※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

गीताप्रेस के संस्थापक श्रीजयदायलजी गोयन्दका-सेठजी का सिद्धान्त

मनुष्य के ऊपर उठने में मान-बड़ाई की इच्छा बहुत बाधक होती है । मरने पर मेरा नाम चले । इसी स्मृति के लिये लोग स्मारक बनाते हैं । यह मामला गड़बड़ मालूम देता है । प्रायः यह बहुतों में ही रहता है । अच्छे अच्छे साधु, नेता इस तरह की व्यवस्था करते है कि स्मृति रहे । यह अन्धकार की बात है ।
कहने का विशेष उद्देश्य यह है कि मैं या भाईजी (श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार) मर जायँ तो पीछे से किसी को हमलोगों के लिये कोई स्मृति या स्मारक नहीं बनवाना चाहिये । मरने के बाद मैं कहने कैसे आऊँगा । अतः अभी से कह देता हूँ । भाईजी के लिये भी मैं कहता हूँ ।
भगवच्चर्चा के लिये यह निषेध नहीं है । व्यक्तिगत नाम और रूप की पूजा की बात है । नाम, रूप तो मिटा ही दे ।
प्रारम्भ में एक दो पुस्तकें तैयार हुईं तो मैंने नाम देने का निषेध किया था । पीछे लेखों में भाईजी ने छाप दिया और लेखों की पुस्तकें बन गयीं । इसके सिवा और किसी रूप में नाम, रूप का प्रचार नहीं होने दें ।
फोटो पूजना रूप की पूजा है । स्मारक बनाना नाम को पूजना है । ज्ञानी या भक्त कोई भी हो, जिनका नाम रूप प्रचलित होता है, लोग कहते हैं, यदि उनका वास्तव में विरोध होता तो उनके अनुयायी लोग उनके नाम, रूप की पूजा क्यों करते ?
हमारे मरने पर कोई हमारे लिये शोक सभा न करे । नाम, रूप कायम रखने की कोई चेष्टा न करे । जो लोग हमारे इस भाव का प्रचार करेंगे वे ही हमारे अनुयायी हैं ।
मंगलनाथ जी में जितनी मेरी श्रेष्ठ बुद्धि थी या है, उतनी मेरे जीवन में किसी जीवित मनुष्य में नहीं हुई । पर मैं उनके नाम या चित्र का प्रचार नहीं करता । उनके सिद्धांतो का प्रचार करता हूँ ।
व्याख्यान के समय उनकी स्मृति हो जाती है, उनकी युक्तियों का खयाल करके बातें भी कही जाती हैं, पर उनके नाम, रूप का प्रचार मैं कभी नहीं करता । उनका जो भाव था, उसी का हमें प्रचार करना चाहिये । यदि यह बात कही जाय कि उनके द्वारा मनाही की बात यों ही कहनामात्र था तो इसमें तीन दोष आते हैं―झूठ, कपट और दम्भ ।
मेरा चित्र मेरे घर में है । यदि मेरा शरीर पहले शांत हो जाय, मेरी स्त्री उसे रखना चाहे तो मेरा विरोध नहीं है, पर चित्र घर के बाहर न निकले । मुझे पूरा भरोसा है कि हरिकृष्ण या शिवदयाल कभी उस चित्र की नकल किसी को नहीं लेने देंगे । एक चित्र श्रीज्वालाप्रसादजी के पास है । उनसे प्राप्त करने की पहले बहुत चेष्टा की गयी पर उनसे बहुत प्रेम था, उन्होंने नहीं दिया, यदि उनसे लिया जाय तो उनको बहुत दुःख होगा । इस कारण विचार होता है ।
प्रश्न― भक्त या ज्ञानी किस दृष्टि से ऐसी बात चाहते हैं ?
उत्तर― भक्त तो अपने स्वामी की ही पूजा चाहता है, उसी के नाम का प्रचार चाहता है । वह नौकर नालायक है, बेईमान है, भगवान को धोखा दे रहा है, जो भगवान के बदले में अपने नाम-रूप को पुजवाता है । मालिक की दुकान पर अपना नाम चलानेवाला नौकर क्या मालिक को अच्छा लग सकता है । भगवान के भक्त को भगवान के नाम, रूप, गुण का प्रचार करना चाहिये ।
मनुष्य के क्षणभंगुर, नाशवान शरीर को पुजवाने से क्या लाभ ? मेरा पाँच वर्ष पहले का चित्र यदि हो तो उसमें और आज के चित्र में कितना अन्तर होगा । ऐसे ही सभी चित्रों में कौन-सा सच्चा है? कोई नहीं ।
भगवान का रूप-नाम कितना मधुर है । यदि पहले जन्म का मेरा चित्र कहीं पूजा जाता हो तो उससे मुझे क्या लाभ हो रहा है । मेरी पुस्तकों में, लेखों में, भगवान विष्णु, राम, कृष्ण की ही प्रशंसा मिलेगी । यदि भक्तों के चित्रों की प्रचार की दृष्टि होती तो मंगलनाथजी महाराज के चित्र का खूब प्रचार करते ।
ज्ञानी की दृष्टि से बतलाया जाता है । पूजन की दृष्टि से पूजे तो उसे छोटा बना रहा है । ज्ञानी तो ब्रह्म ही हो गया, साक्षात परमात्मा हो गया । पूजक लोग उसे छोटा बना रहे हैं । उसे महात्मा कह रहे हैं । उसे ब्रह्म से न्यारा कर रहे हैं । उसके नाम, रूप को ब्रह्म से अलग निकाल रहे हैं ।
महात्मा की दृष्टि से यदि वह अपने नाम, रूप की पूजा चाहता है तो वह ब्रह्म को प्राप्त ही नहीं हुआ । अपने वर्तमान नाम, रूप में उसका अभिमान है, तभी वह उसकी पूजा चाहता है, अन्यथा उसे यही समझना चाहिये कि राम, कृष्ण का नाम, मेरा ही नाम है । उनकी पूजा मेरी ही पूजा है । यदि वह अलग नाम, रूप की पूजा चाहता है तो राम, कृष्ण से अपने को अलग मानता है । यदि मैं जयदयाल के नाम, रूप से आप लोगों का लाभ समझता हूँ, आपको पूजक और अपने को पूज्य समझता हूँ तो देहाभिमान और किसका नाम है ।
स्त्री पति की, पुत्र माता-पिता की पूजा करे, यह लाभ की बात है । परमात्मा सबसे ऊँचे हैं । अपनी श्रद्धा से अपने गुरु को ईश्वर के तुल्य मान सकता है, पर ईश्वर नहीं । अन्यथा यह ईश्वर को मटियामेट करने की-सी बात है । यह सिद्धान्त की बात है । नहीं तो इतने ईश्वर खड़े हो जायँगे कि आपको वास्तविक ईश्वर का पता लगाना कठिन हो जायगा ।
दम्भ-पाखण्ड के पेट में मान-बड़ाई या धन की इच्छा ही है । जितने काम विश्व में भगवान के विरुद्ध हो रहे हैं, उनसे भगवान प्रसन्न नहीं हैं । अधिकार दे दिया । लोग भगवान का दुरुपयोग कर रहे हैं, अतः दण्ड मिलेगा । आगे अधिकार नहीं रहेगा । बंदूक छीन ली जायगी । अच्छा काम करेगा, उसे दुबारा बन्दूक मिल जायगी और पुरस्कार भी मिलेगा ।
हरेक में यह बात आ जानी चाहिये कि भगवान के मन्दिर में भगवान की जगह पर किसी मनुष्य की पूजा करनी यह घृणा करने योग्य बात है । यदि उन महात्माओं ने स्वयं इस प्रकार का प्रचार करवाया है, तब तो वे महात्मा ही नहीं थे । यदि उनके अनुयायियों ने उनकी बात न मानकर यह प्रचार किया है तो उन्होंने उस महात्मा का सिद्धान्त नहीं समझा ।
― परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'
प्रवचन दिनांक― ३०-३-१९४१, प्रातःकाल, श्रीजी का बगीचा, वृन्दावन ।
( 'भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें' पुस्तक से )