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श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
* मान-बड़ाई का त्याग *
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कोई यह कह सकते हैं कि सच्चे भगवद्भक्त मान आदि तो बिलकुल नहीं चाहते, न यह चाहते
हैं कि लोग उनके चित्र की पूजा करें, उनके नाम का प्रचार हो अथवा उनकी जीवनी लिखी
जाय; परन्तु सभी भक्त और ज्ञानी यदि इन सब बातों का कड़ाई के साथ विरोध करने लग
जायँ तो फिर अच्छे पुरुषों की जीवनियाँ अथवा स्मारक संसार में मिलने ही कठिन हो
जायँगे, जिससे आगे की पीढ़ियाँ उनसे मिलनेवाले लाभ से सदा के लिए वंचित हो जायँगी,
तो इसका उत्तर यह है कि अच्छे पुरुष इन सब बातों का तनिक भी विचार नहीं करते |
अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करनेवाला क्या कभी यह सोच सकता है कि मेरी
देखा-देखी यदि दूसरे लोग भी स्त्री-सुखका त्याग कर देंगे तो फिर संसार का व्यवहार
कैसे चलेगा, सृष्टि का कार्य ही बंद हो जायगा | ऐसा सोचनेवाला कभी ब्रह्मचर्य
का पालन नहीं कर सकता | इसी प्रकार अच्छे पुरुष यह कभी नहीं सोचते कि यदि हम
पूजा ग्रहण करना छोड़ देंगे तो संसार से महापुरुषों की पूजा की पद्धति ही उठ जायगी
| संसार का व्यवहार तो सदा इसी प्रकार चलता आया है और चलता रहेगा | यदि कोई कहे कि
अबतक के महात्माओं की इच्छा एवं प्रेरणा से ही उनकी जीवनियाँ लिखी गयी हैं अथवा
उनके स्मारकों का निर्माण हुआ है, तो ऐसा कहना अथवा सोचना उन महात्माओं पर झूठा
कलंक लगाना, उनपर व्यर्थ का दोषारोपण करना है | महात्माओं की बात तो अलग रही, ऊँचे
साधक के मन से भी यह वासना हट जाती है; यदि रहती है तो यह मानना चाहिए कि वह
उच्च कोटि का साधक नहीं है | इस सम्बन्ध में यह निश्चित सिद्धान्त मान लेना
चाहिए कि अच्छे पुरुषों के मनमें यह वासना कभी उठती ही नहीं
कि मेरे जीवन-काल में अथवा मरने के बाद लोग मेरे शरीर या मूर्ति की पूजा करें,
मेरे नामका प्रचार हो अथवा मेरी जीवनी लिखी जाय | इस प्रकार की इच्छा का
अच्छे पुरुषों में अत्यन्ताभाव हो जाता है | और महात्माओं
का सच्चा अनुयायी एवं सच्चा श्रद्धालु वही है जो उनके भाव के, उनकी इच्छा के
अनुकूल अपने जीवन को बना लेता है; वही सच्चा शरणापन्न और वही सच्चा भक्त है |
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!