※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 28 मार्च 2013

मान-बड़ाई का त्याग-६


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण प्रथमा ,गुरूवार, वि०स० २०७०
* मान-बड़ाई का त्याग *
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यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि भरतजी का श्रीराम के चरणों में अतिशय प्रेम था तो उनसे श्रीराम का वियोग कैसे सहा गया, श्रीराम के विरह में उन्होंने प्राण क्यों नहीं त्याग दिये, तो इसका उत्तर यह है कि भरतजी श्रीराम के निरे प्रेमी ही न थे, वे उच्च कोटि के श्रद्धालु भी थे  प्रसन्नता में प्रसन्न रहना, प्राणों की बाजी लगाकर भी उनकी आज्ञा का पालन करना उनके जीवन का व्रत था | उनकी इस श्रद्धा ने ही उनके प्राणों की रक्षा की और उन्हें चौदह वर्षतक जीवित रखा | उन्हें विश्वास था कि चौदह वर्ष बीतनेपर श्रीराम से अवश्य भेंट होगी और फिर आजीवन मैं उनके साथ रहूँगा, फिर कभी वे मुझे अलग रहने को नहीं कहेंगे | इसी आशापर वे जीवित रहे | फिर भी उन्हें श्रीराम के वियोग का दुःख कम न था | एक-एक दिन गिनकर उन्होंने चौदह वर्ष व्यतीत किये और विरह-व्यथा में सुखकर वे अत्यन्त कृश हो गये | यही नहीं, चौदह वर्ष बीतने के बाद यदि श्रीराम वनसे लौटनेमें कुछ भी विलम्ब करते तो उनका प्राण बचना कठिन था | इस प्रकार प्रेम की ऊँची-से-ऊँची अवस्था उनके अन्दर व्यक्त थी | साथ ही उनमें श्रद्धा भी कम न थी | इसीलिए उन्होंने सोचा कि जब श्रीराम अपनी इच्छा से वनमें जा रहे हैं तो उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें लौटाने के लिए मुझे अति आग्रह क्यों करना चाहिए | इस प्रकार अतिशय प्रेम के साथ-साथ उनमें श्रद्धा भी उच्चतम कोटि की थी | किन्तु उच्च श्रेणी के प्रेमी अपने प्रेमास्पद की और सब बातें मानते हुए भी कभी-कभी उनके संग के लिए अड़ जाते हैं | संग के लिए उनका इस प्रकार आग्रह करना भी दोषयुक्त नहीं माना जाता | इससे उनकी श्रद्धा में कमी नहीं मानी जाती | सारांश यह है कि प्रेमी किसी भी हेतु से प्रेमास्पद का त्याग नहीं करता | प्रेमास्पद का संग बना रहे, इसके लिए वह कभी-कभी अपने प्रेमास्पद की रूचि की भी उपेक्षा कर देता है | इसके विपरीत, श्रद्धालु अपने श्रद्धेय की रूचि रखने के लिए उनके संग का भी प्रसन्नतापूर्वक त्याग कर देता है; परन्तु उनकी रूचि के प्रतिकूल कोई चेष्टा नहीं करता | प्रेमी को प्रेमास्पद का संग छोड़ने में मृत्यु के समान कष्ट होता है और श्रद्धालु को श्रद्धेय की रूचि के प्रतिकूल आचरण मरण के समान प्रतीत होता है | प्रेमास्पद प्रेम बढ़ाने के लिए यदि प्रेमी को कभी अलग कर देता है तो प्रेमी को उसका वियोग असह्य हो जाता है | इसी प्रकार श्रद्धालु से श्रद्धेय की रूचि का पालन करने में तनिक भी कोर-कसर सहन नहीं होती | सच्चे प्रेम और श्रद्धा का यही स्वरुप है |
 .........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!