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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण, एकादशी, शुक्रवार, वि० स० २०७१
गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-११-
गत ब्लॉग से आगे….....जब से होश संभाला विदेशी वस्त्र नहीं छुए, अंग्रेजी
दवाईयां नहीं ली । अंग्रेजी दवामात्र से उन्हें पूरा परहेज थी । गोली, सुई, सीरप
किसी भी रूप में वे ग्रहण करने को तैयार नही होते । यहाँ तक की कई अवसरों पर प्राण
जाने का खतरा उठा लिया; परन्तु अंग्रेजी दावा लेने से साफ़-साफ़ ईन्कार कर दिया ।
इतना ही नहीं, स्वजनों को भी अंग्रेजी दवा के विष से सर्वथा मुक्त रखा । कितना
विलक्षण था उनका सर्वतोमुखी आत्मसंयम का भाव-ऐसी तपस्चर्या जो सहज ही आपके जीवन का
अंग बन गयी थी ।
ऐसा प्रतीत होता है की गोयन्दका जी एक विशिस्ट मिशन लेकर आये
थे और अपन सम्पूर्ण जीवन, जीवन के एक-एक सांस को उस मिशन की पूर्ती में होम कर
दिया । गीता आपकी समस्त प्रवर्तियों के केन्द्र में थी और स्वयं गीतानुसारी जीवन
बिताया, हजारों व्यक्तियों को उस पावन पथ पर प्रवृत कराया । आपके जीवन का कम्पास
सदा गीतान्मुखी रहा ।
गीता आपके लिए भगवान् की वाणी ही नहीं थी भगवान् का दिव्य
मंगलमय विग्रह थी, भगवान् का ह्रदय थी । भगवान् ने अपना गीतारूपी ह्रदय गोयन्दका
जी के ह्रदय में ढाल दिया था और गोयन्दका जी उस अमृत प्रसाद को साठ-पैसठ वर्षों तक
दोनों हाथ लुटाया; साहित्य प्रकाशित कर लुटाया, प्रवचनों द्वारा लुटाया,
प्रोत्साहनो द्वारा लुटाया । स्वयं अपना वैसा ही जीवन बनाकर लुटाया । गंगा के
अजस्त्र प्रवाह की तरह आपने गीता-प्रवचनों का अजस्त्र प्रवाह चलता रहा । लगता था
यह व्यक्ति केवल गीता के लिए ही पृथ्वी पर आया है ।
कई बार सत्संगी भाईयों में चर्चा में ही रात बीत जाती;
किन्तु दिन में कभी नहीं सोते । वे दिन में सोने का निषेध करते थे । आराम शब्द
उन्हें पसन्द नही था । वे कहा करते थे आराम हराम है ।...... शेष अगले ब्लॉग में
गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक,
प्रकाशक श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!