※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-सिद्धान्त-१२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, द्वादशी, शनिवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-सिद्धान्त-१२-
 

गत ब्लॉग से आगे….....उचिष्ठ (जूठा) खिलाने का निषेध, चरण धुला हुआ जल देना, चरण-धूलि देना, आरती उतरवाना, अपनी पूजा करवाना, फोटो खिचवाना, फोटो पुजवाना, मरने के बार स्मारक बनाना, झूठ-कपट-बेईमानी से धन कमाना, ऋण लेकर उसे न चुकाना इत्यादि को जयदयालजी गोयन्दका अत्यन्त निन्दित कर्म मानते थे तथा माताओं द्वारा मंच पर बैठकर सत्संग या भजन करवाने का निषेध करते थे  । सकाम प्रार्थना करना भी सेठजी उचित नहीं मानते थे । यहाँ तक की दीपावली के पूजन के अवसर पर अपने घरों या बहियों में जो लोग ‘लक्ष्मी, कुबेर जी सदा सहाय’, ‘लक्ष्मी जी भण्डार भरसी’, ‘शुभ-लाभ’ इत्यादि लिखते है उसके भी विरोधी थे । वे केवल भगवत्प्रीत्यर्थ बाते ही लिखवाना चाहते थे । जैसे ‘श्री परमात्मदेव  सर्वत्र विराजमान है’, ‘भगवत्कृपा सर्वत्र समान रूप से है’, इत्यादि ।

उनका कहना था की वक्ता को अपने को श्रोताओं का ऋणी मानना चाहिये क्योकि श्रोताओं से वक्ताओं को विशेष अध्यात्मिक लाभ होता है । जो बात वह कहता है, उसके पालन करें की स्वयं पर ज्यादा जिम्मेवारी आती है तथा पहले उसकी बुद्धि में, फिर मन में फिर वाणी में आकर कानों तक पहुचती है, कानों में पूरी सुनायी सुनायी दे, न भी दे, फिर मन तक पहुचे, फिर बुद्धि तक पहुचे । वक्ता के भावों का कितना थोडा अंश श्रोताओं की बुद्धि तक पहुचता है । अत: वक्ता को हमेशा अपने को श्रोताओं का ऋणी मानना चाहिये । कैसे अदभुत भाव था । प्राय: वक्ता श्रोताओं पर अपना उपकार मानते है ।

*      *      *      *

वास्तव में महात्मा लोग यह नही मान सकते की मेरे शरीर, गुण, प्रभाव आदि से लोगों का कल्याण हो जायेगा । इस बात क मानने वाला धर्मी वहां नहीं रहता, यदि कोई व्यक्ति अपने में ऐसी बात मानता है तो वह वास्तव में महात्मा है ही नहीं । इस सम्बन्ध में कुछ प्रसंग इस प्रकार है ।

एक बार बद्रीदासजी गोयन्दका ने जो सेठजी में श्रद्धा रखते थे उनकी खड़ाऊ को धोकर जल पी लिया । इस बात की सूचना सेठजी को मिल गयी । सेठजी ने उनको कहा की आपको ऐसा नही करना चाहिये । यदि चोरी से धन मिलता हो, तो भी चोरी नहीं करनी चाहिये ।

*      *      *      *

एक बार वटवृक्ष के नीचे से कुछ लोगों ने सेठजी जहाँ बैठे थे वहां की धूल अपने गमछे इत्यादि में ले ली और चलने लगे । सेठजी को पता चला तो उन्होंने कडाई से कहा-इस प्रकार धूल ले जाने वालों को नरकों में जाना पड़ेगा । सब डर गए उन्होंने पुछा अब क्या करे ! सेठजी ने उत्तर दिया-जहाँ से धूल लाये हो, वहीं वापस डाल दो, नरक में नहीं जाना पड़ेगा ।

*      *      *      *

एक दिन हरिराम जी लुहारीवाला ने कहा की एक व्यक्ति तो साधन करके भगवतप्राप्ति करता है और एक महापुरुष के दर्शन या तीर्थ सेवन या अन्त-समय में स्मृति होने से प्राप्ति होती है, प्राप्ति होने के बाद तो सभी समान है, फिर साधन की खटनी जो की, उससे क्या लाभ हुआ । सेठजी ने बताया की जो साधन को खटनी समझता है, वह सदाहं के तत्व को नहीं समझता । जिसे साधन द्वारा मुक्ति मिली है उसका जन जीवन पर जो असर पड़ेगा, वह वैसे ही मुक्ति मिलने वाले को नहीं पड़ेगा ।...... शेष अगले ब्लॉग में       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!