※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 31 मार्च 2013

अमूल्य शिक्षा -२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

चैत्र कृष्ण, चतुर्थी, रविवार वि० स० २०६९

 

भगवान बड़े ही सुह्रद और दयालु है,वह बिना ही कारण के हित करने वाले और अपने प्रेमी को प्राणों के समान प्रिय समझने वाले है | जो मनुष्य इस तत्व को जानता है, उसको भगवान के दर्शन बिना एक पल के लिए भी कल नहीं पड़ती | भगवान भी अपने भक्त के लिए सब कुछ छोड़ सकते है, पर उस प्रेमी भक्त को एक क्षण भी नहीं त्याग सकते |

मृत्यु को हर समय याद रखना और समस्त संसारिक पदार्थो को क्षणभंगुर समझना चाहिये | साथ ही भगवान के नाम का जप और ध्यान का बहुत तेज अभ्यास करना चाहिये | जो ऐसा करता है, वः परिणाम में परम आनन्द को प्राप्त होता है |

मनुष्य-जन्म सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं मिला है | कीट, पतंग, कुत्ते,सूअर और गधे भी पेट भरने के लिए चेष्टा करते रहते है |यदि उनकी भाँती जन्म बिताया तो मनुष्य-जीवन व्यर्थ है | जिनकी शरीर और संसार अर्थात क्षणभंगुर नाशवान जड वर्ग में सत्ता नहीं है, वही जीवन मुक्त है, उन्ही का जीवन सफल है |

जो समय भगवद्भजन के बिना जाता है वह व्यर्थ जाता है | जो मनुष्य समय की कीमत समझता है. वह एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खो सकता | भजन से अन्तकरण की शुद्धि होती है, तब शरीर और संसार में वासना और आसक्ति दूर होती है, इसके बाद संसार की सत्ता मिट जाती है | एक परमात्मसत्ता ही रह जाती है |        

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शनिवार, 30 मार्च 2013

अमूल्य शिक्षा -१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

चैत्र कृष्ण, तृतीया, शनिवार, वि० स० २०६९

 

अपने आत्माके सामान सब जगह सुख-दुःखको समान देखना तथा सब जगह आत्मा को परमेश्वर में एकीभाव से प्रत्यक्ष की भाँती देखना बहुत ऊचा ज्ञान है |

चिन्तनमात्र का अभाव करते-करते अभाव करने वाली वृति भी शान्त हो जाए, कोई स्फुरणा भी शेष न रहे तथा एक अर्थमात्र वस्तु ही शेष रह जाए, यह समाधी का  लक्षण है |

श्री नारायनदेव के प्रेम में ऐसी निमग्नता हो की शरीर और संसार की सुधि न रहे, यह बहुत ऊँची भक्ति है |

नेति-नेति अभ्यास से ‘नेति-नेति’ रूप निषेध करनेवाले संस्कार का भी शान्त आत्मा में या परमात्मा में शान्त हो जाने के समान ध्यान की ऊँची स्तिथि और क्या होगी ?

परमेश्वर का हर समय स्मरण न करना और उसका गुणानुवाद सुनने के समय न मिलना बहुत बड़े शोक का विषय हैं  |

मनुष्य में दोष देखकर उससे घ्रणा या द्वेष नहीं करना चाहिये |  घ्रणा या द्वेष करना हो तो मनुष्य के अन्दर रहने वाले दोषरूपी विकारों से करनी चाहिये | जैसे किसी मनुष्य को प्लेग हो जाने पर उसके घरवाले प्लेग की बीमारी से बचाना अवश्य चाहते है, इसलिए अपने को बचाते हुए यथासाध्य चेष्टाभी पूरीतरह से करनी चाहिये, क्योकि वन उनका प्यारा है | इसी प्रकार जिस मनुष्य में चोरी, जारी आदि दोषरूपी रोग हो , उनको अपना प्यारा बन्धु समझकर उसके साथ घ्रणा या द्वेष न करके उसको रोग से बचाते हुए रोगमुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिये |.....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

मान-बड़ाई का त्याग -७



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण द्वितीया,शुक्रवार, वि०स० २०७० 

* मान-बड़ाई का त्याग *

गत ब्लॉग से आगे.......इसपर कोई यह कह सकते हैं कि सच्चे भगवद्भक्त मान आदि तो बिलकुल नहीं चाहते, न यह चाहते हैं कि लोग उनके चित्र की पूजा करें, उनके नाम का प्रचार हो अथवा उनकी जीवनी लिखी जाय; परन्तु सभी भक्त और ज्ञानी यदि इन सब बातों का कड़ाई के साथ विरोध करने लग जायँ तो फिर अच्छे पुरुषों की जीवनियाँ अथवा स्मारक संसार में मिलने ही कठिन हो जायँगे, जिससे आगे की पीढ़ियाँ उनसे मिलनेवाले लाभ से सदा के लिए वंचित हो जायँगी, तो इसका उत्तर यह है कि अच्छे पुरुष इन सब बातों का तनिक भी विचार नहीं करते | अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करनेवाला क्या कभी यह सोच सकता है कि मेरी देखा-देखी यदि दूसरे लोग भी स्त्री-सुखका त्याग कर देंगे तो फिर संसार का व्यवहार कैसे चलेगा, सृष्टि का कार्य ही बंद हो जायगा | ऐसा सोचनेवाला कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता | इसी प्रकार अच्छे पुरुष यह कभी नहीं सोचते कि यदि हम पूजा ग्रहण करना छोड़ देंगे तो संसार से महापुरुषों की पूजा की पद्धति ही उठ जायगी | संसार का व्यवहार तो सदा इसी प्रकार चलता आया है और चलता रहेगा | यदि कोई कहे कि अबतक के महात्माओं की इच्छा एवं प्रेरणा से ही उनकी जीवनियाँ लिखी गयी हैं अथवा उनके स्मारकों का निर्माण हुआ है, तो ऐसा कहना अथवा सोचना उन महात्माओं पर झूठा कलंक लगाना, उनपर व्यर्थ का दोषारोपण करना है | महात्माओं की बात तो अलग रही, ऊँचे साधक के मन से भी यह वासना हट जाती है; यदि रहती है तो यह मानना चाहिए कि वह उच्च कोटि का साधक नहीं है | इस सम्बन्ध में यह निश्चित सिद्धान्त मान लेना चाहिए कि अच्छे पुरुषों के मनमें यह वासना कभी उठती ही नहीं कि मेरे जीवन-काल में अथवा मरने के बाद लोग मेरे शरीर या मूर्ति की पूजा करें, मेरे नामका प्रचार हो अथवा मेरी जीवनी लिखी जाय | इस प्रकार की इच्छा का अच्छे पुरुषों में अत्यन्ताभाव हो जाता है | और महात्माओं का सच्चा अनुयायी एवं सच्चा श्रद्धालु वही है जो उनके भाव के, उनकी इच्छा के अनुकूल अपने जीवन को बना लेता है; वही सच्चा शरणापन्न और वही सच्चा भक्त है |

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 28 मार्च 2013

मान-बड़ाई का त्याग-६


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण प्रथमा ,गुरूवार, वि०स० २०७०
* मान-बड़ाई का त्याग *
गत ब्लॉग से आगे.....     
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि भरतजी का श्रीराम के चरणों में अतिशय प्रेम था तो उनसे श्रीराम का वियोग कैसे सहा गया, श्रीराम के विरह में उन्होंने प्राण क्यों नहीं त्याग दिये, तो इसका उत्तर यह है कि भरतजी श्रीराम के निरे प्रेमी ही न थे, वे उच्च कोटि के श्रद्धालु भी थे  प्रसन्नता में प्रसन्न रहना, प्राणों की बाजी लगाकर भी उनकी आज्ञा का पालन करना उनके जीवन का व्रत था | उनकी इस श्रद्धा ने ही उनके प्राणों की रक्षा की और उन्हें चौदह वर्षतक जीवित रखा | उन्हें विश्वास था कि चौदह वर्ष बीतनेपर श्रीराम से अवश्य भेंट होगी और फिर आजीवन मैं उनके साथ रहूँगा, फिर कभी वे मुझे अलग रहने को नहीं कहेंगे | इसी आशापर वे जीवित रहे | फिर भी उन्हें श्रीराम के वियोग का दुःख कम न था | एक-एक दिन गिनकर उन्होंने चौदह वर्ष व्यतीत किये और विरह-व्यथा में सुखकर वे अत्यन्त कृश हो गये | यही नहीं, चौदह वर्ष बीतने के बाद यदि श्रीराम वनसे लौटनेमें कुछ भी विलम्ब करते तो उनका प्राण बचना कठिन था | इस प्रकार प्रेम की ऊँची-से-ऊँची अवस्था उनके अन्दर व्यक्त थी | साथ ही उनमें श्रद्धा भी कम न थी | इसीलिए उन्होंने सोचा कि जब श्रीराम अपनी इच्छा से वनमें जा रहे हैं तो उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें लौटाने के लिए मुझे अति आग्रह क्यों करना चाहिए | इस प्रकार अतिशय प्रेम के साथ-साथ उनमें श्रद्धा भी उच्चतम कोटि की थी | किन्तु उच्च श्रेणी के प्रेमी अपने प्रेमास्पद की और सब बातें मानते हुए भी कभी-कभी उनके संग के लिए अड़ जाते हैं | संग के लिए उनका इस प्रकार आग्रह करना भी दोषयुक्त नहीं माना जाता | इससे उनकी श्रद्धा में कमी नहीं मानी जाती | सारांश यह है कि प्रेमी किसी भी हेतु से प्रेमास्पद का त्याग नहीं करता | प्रेमास्पद का संग बना रहे, इसके लिए वह कभी-कभी अपने प्रेमास्पद की रूचि की भी उपेक्षा कर देता है | इसके विपरीत, श्रद्धालु अपने श्रद्धेय की रूचि रखने के लिए उनके संग का भी प्रसन्नतापूर्वक त्याग कर देता है; परन्तु उनकी रूचि के प्रतिकूल कोई चेष्टा नहीं करता | प्रेमी को प्रेमास्पद का संग छोड़ने में मृत्यु के समान कष्ट होता है और श्रद्धालु को श्रद्धेय की रूचि के प्रतिकूल आचरण मरण के समान प्रतीत होता है | प्रेमास्पद प्रेम बढ़ाने के लिए यदि प्रेमी को कभी अलग कर देता है तो प्रेमी को उसका वियोग असह्य हो जाता है | इसी प्रकार श्रद्धालु से श्रद्धेय की रूचि का पालन करने में तनिक भी कोर-कसर सहन नहीं होती | सच्चे प्रेम और श्रद्धा का यही स्वरुप है |
 .........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, 27 मार्च 2013

मान-बड़ाई का त्याग-५

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा,बुधवार, वि०स० २०६९
* मान-बड़ाई का त्याग *

गत ब्लॉग से आगे....... इसी प्रकार जो सच्चे प्रेमी होते हैं, वे अपने प्रेमास्पद का एक क्षण के लिए भी वियोग नहीं सह सकते | वे जान-बूझकर तो अपने प्रेमास्पद का त्याग कर ही नहीं सकते, यदि प्रेमास्पद उन्हें बरबस अलग कर देता है तो विरह के कारण उनकी दशा शोचनीय हो जाती है | किसी-किसी प्रेमी की तो प्रेमास्पद के विरह में मृत्यु तक हो जाती है, अथवा मृत्यु की-सी दशा हो जाती है, जलके अभाव में मछली की तरह उसके प्राण छटपटाने लगते हैं | वह यदि जीता है तो प्रेमी की इच्छा मानकर—उसके मिलनकी आशा से ही जीता है; मनसे तो उसका प्रेमास्पद से कभी वियोग होता ही नहीं, मन उसका निरन्तर अपने प्रियतम में ही बसा रहता है | प्राचीन इतिहास के पन्नो को उलटने पर श्रद्धा और प्रेम का सर्वोच्च नमूना हमें भरतजी के जीवन में मिलता है | ननिहाल से लौटनेपर भरतजी ने जब सुना कि श्रीराम वनको चले गये और उनके वनगमन का कारण मैं ही हूँ, तब वे सब कुछ छोड़कर तुरंत श्रीराम के पास वनमें गए और अयोध्या लौट चलने के लिए उनसे प्रार्थना की | वाल्मीकीय रामायण में तो उन्होंने श्रीरामजी को यहाँतक कह दिया कि यदि आप अयोध्या न चलेंगे तो मैं अनशन-व्रत लेकर प्राणत्याग कर दूँगा | परन्तु फिर श्रीराम की आज्ञा मानकर, उनकी चरणपादुकाओं को मस्तक पर रखकर अयोध्या लौट आये | किन्तु अयोध्या लौटकर भी वे भोगों में लिप्त न हुए, अयोध्या से बाहर नन्दिग्राम में रहकर उन्होंने मुनियोंका-सा जीवन व्यतीत किया और बड़ी उत्कंठा से श्रीराम के लौटने की प्रतीक्षा करते रहे |
     
     यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि भरतजी का श्रीराम के चरणों में अतिशय प्रेम था तो उनसे श्रीराम का वियोग कैसे सहा गया, श्रीराम के विरह में उन्होंने प्राण क्यों नहीं त्याग दिये, तो इसका उत्तर यह है कि भरतजी श्रीराम के निरे प्रेमी ही न थे, वे उच्च कोटि के श्रद्धालु भी थे |  प्रसन्नता में प्रसन्न रहना, प्राणों की बाजी लगाकर भी उनकी आज्ञा का पालन करना उनके जीवन का व्रत था | उनकी इस श्रद्धा ने ही उनके प्राणों की रक्षा की और उन्हें चौदह वर्षतक जीवित रखा | उन्हें विश्वास था कि चौदह वर्ष बीतनेपर श्रीराम से अवश्य भेंट होगी और फिर आजीवन मैं उनके साथ रहूँगा, फिर कभी वे मुझे अलग रहने को नहीं कहेंगे | इसी आशापर वे जीवित रहे | फिर भी उन्हें श्रीराम के वियोग का दुःख कम न था | एक-एक दिन गिनकर उन्होंने चौदह वर्ष व्यतीत किये और विरह-व्यथा में सुखकर वे अत्यन्त कृश हो गये | यही नहीं, चौदह वर्ष बीतने के बाद यदि श्रीराम वनसे लौटनेमें कुछ भी विलम्ब करते तो उनका प्राण बचना कठिन था | इस प्रकार प्रेम की ऊँची-से-ऊँची अवस्था उनके अन्दर व्यक्त थी | साथ ही उनमें श्रद्धा भी कम न थी | इसीलिए उन्होंने सोचा कि जब श्रीराम अपनी इच्छा से वनमें जा रहे हैं तो उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें लौटाने के लिए मुझे अति आग्रह क्यों करना चाहिए | इस प्रकार अतिशय प्रेम के साथ-साथ उनमें श्रद्धा भी उच्चतम कोटि की थी | किन्तु उच्च श्रेणी के प्रेमी अपने प्रेमास्पद की और सब बातें मानते हुए भी कभी-कभी उनके संग के लिए अड़ जाते हैं | संग के लिए उनका इस प्रकार आग्रह करना भी दोषयुक्त नहीं माना जाता | इससे उनकी श्रद्धा में कमी नहीं मानी जाती | सारांश यह है कि प्रेमी किसी भी हेतु से प्रेमास्पद का त्याग नहीं करता | प्रेमास्पद का संग बना रहे, इसके लिए वह कभी-कभी अपने प्रेमास्पद की रूचि की भी उपेक्षा कर देता है | इसके विपरीत, श्रद्धालु अपने श्रद्धेय की रूचि रखने के लिए उनके संग का भी प्रसन्नतापूर्वक त्याग कर देता है; परन्तु उनकी रूचि के प्रतिकूल कोई चेष्टा नहीं करता | प्रेमी को प्रेमास्पद का संग छोड़ने में मृत्यु के समान कष्ट होता है और श्रद्धालु को श्रद्धेय की रूचि के प्रतिकूल आचरण मरण के समान प्रतीत होता है | प्रेमास्पद प्रेम बढ़ाने के लिए यदि प्रेमी को कभी अलग कर देता है तो प्रेमी को उसका वियोग असह्य हो जाता है | इसी प्रकार श्रद्धालु से श्रद्धेय की रूचि का पालन करने में तनिक भी कोर-कसर सहन नहीं होती | सच्चे प्रेम और श्रद्धा का यही स्वरुप है |.........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ



       होली की हार्दिक शुभकामनाएँ !!
     नारायण  नारायण नारायण नारायण नारायण !!!!!

मान-बड़ाई का त्याग -४



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी,मंगलवार, वि०स० २०६९

* मान-बड़ाई का त्याग *

गत ब्लॉग से आगे....... वर्तमान समय में असली श्रद्धा और प्रेम बहुत कम लोगों में देखने को मिलता है, अधिकांश लोगों में श्रद्धा और प्रेम की नक़ल ही देखने को मिलती है | असली श्रद्धा का रूप बाहरी पूजा, नमस्कार, सत्कार आदि नहीं है; ये तो श्रद्धा के बाहरी रूप हैं, शिष्टाचार के अन्तर्गत हैं | ये दिखावटी भी हो सकते हैं | असली श्रद्धा तो श्रद्धेय पुरुष का हृदय से अनुयायी बन जाना, उनकी इच्छा केउनके मन के सर्वथा अनुकूल बन जाना है | सूत्रधार कठपुतली को जिस प्रकार नचाता है, उसी प्रकार वह नाचने लगती है, वह सब प्रकार से नचानेवाले पर ही निर्भर करती है | इसी प्रकार जो श्रद्धेय पुरुष के सर्वथा अनुगत हो जाता है, उसीके इशारे पर चलता है, अपने मनसे कुछ भी नहीं करता, वही सच्चा श्रद्धालु है | श्रद्धेय की आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करना भी ऊँची श्रद्धा का द्योतक है | परन्तु श्रद्धेय को मुँह से कुछ भी न कहना पड़े, उसके इंगितपर ही सब काम होने लगे, उसकी रूचि के अनुकूल सारी क्रिया होने लगेयह और भी ऊँची श्रद्धा है | सच्चे अनुगत पुरुष को छाया के समान व्यवहार करना चाहिए | जिस प्रकार हमारी छाया में, हमारे प्रतिबिम्ब में हमारी प्रत्येक चेष्टा अपने-आप जैसी-की-तैसी उतर आती है, उसी प्रकार श्रद्धेय का प्रत्येक आचरण, उसका प्रत्येक गुण श्रद्धालु के जीवन में उतर आना चाहिए | इस प्रकार जो छाया की भांति श्रद्धेय का अनुसरण करता है, वही सच्चा शरणागत है, उसीकी श्रद्धा परम श्रद्धा है, उच्चतम कोटि की श्रद्धा है | सच्चा श्रद्धालु श्रद्धेय के प्रतिकूल आचरण करना तो दूर रहा, अनुकूलता में रंचमात्र उनकी कमी को भी सहन नहीं कर सकता, संतो की बाहरी पूजा काशिष्टाचार का इतना महत्त्व नहीं है जितना भीतर से उनके अनुकूल बन जाने का | संतों के अनुकूल बन जाना ही उनकी असली पूजा है |.........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!