थे और अपन सम्पूर्ण जीवन, जीवन के एक-एक सांस को उस मिशन की पूर्ती में होम कर दिया । गीता आपकी समस्त प्रवर्तियों के केन्द्र में थी और स्वयं गीतानुसारी जीवन बिताया, हजारों व्यक्तियों को उस पावन पथ पर प्रवृत कराया । आपके जीवन का कम्पास सदा गीतान्मुखी रहा ।
 
गीता आपके लिए भगवान् की वाणी ही नहीं थी भगवान् का दिव्य मंगलमय विग्रह थी, भगवान् का ह्रदय थी । भगवान् ने अपना गीतारूपी ह्रदय गोयन्दका जी के ह्रदय में ढाल दिया था और गोयन्दका जी उस अमृत प्रसाद को साठ-पैसठ वर्षों तक दोनों हाथ लुटाया; साहित्य प्रकाशित कर लुटाया, प्रवचनों द्वारा लुटाया, प्रोत्साहनो द्वारा लुटाया । स्वयं अपना वैसा ही जीवन बनाकर लुटाया । गंगा के अजस्त्र प्रवाह की तरह आपने गीता-प्रवचनों का अजस्त्र प्रवाह चलता रहा । लगता था यह व्यक्ति केवल गीता के लिए ही पृथ्वी पर आया है ।

कई बार सत्संगी भाईयों में चर्चा में ही रात बीत जाती; किन्तु दिन में कभी नहीं सोते । वे दिन में सोने का निषेध करते थे । आराम शब्द उन्हें पसन्द नही था । वे कहा करते थे आराम हराम है ।...... शेष अगले ब्लॉग में

       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

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गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-१०-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, दशमी, गुरूवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-१०-

 
गत ब्लॉग से आगे….....आपकी दैनिक दिनचर्या बहुत व्यस्त और अनुकरणीय रही है । प्रात:काल ४ बजे से रात्रि ११-१२ बजे तक अखण्ड भाव से कर्मरत रहते थे । कही प्रमाद नहीं, आलस्य नहीं, तन्द्रा नही, विश्राम नहीं, आराम नहीं, शिथिलता नहीं, उदासीनता नहीं । ऐसा लगता यह व्यक्ति चिर जागरूक है, सतत सावधान है । जब से होश संभाला और यज्ञोपवीत संस्कार से संपन्न हुए, नियमपूर्वक दोनों काल की संध्योपासन ठीक समय से-प्रात:काल की सूर्यनारायण के उदय पूर्व, संध्याकाल की सुर्यास्तके पूर्व ४८ मिनट के अन्दर । गीता के समान ही संध्योपासनामें उनकी अनन्य निष्ठा थी । यात्रा में हों, सभा में हों, विचार-विमर्श में हो, बीमार हो, चाहे जहाँ भी हो, जैसे भी हो संध्योपासना के समय वे सब कुछ छोड़ कर एकदम सहसा संध्या में लग जाते थे और क्या मजाल की उनकी एक भी संध्या छुटी हो । समय से संध्या न होने पर एक समय के उपवास का नियम था, लेकिन पूरे जीवनकाल में शायद एक या दो बार ही उपवास करना पड़ा हो ।
 
प्रात:कालीन संध्या के पश्चात वे नियमपूर्वक श्रीमदभगवतगीता  और श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करते और योगासन करते । गीता एवं विष्णुसहस्त्रनाम उन्हें खूब अच्छी तरह कंठस्थ थे; परन्तु पाठ की विधि के अनुशाशन को बहुत कडाई के साथ पालन करते थे । आँखों से कम दीखने लगा तो विधिवत गीता और सहस्त्रनाम वे नियमपूर्वक सुनते । गायत्री और हरिनाम के प्रति भी आपकी वैसी ही अनन्य निष्ठा थी ।

कई बातों में आपने अपने लिए नियमों का कवच बना लिया था-भोजन के सम्बन्ध में, वस्त्र के सम्बन्ध में । भोजन में वे कुल तीन चीज लेते थे हल्का और सात्विक । गौ-दुग्ध पर उनका आग्रह था । वस्त्र भी शरीर पर बस एक धोती, एक चौबन्दी, एक चादर । कहीं आना-जाना होता तो सर पर केसरिया रंग की पगड़ी और पैरों में अहिंसक जूते । ..... शेष अगले ब्लॉग में       

  

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

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बुधवार, 23 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-आज्ञापालन -९-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, नवमी, बुधवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-आज्ञापालन -९-


गत ब्लॉग से आगे.....सेठजी का आज्ञापालन अद्वितीय था । समाज के सजग प्रहरी से कोई भूल हो जाय यह कैसे सम्भव है लोकहितार्थ ही जिनका जन्म हो उसकी क्रिया में कोई कमी रहे असम्भव है । इनके बचपन की कुछ घटनाएँ द्रष्टव्य है-

एक बार सेठजी के पिता श्रीखूबचन्द जी ने इन्हें गर्मी की रात्रि में पंखा झलने को कहा । ये पंखा झलने लगे, ठंडी हवा पाकर इनके पिता जी गाढ़ निंद्रा में सो गए । ये सारी रात पंखा झलते रहे । प्रात: लगभग चार बजे जब इनके  पिताजी की नीद टूटी तो इनको पंखा झलते पाया । पिता जी ने पुछा के जल्दी उठकर आ गया क्या ? ये मौन रहे । अब इनके पिताजी को समझते देर न लगी की यह तो रात्रि से ही पंखा झल रहा है । उन्होंने बड़े प्यार से कहा की भविष्य में यदि मैं सेवा कहूँ और मुझे नीद आ जाये तो चले जाना ।

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गर्मी के दिन थे, सेठजी बाहर से घर आये । अपनी माता से कहा की माँ मुझे जोर से प्यास लगी है, पीने के लिए पानी दे-दे । माताजी पानी के लिए घर के अन्दर चली गयी और ये बैठकर थकान मिटा रहे थे । इसी बीच इनके पिता आ गए और इनसे अपनी दवा लाने के लिए बाजार जाने को कहा । ये जल पीने के लिए प्रतीक्षा किये बिना ही तुरन्त दवा लाने चल दिए । इनके बाजार जाते ही माताजी पानी लेकर आयीं । सेठजी को न देखकर अपने पति से पूछी की जैद कहाँ गया । उत्तर मिला की वह तो मेरी दवा लेने बाजार गया । इनके पिता जी को यह समझ में आ गया की पानी पीने में समय लगाये बिना वह मेरी दवा लेने बाजार चला गया ? ऐसा आज्ञापालन क्या कोई साधारण पुत्र कर सकता है ? ..... शेष अगले ब्लॉग में       
  

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

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मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-दूरदर्शिता -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, अष्टमी, मंगलवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-दूरदर्शिता -८-


गत ब्लॉग से आगे......छोटी-से-छोटीबात कहीं समाज के लिए घातक न बन जाये सेठजी इस बात का विशेष ध्यान रखते थे । उनकी पैनी बुद्धि आगामी दुष्परिणाम को जान जाती थी । एक बार कोई मीराबाई का भजन-‘म्हें तो गुण गोविन्द का गास्याँ ए माय राणाजी रूठे तो म्हारों काई करसी ।’ बड़े चाव से गा रहा था । आवाज सुनते ही सेठजी ने आदमी भेजकर इस भजन को गाने से रोकने को कहा-लोग अचम्भे में पड गए की सेठजी को आखिर मीराबाई का यह भजन अच्छा क्यों नहीं लगा । सबके मनोबल को समझकर सेठजी ने लोगों को बताया की आजकल की स्त्रियाँ मीरा तो बनेगी नहीं, हाँ यह भजन सुनकर घरवालों की अवेहलना अवश्य शुरू कर देंगी । इससे उच्छृंखलता बढ़ सकती है ।

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एक बार कोई विशिष्ट व्यक्ति परलोक चला गया । उसके शुभेछु लोग उसका स्मारक बनवाना चाहते थे । सेठ जी ने अपने सत्संग में लोगों को बताया था की जो लोग दुसरे का स्मारक बनवाना चाहते है उनके मन में अपना स्मारक बनवाने की इच्छा रहती है । सेठजी ने किसी व्यक्ति के स्मारक अथवा पूजा-अर्चा के विरुद्ध थे । मनुष्य को ईश्वर का पूजक होना चाहिये, उनकी भक्ति ही सर्वोपरि है । वर्तमान गुरुपरम्परा के विरोधी थे, सच्चे गुरु तो मिलते नहीं और वास्तविक गुरु भगवान् को पूछते नहीं ।

सेठजी ने कहा की मैं दुसरे के मरने पर यदि स्मारक बनाना चाहता हूँ तो इसका अर्थ यह है की मैं भी अपने मरने पर स्मारक बनवाना चाहता हूँ । मेरे मरने पर कोई स्मारक बनाना चाहेगा तो उसे मैं अपना अनुयायी नहीं मानता । ..... शेष अगले ब्लॉग में      
  

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

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सोमवार, 21 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-अहिंसा के पुजारी -७-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, सप्तमी, सोमवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-अहिंसा के पुजारी -७-

 
गत ब्लॉग से आगे.....सेठजी परम भागवत थे फिर उन्हें जीवहिंसा कैसे सहन होती । प्रवचन करते समय उन्हें एक बार पता चला की उनके द्वारा पहने हुए जूते का चमडा हिंसा से प्राप्त है अथवा अहिंसक है या पता नहीं । उन्होंने उसी समय चमड़े का जूता पहनना छोड़ दिया । प्रवचन स्थल से नंगे पाँव ही आये तथा काफी दिन बिना जूते के ही घुमते-फिरते रहे । फिर उन्होंने मोटरसाइकिल के पुराने टायरों के सोल तथा ऊपर कैनवास का कपडा लगवाकर जूते का निर्माण करवाने का व्यवस्था की । अपने साथ ही अन्य लोगों को भी हिंसा रहित वस्तु प्रयोग में लाने के लिए जीवन-पर्यन्त प्रेरित करते रहे ।

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महिलाओं के सोभाग्यावती होने का एक लक्षण उनके द्वार पहनी गयी चूड़ियाँ है । उन दिनों चूड़ियाँ हिंसा से प्राप्त लाख से बनती थी । सेठजी ने सत्संगियों को समझाकर घरों में लाख के बदले काँच की चूड़ियों का प्रचलन कराया ।

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उनके समय में विदेशों वस्त्रों का बहुत बोलबाला हो गया था जिसकी बुनाई में प्रयुक्त मांड में चर्बी लगती थी । इससे बचने के लिए सेठजी ने हस्तनिर्मित वस्त्रपहनने की सलाह दी । जब लोगों ने प्रश्न किया की ये सब शुद्ध समान कैसे मिलेंगे तो उन्होंने गोविन्द भवन, कोलकत्ता में कारीगर रखकर जूते निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया तथा हस्तनिर्मित वस्त्र एवं काँच की चूड़ियाँ भी उपलब्ध करवाई ।   ..... शेष अगले ब्लॉग में        

  

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!