※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-११-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, एकादशी, शुक्रवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-११-

 

गत ब्लॉग से आगे….....जब से होश संभाला विदेशी वस्त्र नहीं छुए, अंग्रेजी दवाईयां नहीं ली । अंग्रेजी दवामात्र से उन्हें पूरा परहेज थी । गोली, सुई, सीरप किसी भी रूप में वे ग्रहण करने को तैयार नही होते । यहाँ तक की कई अवसरों पर प्राण जाने का खतरा उठा लिया; परन्तु अंग्रेजी दावा लेने से साफ़-साफ़ ईन्कार कर दिया । इतना ही नहीं, स्वजनों को भी अंग्रेजी दवा के विष से सर्वथा मुक्त रखा । कितना विलक्षण था उनका सर्वतोमुखी आत्मसंयम का भाव-ऐसी तपस्चर्या जो सहज ही आपके जीवन का अंग बन गयी थी ।

ऐसा प्रतीत होता है की गोयन्दका जी एक विशिस्ट मिशन लेकर आये थे और अपन सम्पूर्ण जीवन, जीवन के एक-एक सांस को उस मिशन की पूर्ती में होम कर दिया । गीता आपकी समस्त प्रवर्तियों के केन्द्र में थी और स्वयं गीतानुसारी जीवन बिताया, हजारों व्यक्तियों को उस पावन पथ पर प्रवृत कराया । आपके जीवन का कम्पास सदा गीतान्मुखी रहा ।
 
गीता आपके लिए भगवान् की वाणी ही नहीं थी भगवान् का दिव्य मंगलमय विग्रह थी, भगवान् का ह्रदय थी । भगवान् ने अपना गीतारूपी ह्रदय गोयन्दका जी के ह्रदय में ढाल दिया था और गोयन्दका जी उस अमृत प्रसाद को साठ-पैसठ वर्षों तक दोनों हाथ लुटाया; साहित्य प्रकाशित कर लुटाया, प्रवचनों द्वारा लुटाया, प्रोत्साहनो द्वारा लुटाया । स्वयं अपना वैसा ही जीवन बनाकर लुटाया । गंगा के अजस्त्र प्रवाह की तरह आपने गीता-प्रवचनों का अजस्त्र प्रवाह चलता रहा । लगता था यह व्यक्ति केवल गीता के लिए ही पृथ्वी पर आया है ।

कई बार सत्संगी भाईयों में चर्चा में ही रात बीत जाती; किन्तु दिन में कभी नहीं सोते । वे दिन में सोने का निषेध करते थे । आराम शब्द उन्हें पसन्द नही था । वे कहा करते थे आराम हराम है ।...... शेष अगले ब्लॉग में

       

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!