※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र [ १४ ]---१


   प्रेमपूर्वक हरिस्मरण ! आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए ! उत्तर इस प्रकार है-------
 गोपियाँ सभी एक श्रेणीकी नहीं थी ! उनमें बहुत-सी गोपियाँ ऐसी थी, जिनमें पूर्णतया निष्कामता आ गयी थी ! निष्काम साधक होता है इसलिये उनके साधन को निष्काम कहा जाता है !
   आपका यह कहना ठीक है कि जबतक मनुष्यका तीनों शरीरोंमें से किसी भी शरीर में अहंभाव रहता है या ममता रहती है, तबतक वह पूर्ण निष्काम नहीं हो सकता ! पर इसका अर्थ यह नहीं कि शरीरमें प्राण रहते कोई साधक कामनारहित जीवन प्राप्त नहीं कर सकता !
    आपकी यह मान्यता कि `कर्ता जो कुछ भी जिस रूप में करता है वह अपने सुख के लियेही करता है`----आपके लिये ठीक हो सकती है, पर सबकी मान्यता एक सी नहीं हो सकती; क्योंकि रूचि; विश्वास और योग्यता के भेदसे मान्यता भिन्न-भिन्न होती है ! सिद्धांत का वर्णन कोई कर नहीं सकता; क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है !
      आपने लिखा कि ` स्वेच्छासे जो कुछ किया जाता है वह अपने सुख के लिये ही किया जाता है !` इसपर यह विचार करना चाहिये कि  स्वेच्छा और कामना में भेद क्या है ! यदि कोई भेद नहीं है तो आपका यह कहाँ इस अंश में ठीक ही है ! पर यदि भेद माना  जाय तो सुखकी कामनाके बिना भी कर्म किया जा सकता है !
      महाराजा रन्तिदेवके विषयमें आपने जो अपनी समझ व्यक्तकी, उस विषय में मैं क्या लिखूँ ! उनका क्या भाव था, वास्तवमें दूसरा नहीं बता सकता ! उपरके व्यवहार से भाव का पूर्णतया पता नहीं चलता ! पर यह अवश्य माना जाता है कि जिसका सब प्राणियों में आत्मभाव हो गया है, जो सब प्राणियोंके हितमें रत है, वह साधारण व्यक्ति नहीं है !
       आपने जो इस विषय की व्याख्या की है वह भौतिक विज्ञानकी दृष्टिसे ठीक है, पर आध्यात्मिक दृष्टि से दूसरी  बात है !

      आपने जो यह लिखा कि `जीव अपनेको जबतक पृथक मानता है इत्यादि` इनपर विचार करना चाहीये ! जीव कौन है ? उसका पृथक मानना क्या है और न मानना क्या है, वह कब तक पृथक मानता रहता है ? शरीर में प्राण रहते हुए यह मान्यता नष्ट हो सकती है या नहीं ? इसपर अपना विचार व्यक्त करें, तब उत्तर दिया जा सकता है !
      आपने पूछा----`प्रेम किससे किया जाता है, अपनेसे छोटेसे या बड़े से ?` इसका उत्तर तो यह है कि प्रेम अपनेसे छोटके साथ भी किया जाता है और बड़े के साथ भी !

      आपने अपनी मान्यता व्यक्त जो यह लिखा कि `कोई भी प्रेमी बिना किसी गुणके या महानता के किसीसे भी प्रेम नहीं करता` सो यह आप मान सकते हैं ! पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह मानना ठीक है, दूसरी सब मान्यताएँ गलत हैं; क्योंकि प्रेमतत्व गहन है !

      आपने लिखा कि `भगवान तो ऐसा कर सकते हैं, किन्तु जीव नहीं कर सकता, जब तक जीव कोटि है तबतक ऐसा नहीं हो सकता` सो जीव कोटि से आपकी क्या परिभाषा है ? यह तो आप ही जानें ! पर प्रेमी लोग तो सबसें प्रेम करते हैं; यह प्रत्यक्ष देखा जाता है !ऐसा न होता तो संत लोग संसारी मनुष्योंके साथ क्यों प्रेम करते ?

        आपने लिखा कि ` गोपियोंने जो भगवान् श्रीकृष्ण के साथ प्रेम किया, वह प्रेम कि परकाष्ठा कही जाती है; किन्तु मानी नहीं जा सकती !` इसका उत्तर तो यही हो सकता है कि आप चाहे न मानें, जिन्होंने कहा है उन्होंने तो मानकर ही कहा है !

    आपने पूछा कि `उनका प्रेम भगवान् श्रीकृष्ण के साथ था या उस परम-तत्व के साथ, जिससे भिन्न कोई दूसरा तत्व नहीं है ?` इसका उत्तर तो यही हो सकता है कि भगवान् श्रीकृष्णसे भिन्न कोई परम तत्व भी है, यह उनकी मान्यता नहीं थी !

     आपने लिखा कि परम तत्व में भेद नहीं है सो परम तत्व क्या है, उसमें किस प्रकार भेद है, किस प्रकार भेद नहीं है, यह अपनी-अपनी मान्यताके अनुसार आचार्यलोग कहते हैं ! पर फिर सभी यह कहते हैं कि वह वाणी, मन और बुद्धि का विषय नहीं है !

    आपने पूछा कि `अभेद में कर्ता नहीं, फिर प्रेम कि कोटि क्या ?` इसका उत्तर बतलाने कि जिम्मेदारी तो आप पर ही आ जाती है; क्योंकि आप पहले स्वीकार कर चुके हैं कि `अपने से छोटके साथ प्रेम भगवान् तो कर सकते हैं, तो क्या भगवान् अपनेको परमतत्व से भिन्न मानते हैं, जिसकी दृष्टि में छोटे बड़े का भेद आपकी मान्यता के अनुसार सिद्ध होता है !

    आपने लिखा कि `यदि भेद है तो कितना ही उच्च प्रेम या प्रेमी क्यों न हो, प्रेमास्पद से अपने को हेय मानकर कुछ कामना अवश्य करेगा !` आपका यह लिखना प्रेमके तत्वको बिना समझे ही हो सकता है !
 शेष भाग अगले ब्लॉग में

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में

सोमवार, 30 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र


पिछला शेषभाग आगे...........

       आपने लिखा कि `जहाँ बुद्धि काम न दे, वहाँ ईश्वरको मान ले` सो ऐसी बात नहीं है ! बुद्धि तो मनुष्य की प्रकृति तक भी नहीं पहुँच पाती, पर उस जड़ प्रकृति को शास्त्रकारों ने ईश्वर नहीं  मान लिया ! उस प्रकृति के आंशिक संचालक और प्रकाशक को भी ईश्वर नहीं माना, ईश्वर का अंश तो माना है ! अत: उसकी सत्ता से ही ईश्वर की सत्ता स्वत: ही सिद्ध हो जाती है !

   अज्ञान का नाम ईश्वर नहीं है ! जो ज्ञान और अज्ञान------दोनों को जानने वाला है, उसे ईश्वर कहते हैं !

  माया की व्याख्या तो श्रीतुलसीदासजी ने इस प्रकार की है----
गोचर  जहँ  लगि  मन  जाई !  सो  सब  माया  जानेहु  भाई !!
               (रामचरितमानस अरण्य० १४/२ )
  अत: जाननेमें न आनेवाली वस्तुका नाम माया नहीं बताया गया है !
  आपने धर्मग्रन्थ और मत-मतान्तरोपर आक्षेप करते हुए लिखा कि `किसकी मान्यता ठीक है, कोई कुछ कहते हैं और कोई कुछ कहते हैं ! यदि ईश्वर होता तो सबका मत एक ही होता !` यहाँ आपको गम्भीरतासे शांतिपूर्वक विचार करना चाहीये ! यह तो हर विचारशील व्यक्तिको मानना ही पड़ेगा कि जिस तत्व को कोई जानना चाहता है, उसके विषयमें पहले कुछ-न-कुछ मानना पडता है और वह मान्यता सत्य न होनेपर भी सत्य का ज्ञान करानेमें हेतु होने के कारण सत्य है ! जैसे--अंग्रेजी लिपिमें k इस आकार को क माना, उसके आगे एक h चिह्न और लगाकर उसे ख मान लिया, इसी प्रकार सब वर्ण और संकेतोंके विषय में समझ लें !उर्दू में दूसरे ही संकेत हैं, बंगला में दूसरे हैं और तमिल, तेलगू आदि दक्षिणी लिपियोंमें दूसरे हैं तथा उन-उन भाषा-भाषियों के लिये अपनी-अपनी भाषा के मान्य हुए ही चिह्न ही सत्य हैं: क्योंकि वे किसी भी जाननेमें आनेवाली वस्तुका ज्ञान करानेमें पुरे सहायक हैं ! यदि ऐसा न माना जाता तो आज जगत में कोई विद्वान हो ही नहीं सकता ! उसी प्रकार परम सत्य तत्व को समझानेके लिये हरेक मतावलम्बीने जो अपने-अपने संकेत बनाये हैं, वे साधकों के लिये पथ-प्रदर्शक होनेके नाते सभी सत्य है ! यध्यपि जितने मत है, सभी मान्यता है, पर बिना मान्यता के हमारा कोई भी छोटे से छोटा काम भी नहीं चलता; फिर ईश्वर के लिये की जानेवाली मान्यता हमें क्यों अखरती है ! क्या छोटी से छोटी वस्तु का ज्ञान कराने के लिये वैज्ञानिकों को विभिन्न संकेतों का आश्रय नहीं लेना पड़ता ? क्या इस कारण को लेकर आविष्कृत वस्तुकी सत्ता स्वीकार नहीं की जा सकती ?

   बीजगणित में तो सारा काम मान्यता के ही आधार पर चलता है तथा वैज्ञानिक अविष्कारोंमें भी मान्यता और बीजगणित का ही आश्रय लेना पड़ता है ! यह सभी वैज्ञानिकों का अनुभव है ! परमसत्य ईश्वरतत्व को जानना कोई साधारण विज्ञान नहीं है ! अत: उसके लिये तरह-तरह की मान्यता भी अनिवार्य है; क्योंकि साधकों की रूचि, योग्यता, बुद्धि और श्रद्धा भिन्न-भिन्न होने से भेद होना अनिवार्य है ! अत: मत-मतान्तरों की अनेकतासे एक ईश्वर का होना असिद्ध नहीं हो सकता ! इसलिये आपका यह लिखना की ईश्वर नाम की कोई वस्तु 
नहीं है, किसी प्रकार भी युक्तिसंगत नहीं, केवल प्रमादमात्र है !   `ईश्वरको न मानने से मनुष्य वाममार्गी, अत्याचारी,व्यभिचारी हो जायगा, समाज भ्रष्ट हो जायगा, इसलिए ईश्वरको मानना चाहिए,` ऐसी बात नहीं है ! जो वस्तु नहीं है उसे मानना तो स्वयं अत्याचार है, उससे अत्याचार आदि का निवारण कैसे होगा ? अत: उपर्युक्त दुर्गुणोंकी नाशक भी सच्ची मान्यता ही हो सकती है और वही बात शास्त्रकारों ने बताई है, मिथ्या कल्पना नहीं है !

     इसी प्रकार धर्म, पुनर्जन्म, मुक्ति आदि कोई भी बात कल्पित या मिथ्या नहीं है ! झूठसे कभी किसीका कोई लाभ नहीं होता, यही निश्चित निर्णय है ! झूठ तो अधर्म है ही, उसे धर्म कैसे कहा जा सकता है ? हमारा धर्मशास्त्र और आध्यात्मिक शास्त्र ढकोसला नहीं है, वास्तविक हानि-लाभको ही समझानेवाला है, अत: यही एकमात्र सुधारका रास्ता है ! आज उसके नामपर दुनियामें दम्भ बढ़ गया है, इसी कारण अनुभवसे रहित नवशिक्षित पाश्चात्य शिक्षाके प्रभावमें आये पुरुषोंको धर्म और ईश्वरपर आक्षेप करने का मौका मिल गया है !  

      आगे चलकर आपने पूजा-पाठ पर आक्षेप किया है, वह भी विचारोंकी कमी का ध्योतक है ! आपको गहराई से विचार करना चाहीये कि क्या ऐसा कोई भी मजदुर या परिश्रम करनेवाला मनुष्य है जिसको चौबीसों घंटे फुरसत ही नहीं है, उसका सब-का-सब समय शरीर-निर्वाह के लिये आवश्यक वस्तुओंके उपार्जनमें ही लग जाता है ! विचार करने पर ऐसा एक भी मनुष्य नहीं मिलेगा ! उसे भगवान् का  भजन-स्मरण और सत्संग-स्वाध्याय के लिये समय चाहे न मिले पर खेलने, मन बहलाने, सिनेमा देखने और अन्यान्य व्यर्थ कामों के लिये तो समय
मिलता ही है ! इसके सिवा हमारे धर्म-शास्त्रों में तो यह भी बताया गया है कि जिस मनुष्यका जो कर्तव्यकर्म है, उसीको ठीक-ठीक उचित रीति से करेक उसके द्वारा ही वह ईश्वर कि पूजा कर सकता है ! अत: इसमे न तो किसी प्रकार का खर्च है न किसी वस्तुकी जरुरत है,न कोई समय की ही आवश्यकता है ! ऐसी पूजा तो हरेक मनुष्य बिना किसी कठिनाई के कर सकता है ! आप गीता तत्वविवेचनी अध्याय १८ श्लोक ४५, ४६ और उसकी टिका को देखिये !

            अत: आपका यह आक्षेप कि `जो धनी-मानी, सेठ-साहूकार निठल्ले  बैठे रहते हैं, उन्हें पूजा-पाठ से मन बहलाना चाहीये `------सर्वथा युक्तिविरुद्ध है; क्योंकि कोई भी मनुष्य आपको ऐसा नहीं मिलेगा जिसको मन बहलाते हुए शान्ति मिल गयी हो ! शान्ति तो मनको भोगकामना से हटाकर भगवान् में लगाने से ही मिलेगी, जो कि सहजमें ही किया जा सकता है !

      आप गीताका नित्य पाठ करते हैं, कल्याण का मनन करते हैं, गायत्री-जप करते हैं यह बड़े सौभाग्य कि बात है ! परंतु गीताके अनुसार अपना जीवन बनाने कि चेष्टा करें ! 



नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में



रविवार, 29 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र



  सादर हरिस्मरण ! आपका पत्र मिला ! समाचार विदित हुए ! आपकी शंकाओं का उत्तर क्रम से निचे लिखा जाता है------
 आपने ईश्वरका अस्तित्व नहीं होने का जो यह कारण बताया कि आज तक कोई उन तक नहीं पहुँच पाया, सो यह आप किस आधार पर लिख रहे हैं ! उनतक पहुँचने के लिये वास्तविक खोजमे लग जाने वालोंमेंसे बहुत-से- लोग वहाँ पहुँचे हैं और आज भी पहुँच सकते है !अत: आपका यह तर्क सर्वथा निराधार है !

   आपने लिखा कि लाखों-करोड़ों वर्षों तक तपस्या करके भी पार नहीं पाया जा सकता ! पर यदि कोई गलत रास्तेसे प्रयास करे या किसी दूसरी वस्तुको पाने के लिये प्रयास करे और वह ईश्वर को न पा सके तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वरं गीतामें तो भगवान्ने स्पष्ट कहा है कि ` साधक पराभक्ति के द्वारा मुझको, मैं जो हूँ और जैसा हूँ तत्व से जान लेता है और फिर मुझमे ही प्रविष्ट हो जाता है ( गीता अ० १८ श्लोक ५५ ) !` तथा वे पहले भी कह आये हैं कि `पहले ज्ञान तपसे पवित्र हुए बहुत-से साधक मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं(गीता ४ ! १० ) !` इस ज्ञान को जानकर सभी मुनि लोग परम सिद्धिको प्राप्त हो चुके हैं इत्यादि ( गीता १४ ! १-२ ) !` अत; आपका यह कहना कि कोई उसे नहीं जान सका, निराधार सिद्ध होता है !

  उसका आदि, अन्त और मध्य न जानने कि जो बात कही गयी है, वह तो उस तत्व को असीम और अनन्त बतानेके लिये है ! वेदोंने जो `नेति-नेति` कहा है, उसका भी यही भाव है को वह जितना बताया गया है उतना ही नहीं है, उससे भी अधिक है ! अत: इससे अभाव सिद्ध नहीं होता !

   आप गंभीरतासे विचार करें ! वैज्ञानिक लोग जो प्रकृतिका अध्ययन करके नये-नये आविष्कार कर रहे हैं, क्या वे कह सकते हैं कि हमने प्रकृति को पूर्णतया जान लिया है, अब कोई आविष्कार शेष नहीं रहा है ? यदि ऐसा नहीं कह सकते तो क्या इतने से मान लेना चाहीये कि उसका अस्तित्व ही नहीं है ?

    बात तो यह है कि किसी भी असीम तत्वकी सीमा कोई निर्धारित नहीं कर सकता ! यदि कोई कहे कि मैं उसे पूर्णतया जान गया तो उस व्यक्तिका ऐसा कहना कहाँ तक उचित होगा ? और इस कसौटी पर असीम तत्व के अस्तित्व को अस्वीकार करना भी कहाँ तक युक्तिसंगत है, इस पर भी आप विचार करें !

    आपने लिखा कि जो है भी और नहीं भी है-----ऐसी ईश्वर कि व्याख्या है, सो ऐसी व्याख्या कहाँ है ? यह कौन कह सकता है कि `अमुक वस्तु नहीं है `, क्योंकि यह निश्चय करने वाला भी कोई सर्वज्ञ ही होना चाहीये ! अमुक वस्तु है या नहीं; ऐसा संदेह तो कोई भी कर सकता है पर नहीं है यह कहने का किसी का भी अधिकार नहीं है ! फिर ईश्वर के बारे में यह कहना कि वह नहीं है-----सर्वथा अनुचित है !

    ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, साकार और निराकार भी है-----यह कहना ठीक है और सर्वथा युक्तिसंगत है ! आपने लिखा कि ईश्वर कुछ नहीं है, केवल कल्पना है; क्योकि सबकुछ का अर्थ कुछ नहीं अर्थात शून्य------होता है, सो ऐसी बात नहीं है; क्योंकि ईश्वर कल्पना से अतीत बताया गया है ! गीता अध्याय ८ श्लोक ९ में उसे अचिन्त्य रूप कहा गया है !
 
    आगे चलकर आपने लिखा कि -क्या जो चैतन्य रूप दिखता है यही यही ईश्वर है ? इसका उत्तर यह है कि जिस हलचल और शक्ति को लक्ष्य करके आपने चैतन्य कि व्याख्या कि है इसका नाम चेतन नहीं है ! शब्द तो आकाश-तत्व का गुण है, शक्ति बिजली का गुण है !वेग वायु का गुण है ! ये सभी जड तत्व हैं ! इनमे कोई भी चैतन्य नहीं है ! चैतन्य तो वह तत्व है, जो इन सबको जनता है और इनका निर्माण भी करता है ! जो वस्तु निर्माण कि जाती है, किसी के द्वारा संचालित होती है, वह चैतन्य कैसे हो सकती है, यदि चैतन्यकि व्याख्या आप ठीक-ठीक समझ पाते तो सम्भव है आपको ईश्वर कि सत्ता का कुछ अनुभव होता !  मनुष्य को ईश्वर का पता लगाने के पहले यह सोचना चाहीये कि मैं जो ईश्वर कि सत्ता है या नहीं इसका निश्चय करना चाहता हूँ, वह मैं कौन हूँ ! जिसमें जानने कि अभिलाषा है और जो अपने-आपको तथा अपनेसे भिन्न को जानता है, प्रकशित करता है, वही चेतन हो सकता है ! यह समझमे आ जाने पर आगेकी खोज आरम्भ होगी !

   आपने कल-कारखानों कि बात लिखी, कोयले और पानी के मिश्रण की, उसकी शक्ति की बातों पर प्रकाश डाला, फिर बिजली की महिमा का वर्णन किया सो तो ठीक है, पर उनका आविष्कार करनेवालों की महिमा की ओर आपका ध्यान नहीं गया ! आप सोचिये, क्या वे कल-कारखाने बिना कर्ताके सहयोग के कुछ भी चमत्कार दिखा सकते है ? यदि नहीं तो विशेषता उनको बनाने और चलानेवालेकी ही सिद्ध हुई !

    आपने मानव-शरीर को पाँच तत्वों से हुआ बताया, यह तो ठीक है ! शरीर तो सभी प्राणियों के पाँच तत्वों से ही बने है ! पर पाँच तत्वों का समूह तो केवलमात्र यह दिखने वाला स्थूल शरीर ही है ! मन, बुद्धि और अहंकार---ये तीन तत्व इसके अन्दर और हैं तथा इन सबको जानने और प्रकाशित करनेवाला एक इनका अधिष्ठाता संचालक भी है ! उसकी और भी आपका ध्यान आकर्षित होना चाहीये ! उसके बिना इन सब तत्वों का कोई भी चमत्कार हो ही नहीं सकता ! वह कौन है ?------- इस पर विचार कीजिये !

   आगे चलकर आपने सूर्य, चन्द्र, तारा आदि के विषयमें विज्ञानके आधारपर लिखा कि ये सब अपने-आप हो रहे हैं, परंतु आपने गहराई से विचार नहीं किया ! करते तो आप यह भी समझ सकते कि कोई भी जड पदार्थ बिना किसी संचालक के बहुत काल तक नियमित-रूपसे नहीं चल सकता ! जितना भी वैज्ञानिक आविष्कार है---जैसे अणु बम, रेडियो, बिजली, और स्टीम से होनेवाले काम, हवाई-जहाज आदि, क्या कोई भी यन्त्र अपने-आप बन जाता है या उसका संचालन अपने-आप हो जाता है ? यदि नहीं तो फिर ये सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, तारा आदि यन्त्र अपने आप कैसे बन गए और अपने-आप  नियमित-रूपमें कैसे संचालित होने लगे ?

शेष भाग क्रमशः


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में

शनिवार, 28 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र


प्रेमपूर्वक हरिस्मरण ! आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए, आपके प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है----
  ( १ ) निर्गुण, सगुण, निराकार और साकार सभी उस परब्रह्म परमात्मा के ही स्वरुप है, अत: जिस साधक का जिस स्वरुप में श्रद्धा-प्रेम हो, जिसकी उपासना वो बिना किसी कठिनाई के कर सकता हो, उसके लिए वो ही ठीक है ! आपने निर्गुण स्वरुप की उपासनाका प्रकार,पूछा, सो यह उपासना ज्ञान मार्ग के द्वारा की जाती है ! निर्गुण की उपासना के लिये सब प्रकार की भोगवासनाका त्याग कर कर्त्तापन के अभिमान से शून्य होना आवश्यक है तथा शरीर में जो मैं और मेरापन है इसका सर्वथा त्याग करना चाहीये ! फिर एक मात्र सच्चिदानन्द
परब्रह्म के चिन्तनमें तल्लीन होकर सब प्रकार के चिन्तनसे रहित हो जाना चाहीये ! उपासना का पूरा प्रकार पत्र द्वारा कहाँ तक समझाया जाय !

  ( २ ) ह्रदय में ध्यान आत्मस्वरूप में मन लगाकर भी किया जाता है, परमात्मा को सर्वव्यापी आकाश की भाँती सर्वत्र परिपूर्ण मानकर भी उसके सच्चिदानंदघन स्वरुप का ध्यान किया जा सकता है ! जिस साधक की जैसी रूचि हो, जैसा विश्वास हो, जैसी योग्यता हो, उसे वैसा ही करना चाहीये !

  ( ३ ) ध्यान करते समय जब तक नामका ज्ञान रहे, तब तक नाम-स्मरण करते रहना चाहीये !

  ( ४ ) नियमितरूपसे एकान्तमें बैठकर सुबह और संध्या के समय तो ध्यान करना ही चाहीये, उसके अतिरिक्त अन्य समयमें भी जब अवकाश मिले, करना चाहीये तथा काम करते समय भी भगवान का स्मरण रखना बहुत अच्छा और आवश्यक है !

  ( ५ ) भगवान् के  ध्यानमें मन का टिकनेका तरीका या साधन पूछा सो पहले यह विचार करना चाहीये की मन क्यूँ नहीं टिकता ? विचार करने पर जो-जो विरोधी कारण समझ में आये उनको दूर करते रहना चाहीये ! मन न टिकने का दू:ख होना चाहीये, मन को ध्यान में टिकाना है- यह उद्देश्य होना चाहीये !भगवान् में प्रेम होने पर भगवान् का ध्यान अपने आप होने लगता है ! अत: जिन-जिन सांसारिक पदार्थों में प्रेम है, जिनको आप सुख का हेतु मानते हैं, जिनके साथ अपनेपन को जोड़ रखा है, उनसे सम्बन्ध-विच्छेद करके भगवान् मेंप्रेम करना चाहीये ! उनको ही अपना परम हितैषी मानना चाहीये ! ऐसा करने से धयान में मन लग सकता है !

 ( ६ ) सगुण स्वरुप की उपासना का तरीका एक नहीं है ! साधकों के श्रद्धा विश्वास प्रेम और योग्यता के भेद से अनेक भेद होते हैं ! आपको अपने लिये जो तरीका सुगम मालूम हो, जिसमें आपका प्रेम हो, जिस पर श्रद्धा -विश्वास हो, वही आपके लिये ठीक है और वही सुगम भी होगा ! सगुण परमेश्वर निराकार भी है और साकार भी ! वह अनन्त दिव्य गुणों से भरपूर है, अनन्त दिव्य सामर्थ्य से संपन्न है और उनका रूप-सौन्दर्य भी परम-दिव्य तथा अलौकिक है, उसका वर्णन लेखनी द्वारा नहीं किया जा सकता ! वह तो उनकी कृपा से ही समझ में आता है, अत: उनकी शरण लेकर लालसापूर्वक उन पर निर्भर होना चाहीये !

 ( ७ ) निर्गुण-उपासक यदि श्रीकृष्ण की मानस पूजा करे तो कोई हानि नहीं हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण और उनके निर्गुण स्वरूपों में कोई भेद नहीं है ! दोनों एक ही हैं ! जो निर्गुण है वही सगुण है और जो सगुण है वही निर्गुण है तथा वही श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होते हैं !

भगवान् श्रीकृष्ण समस्त  ब्रह्मांड में परिपूर्ण है और समस्त ब्रह्मांड ही नहीं करोड़ो ब्रह्मांड उनके एक अंश में स्थित है, ऐसा समझकर उनका ध्यान करना चाहीये !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र


प्रेमपूर्वक हरिस्मरण !
   आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए ! उत्तर इस प्रकार है-------
  आपको झूठ बोलने और पाप करनेमें हिचक नहीं होती और डर नहीं लगता, इसका तो यह कारण है कि उनसे होने वाले परिणामपर आपका विश्वास नहीं है तथा वर्तमान में झूठ बोलकर पाप करके आप किसी-न-किसी प्रकार कि भोग वासनाकी पूर्ति करना चाहते हैं,पर वास्तव में यह बड़ी भरी भूल है ! सुखभोग कि इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती; क्योंकि भोगों कि प्राप्ति इच्छा से नहीं होती ! ये तो कर्मफल के रूप में मिलते हैं और जैसे जैसे मिलते हैं, इच्छा को बढ़ाते रहते हैं; इस परिस्थिति में इच्छा कि पूर्ति कैसे हो ! उसकी तो विचार द्वारा निवृति ही हो सकती है !

  आपने लिखा कि धर्म क्या है और पाप क्या है ? उसका मुझे ज्ञान नहीं है, सो ऐसी बात नहीं है ! ज्ञान तो आपको अवश्य है, पर आप उस ज्ञान का आदर नहीं करते ! आप समझते हैं कि झूठ बोलना बुरा है---पाप है ! झूठ नहीं बोलना चाहीये---ऐसा दूसरोंसे कहते भी हैं !यदि कोई झूठ बोलता है तो उसका झूठ बोलना आपको बुरा भी लगता है, तथापि आप झूठ बोलने के लिये विवश हो जाते हैं, यही अपने ज्ञान का अनादर करना है ! यदि आप जितना जानते हैं, उतने धर्म का पालन करना आरम्भ कर दें तो आवश्यक जानकारी स्वयं प्राप्त हो सकती है; यह भगवत्कृपा कि महिमा है !

 `भगवान क्या है`------यह जानना नहीं बनता, क्योंकि भगवान् मनुष्यकी ज्ञान शक्ति के बाहर हैं ! भगवान् पर तो विश्वास किया जा सकता है, उनको माना जा सकता है, उनकी महिमा और प्रभावका दर्शनकर, सुनकर, समझकर और मानकर उनपर निर्भर हुआ जा सकता है ! ऐसा करनेपर साधक कृतकृत्य हो सकता है; इसमें कोई संदेह नहीं है !

 भगवान् अकारण ही कृपा करनेवाले हैं, यह ध्रुव सत्य है, तभी तो आप और हम सब लोग जो कि उनको नहीं मानते वे भी और जो उनको मानते  हैं वे भी उनकी बनायीं हुई हवा, अग्नि, जल, प्रकाश आदि का बिना ही किसी प्रकार का मूल्य दिये उपभोग कर पाते हैं !यदि वे अकारण कृपालु नहीं होते तो क्या इनपर रोक नहीं लगा देते, क्या टैक्स नहीं बाँध देते, पर वे ऐसा नहीं करते; क्योंकि वे उदारचित्त हैं !

      जो यह बात मान लेता है कि भगवान् अकारण ही कृपालु है, वह तो उन्ही का होकर रहता है, वह फिर उनको भूल ही कैसे सकता है !

      आप लिखते हैं कि मुझे भगवान् को पाने कि इच्छा नहीं है, इससे तो स्पष्ट ही मालूम होता है कि न तो आपको यह विश्वास है कि भगवान् अकारण ही कृपालु हैं, न उनकी महिमाका ज्ञान है और न उनकी सत्तापर ही पूरा विश्वास है; क्योंकि जो यह समझता है कि भगवान् किसको कहते हैं, वे क्या कर सकते हैं, क्या कर रहे हैं. उनमे क्या क्या गुण हैं, उनको प्राप्त होना क्या है ? इस रहस्य को  जानने वाला भला उनको बिना प्राप्त किये कैसे रह सकता है !

    आपको जो यह मान्यता है कि बिना छल, कपट और चालाकिके मुसीबत नहीं टलती, यह सर्वथा निराधार है ! छल, कपट और चालाकी का ही परिणाम मुसीबत है, इसी कारण एक टलती है तो दूसरी आ जाती है ! छल कपट और चालाकी का सर्वथा त्याग कर देने पर ही वास्तव में मुसीबत सदा के लिये ताल जाती है, यह समझना चाहीये !

      आपने लिखा कि मैं क्या हूँ. कौन हूँ यह समझ नहीं आता ! इसका तो अर्थ यह होता है कि वास्तवमें आप इसे समझना ही नहीं चाहते ! मुसीबत जिस पर आती है, जो उसे टालना चाहता है, जिसे मुसीबत का ज्ञान है, वही आप है !

      आपंने  लिखा कि विशम्भर, करुणानिधान, दयासिन्धु, दयालु, प्रभु इस प्रकार के शब्दोंका तो प्रयोग ही नहीं करना चाहीये, क्योंकि ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं -----सो यह आप किस आधार पर लिखते हैं जब कि आपको यही पता नहीं है कि मैं कौन हूँ !

    आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होती, यह तो उचित ही है ! यदि आपकी या इसी प्रकार के भाव वाले अन्य मनुष्यों कि इच्छा पूर्ण होने लगे तो संसार में सारा काम अव्यस्थित हो जाय, क्योंकि आपकी इच्छाओं में तो दुसरोका अहित  और अपना स्वार्थ भरा हुआ है, तभी तो आप पापमय कर्म करते हैं और भले बुरे सभी मनुष्यों कि निंदा करते हैं !

        यदि आपको अपने जीवनसे घृणा होती है, आपके मनमे अपना सुधार करने कि इच्छा होती है तो समझना चाहीये कि भगवान् कि बड़ी कृपा है ! सुधार चाहनेवालेका सुधार होना कठिन नहीं है, दू:खोंसे छूटने का उपाय तो यही ठीक मालूम होता है कि उस दू:खहारी प्रभुकि शरण ग्रहण करके अपने विवेक का आदर करें तथा वह काम जो हम दूसरों से नहीं चाहते ! अर्थात जिसको हम अपने लिये अच्छा समझते है, उसको सबके लिये अच्छा समझें और जिसे हम अपने लिये बुरा समझते हैं, उसे सबके लिये बुरा समझे !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

भगवान् का तत्व समझकर प्रेम करें


प्रवचन ८- ७ -१९४२,  प्रातःकाल, साहेबगंज, गोरखपुर

जो चीज न्याययुक्त प्राप्त हो, वह अमृत है ! गीताप्रेस में हम परिश्रम करके वेतन लेते हैं, वह अमृत है, हम चोरी करके गीताप्रेस की चीज लें तो वह विष है ! न्यायानुकूल लेने से अमृत है, अनुचित लेना विष के सदृश है !
जो जितना पवित्र है उसका दुरूपयोग उतना ज्यादा हानि करनेवाला है ! गंगा पवित्र है ! उनमें गन्दगी करनेसे महान पाप और पुण्य करनेसे ज्यादा लाभ है ! इसी प्रकार अन्य तीर्थोंकी तथा महात्माओं की बात है ! लाभ और हानि दोनों प्रकार से महत्व है ! दुरूपयोगसे हानि और सदुपयोग से लाभ है ! जहाँ नौकरीसे अनुचित रूपसे आमदनी हो, वहाँ नुकसान है ! इसीलिये हम लोग नौकरी नहीं करते, प्रसाद पवित्र करने करने वाला है ! भगवान् की वस्तुमात्र सब पवित्र करनेवाली है ! यदि हम अनुचित रूपसे चोरी करके ले गए तो बहुत हानिकर है !चीज तो भगवान् की, परन्तु वही अनुचित रूप से लेने से नुकसान है ! परमात्मा सबमें है-----
 समोऽहं   सर्वभूतेषु  न  मे  द्वेष्योऽस्ति  न  प्रिय: !
 ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यय्ह्म !!
मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है. परन्तु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमे प्रत्यक्ष प्रकट हूँ !
आकाश की तरह परमात्मा सब भूतों में समान भावसे व्यापक है ! भगवान् कहते हैं कि जो कुछ भी चेष्टा होती है सब मेरी सत्ता से होती है !
  ईश्वर:   सर्वभूतानां    हृद्देशेऽर्जुन   तिष्ठति !
  भ्रामयन्सर्वभूतानि  यन्त्रारूढानि   मायया !!          (गीता १८ / ६१ )
भगवान् सबके ह्रदयमें स्थित हुए उसके कर्मों के अनुसार भ्रमाते हैं ! परमात्मा तो एक हैं परन्तु नाना रूप से दिखते हैं ! जल एक ही है है अनेक रूपमें आता है ! एक ही जल सीपमें मोती और सर्प के मुखमें विष आदि के रूपमें आता है ! इसी प्रकार एक ही परमात्मा पदार्थ के कारण अनेक रूपमें दिखलायी देते हैं ! गीता कहती है---------
    बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते !
    वासुदेव:   सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः !!                 (गीता ७ / १९ )
 बहुत जन्मों के अन्तमें तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है ! वासुदेव के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं इस प्रकार मेरे को भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है !
जैसे यहाँ वस्तु, काठ, पुस्तक, किवाड़ आदि सब अग्नि हो जायगा ! क्योंकि सब एक ही था ! एक मिट्टी ही नाना रूपमें परिणत है ! दरी वृक्ष, पत्थर मिट्टी थे, आखिरमें मिट्टी में मिलेंगे, इसी प्रकार जो कुछ रूप, वस्तु दिखलायी देती है, एक परमात्मा ही अनेक रूप में
परिणत हो जाता है !
जल एक ही है, वही ऊपर बादलके रूप में, वही जल बूंद के रूप में, वही जल जल बर्फमें दिखलायी देता है ! वही भाप बन जाता है ! वास्तवमें एक ही जल अनेक रूपों में दिखलायी देता है ! इस प्रकार एक परमात्मा ही अनेक रूपों में दिखलायी देता है ! सबमें एक परमात्मा को देखना चाहीये ! सब कुछ एक परमात्मा कि लीला है ! जैसे नाटक देखने से सब लोग प्रसन्न होते हैं ! यह तो मनुष्यकृत है और संसाररूपी नाटकको रचनेवाले भगवान् है, सबमें प्रविष्ट हैं ! जैसे बिजली सब जगह है है वैसे ही परमात्मा सब जगह व्यापक हैं !
यदि कहो कि परमात्मा हैं तो दिखलाओ ! परमात्मा का जो सगुण-साकार स्वरुप है वह हमें दिखलायी दे सकता है और भगवान् प्रेमसे प्रकट हो जाते हैं ! वह स्वरुप देखने लायक है और जो निराकार है वह देखने कि चीज नहीं है ! निराकार का भान तो सकता है, प्रेमसे निराकार को भी जान सकते हैं ! तत्वसे समझमें आ सकता है, देखने मे नहीं आ सकता !  
शेष अगले ब्लॉग में......

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........  
भगवत्प्राप्ति कैसे हो ?  श्री जय दयालजी गोयन्दका, कोड १७४७, गीता प्रेस गोरखपुर

बुधवार, 25 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र


शिक्षाप्रद पत्र -२

 सप्रेम राम-राम ! आपका पत्र मिला ! आपने कई शंकाएँ की है, उनका उत्तर क्रमश: इस प्रकार है------
     १ गरीबों को भगवान् ही बनाते हैं, यह आपका लिखना ठीक है ! जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भगवान् भुगतातें हैं एवं  उनकी सेवा करने के लिये भी कहते हैं ! भगवान् ने ही गरीब को बनाया है ! इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेचारे कष्ट पातेरहें एवं उनकी सेवा भी न कि जाय ! सेवा का काम अपने लोगों के जिम्मे है ! जैसे कोई चोरी-डकैती या बदमाशी करता है तो पुलिस द्वारा गवर्नमेंट उसे पर्याप्त मात्रा में दण्ड दिलवाती है ! अगर उस दोषी के कहीं घाव हो जाता है तो मलहम-पट्टी के लिये लिये भी उचित व्यवस्था रहती है ! मार-पीटकर ही नहीं छोड़ दिया जाता ! इसी प्रकार भगवान् उन्हें दण्ड भुगताने के लिये गरीबी देते हैं ! उनकी सेवा का काम दूसरों के जिम्मे है ! जो सेवा करता है, उसे इसका अच्छा फल मिलता है, अत: सेवा करने वाले को तो कर्तव्य समझकर गरीबों कि सेवा ही करनी चाहीये !

   २ आपने मित्र भाव रखने वाले एक व्यक्ति का उदाहरण दिया ! आपने उसे दूकान करवायी और वह सब रूपया लेकर चंपत हो गया, सो मालूम किया ! इस घटना से आपके मन जो यह धारणा हो गयी है कि किसी के साथ भला करने पर भी बुरा ही होता है,यह ठीक नहीं है ! आपके साथ कोई बुराई का व्यवहार करे तो आपको बुरा नहीं मानना चाहीये ! आपको तो उसके साथ अच्छे-से-अच्छा  वयवहार करना चाहीये ! आपको अपने अच्छे कर्मका फल मिलेगा एवं बुरा कर्म करने वाले को पाप भोगना पड़ेगा !

         ` जो तोकूँ काँटा बुवै ताहि बोय तूँ फूल !`
    आपको इस उपर्युक्त पध्यवाक्य के अनुसार ही करना चाहीये ! साथ ही धोखा देनेवालों से सावधान रहना चाहीये ! कोई काँटा बने तो बने, आपको तो फूल ही बनना चाहीये !

  ३ आप कल्याण-अंक तथा गीता प्रेस से पुस्तकें मँगाकर बराबर पढाते हैं, सो बहुत उत्तम बात है ! यह भी लिखा कि संतोष नहीं हो रहा है, सो संतोष हो इसके लिये भगवान् के नाम का जप, स्वरुप का ध्यान, गीता-रामायण का पाठ, स्तुति-प्रार्थना श्रद्धा -भक्तिपूर्वक निष्काम भाव से नित्य-निरन्तर करते रहना चाहीये ! इससे संतोष हो सकता है !
 
  ४ गीता पढ़ने के लिये  आपकी हार्दिक इच्छा है एवं इसके लिये आप प्रयत्नशील भी है, सो उत्तम बात है ! संस्कृत का आप शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते हैं, तो इसके लिये संस्कृत के किसी पंडित से गीता का शुद्ध उच्चारण करना सीख लेना चाहीये ! नहीं तो, संस्कृत श्लोकों को छोड़कर केवल भाषा-ही-भाषा पढ़ लेनी चाहीये !

   आपकी शंकाओं का अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार उत्तर दे दिया गया ! और भी कोई बात आप पूछना चाहें तो तो नि:संकोच पूछ सकते हैं !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में


मंगलवार, 24 जुलाई 2012

अपना जीवन सेवाके लिये है




प्रवचन- दिनांक ८--७--१९४२ सांयकाल, साहबगंज, गोरखपुर !

 दुसरेकी आत्माको सुख पहुँचाने के समान कोई धर्म नहीं है----
पर हित सरिस धर्म नहीं भाई !
पर  पीड़ा    नहीं    अधमाई !!
    अपना सर्वस्व सेवामें लगाये ! भगवान् से सबकी सेवा करने के लिये प्रार्थना करें ! वाणी से नाम का जप, शरीर से सेवा, मनसे ध्यान करे ! अपना जीवन सेवा के लिये है !
   एक महात्मा के पास एक वैश्य गया और उपदेश की प्रार्थना की ! महात्मा ने कहा दू:खी, अनाथ की सेवा करो ! वह वही करता रहा! एक दिन एक गरीब लकड़ी बेचने के लिये आया और धुप के मारे व्याकुल होकर गिर पड़ा ! उस वैश्य ने उसको जल पिलाया, तब उसको होश आया ! उसे भूख लगी थी, चना का सत्तू खाने के लिये दिया, जल पिलाया, वह खाकर, तृप्त होकर लौट गया ! इधर भगवान् प्रकट हो गये !वार माँगने को कहा, उसने कहा आप मिल गये, इससे बढ़कर और वार क्या चाहीये, भगवान् अन्तर्धान हो गये !

  इस समय सब जनता दू:खी है, अत: सब जनता पात्र है ! दू:खी अनाथ कि सेवा से भगवान् दर्शन शीघ्र होता है ! हरेक आदमीको देखकर यह भाव हो कि इसको कैसे सुख हो, किसी से भेंट हो उसको सुख पहुँचाने करे, जिससे भेंट हो वो आनन्दमग्न हो जाय,परमधाम को प्राप्त हो जाय ! दुसरेको सुख कैसे मिले ? इसी प्रकार का व्रत करना चाहिये ! सब जीवों को अभयदान दे, जिससे कोई दू:खी न हो !

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: !
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो    य:    स    च   मे  प्रिय: !!
   
   जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय, और उद्वेगादिकों से रहित है वह भक्त मेरे को प्रिय है ! अपना सर्वस्व नाश हो जाय, परन्तु दूसरे कि सेवा करे, जिस प्रकार हो दूसरे कि सेवा करे ! कभी किसी प्रकार कि कि किसी प्राणीकि हिंसा न करे, अपितु सेवा करे, दूसरे को सुख आराम पहुँचाने कि चेष्टा करनी चाहीये, साथ-साथ भगवान् का ध्यान करे ! जिसका यह भाव रहता है कि सबका कल्याण हो जाय, उसको मुक्ति का अधिकार
मिल जाता है !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]

सोमवार, 23 जुलाई 2012

व्यवहार में विसमता का त्याग

व्यवहार  में विसमता का त्याग

जिनके अच्छे आचरण हो , उन्हें भगवान् भी चाहते है के ऐसा व्यक्ति मेरे धाम   में आये | अच्छे आचरण वाले भगवान् के धाम में जाते है, अत एव हमे अच्छे आचरण बनाने चाहिए | भगवान् के यहाँ ऐसे व्यवस्था है के वहा बुरे आचरण वाले नहीं जा सकते |

स्त्रियों  को चाहिए की घर में उनकी विसम्ता है, उसे दूर करे | लड़का और लड़की में पहले छोटी अवस्था में जब तक लड़के का विवाह नहीं होता है, तब तक लड़के से  विशेष प्रेम रहता है और लड़की से कम | जब लड़के का विवाह हो जाता है तो  लड़के से प्रेम घट कर विवाहित लड़की से प्रेम बढ जाता है | लड़की को घरवालो से छिपा कर गुप्त रूप से देना बुरी आदत है, अत एव लड़की के अपेक्षा लड़के के बहु पर जायदा प्रेम रखना चाहिए, अन्यथा वह बहु लड़के के सामने शिकायत करके लड़के को भी विरुद्ध बना देती है और सारे घर में कलह रहता है |

वधु को भी चाहिए की  सास की  कोई  बात  अपने पीहर वाले से नहीं कहे  और न पति से कहे | यदि माता का प्रेम लड़की पर अधिक रहे और छिप छिप करके दे तो लड़के और लड़के की बहु ऐसा कहने लगते है के कब यह लड़की अपने ससुराल जाये |  पुत्र वधु को चाहिये के सास और ससुर के सेवा तन, मन से करे | सेवा में उनको मुग्ध कर दे |पिता और पुत्र को भी अपना सुधार करना चाहिए | आपस में प्रेम बढाना चाहिए |

*************************************************************************
प्रवचन दिनक २५\४\१९४७, प्रातकाल  ७ बजे , वट व्रक्ष, स्वर्गाश्रम  
************************************************************************

रविवार, 22 जुलाई 2012

ज्ञान की भूमिका

ज्ञान की  भूमिका
परमात्मा 'स्व' है | उसमे जिसकी स्थिती है, वह स्वस्थ्य है | परमात्मा के प्राप्ति असली स्वराज्य है | जितने विकार है, वे सब शरीर में है , उसमे नहीं है |क्युकी वह परमात्मा में स्थित है,  शरीर के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है |

ज्ञान के चौथी भूमिका में अन्तकरण में अन्तकरण के सहित संसार और शारीर स्वपन्वत है | पाँचवी भूमिका में स्वपन्वत भी प्रतीत नहीं होता सुसुप्तिवत प्रतीत होता है | परम उपरति होती है | किसी किसी समय देह में होश रहे, तब व्युथान अवस्था है, होश नहीं हो तो समाधी अवस्था है |व्युथान अवस्था में संसार स्वप्नवत  रहता है | छटी भूमिका में गाढ़ सुसुप्तिवत रहता हाउ | संसार रहता है, कोई आदमी उसे होश कराये तो वह जग जाता है | उसकी स्थिती  ब्रह्म में तन्मय है | निद्रा और समाधी अवस्था की बाहरी स्थिती एक सी है; परन्तु अंतर है | गाढ़ निंद्रा वाले की स्थिती तमोगुण में है और इस्म्की परमात्मा में है |

सातवी भूमिका  सन्निपात रोग के सामान है उसे किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता | उसको चाहे काट डालो उसको पता नहीं | इतना अंतर है  के सनिपात रोग में तमोगुण है इसमें तमोगुण नहीं है, परमात्मा में स्तिथी है | मन अहंकार में, अहंकार बुद्धि में , बुद्धि प्रकृति में विलीन हो जाती है और आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाता है |

पहली, दूसरी और तीसरी भूमिका की अवस्था साधक की कही जाती है | उसका अंत कारन के साथ सम्बन्ध है | चौथी भूमिका से सातवी भूमिका तक अन्तकरण के अवस्था के कोई कीमत नहीं है | मेरी मान्यता में चौथी भूमिका में स्तिथ हो जाने के बाद सातवी भूमिका का कोई विसेस मूल्य नहीं रहता है | चाहे चौथी भूमिका में जाओ या पांचवी भूमिका में | मुर्दा होने पर उसे चाहो उसे गाडो ,काटो,चाहे पड़ा रखो, मुर्दे को तो कोई आपति नहीं | जीवन्मुक्त का सरीर मुर्दे के तुल्य है | इन्द्रिय मन भी मुर्दे के तुल्य है | उसका इनके साथ सम्बन्ध नहीं रहता |

शारीर  रहते हुए सायुज्य मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है | अपनी धारणा  के अनुसार सगुन भगवान् में विलीन होना परमात्मा के प्राप्ति है |जो निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त होता है , वह भी अपनी मान्यता के अनुसार होता है , उसके बाद असली की प्राप्ति होती है | परमात्मा के प्राप्ति होने के बाद कर्म हो, नहीं भी हो | कर्म हो तो भी कर्ता नहीं कर्म के संज्ञा मात्र है | जो सालोक्य मुक्ति को प्राप्त कर गया है और जो सायुज्य मुक्ति को प्राप्त हो गया है- इनमे कोई अंतर नहीं | अन्तकरण का अंतर रहता है | उनमे अंतर नहीं |

*******************************************************************
प्रवचन दिनांक २४\४\१९४७ , सायकाल ६ बजे , वट वृक्ष , ऋषिकेश
********************************************************************
जयदयाल जी गोयन्दका, साधन की आवश्यकता , पुस्तक कोड ११५० , गीता प्रेस गोरख पुर ,
***********************************************************************



शनिवार, 21 जुलाई 2012

अभ्यास और वैराग्य

अभ्यास और वैराग्य

मन संसार के पदार्थों में जा रहा है, क्योकि   उनमे आसक्ति है | मन को रोकने वाली चीज है वैराग्य  | भगवान् ने गीता में यही बतलाया है - परन्तु हे कुंती पुत्र अर्जुन ! यह मन अभ्यास और वैराग्य  से वश    में होता है | महर्षि  पतंजली भी कहते है - अभ्यास और वैराग्य से मन वश में होता है | मन से बुधि  बलवान है, बुधि से बलवान तथा परे आत्मा है, भगवान् उपदेश देते है की आत्मा सबसे परे है, ऐसा समझ कर मन को वश में करे | अभ्यास और वैराग्य यह दो ऐसे चीज है जो मन को रोक सकती है |
बुधि के विवेक विचार से मन वश में आ सकता है | विवेकपूर्वक अभ्यास से मन वश में आ सकता है | जैसे एक मतवाला हाथी एक अंकुश से वश में होता है, उसी प्रकार विवेकपूर्वक अभ्यास वैराग्य हो तो मन वश में हो जाता है |

 प्रश्न :- कुबुद्धि होने में क्या कारण है ?
उत्तर :- कुसंग से कुबुद्धि   हो जाती है | जैसा करे संग वैसा चढ़े रंग, अत एव संग प्रधान है | अभ्यास का स्वरुप भगवान् ने इस प्रकार बतलाया है | (गीता ६/२६) यह स्थिर न रहने वाला चंचल मन जिस जिस शब्दादि विषय के निमित्त संसार में विचरता है, उस उस विषय से रोक कर यानि हटा कर इसे बार-बार परमात्मा में  ही निरुद्ध करे |
ऐसा अभ्यास करते करते मन को वह चीज अच्छी लगने लगती है | बच्चा पढने जाता है तो पहले उसकी श्रद्धा    रूचि नहीं होती | माता पिता जबरदस्ती समझा-बुझा कर पढ़ाते  है तो कुछ काल में उसकी रूचि होने लगती है , फिर पढने वालो का संग करने लगता है | जब उसकी रूचि हो जाती है तो उसको रोकने पर भी नहीं  रुकता |
इसी प्रकार भगवान् गुरु है, उनके पास बुद्धि माँ है, जीवात्मा पिता है, ह्रदय पाठशाला है और मन बालक है | जब अभ्यास हो जाता है तो कोशिश करने पर भी वह संसार में जाना नहीं चाहता | यह समझना चाहिए के विषयभोग में जो सुख है उससे ज्यादा सुख वैराग्य में है | वैराग्य से बढ़ कर परमात्मा के ध्यान  में सुख है | परमात्मा के ध्यान से बढ़कर परमात्मा के प्राप्ति में सुख है | इस प्रकार आत्मा और बुद्धि रुपी माता पिता अपने मन रुपी बालक को समझाये | मन को कोई अभ्यास कराये तो करते करते उसको वह अच्छा लगने लगता है | अभी संसार में प्रीती है, संसार अच्छा लग रहा है, संसार अच्छा लगे यह कोशिश कर रखी  है | जब यह ज्ञान हो जायेगा के संसार के प्रीती में खतरा है तो उसकी तरफ नहीं जायेगा | अत एव अभ्यास प्रधान है , इसमें संग भी प्रधान है | एकांतवास , भगवान् के नामका जप, भगवान् के स्वरुप का धयान सबसे बढ़ कर है |

सत्संग अच्छी चीज है | हमारे ऋषि मुनियों ने एकांत में रह कर ध्यान तथा समाधी लगायी तो लग गयी | शास्त्रों में, इतिहास में यही बात मिलती है | संसार के पुरुषो का संग हे संसार में आसक्ति को बढाने  वाला है | विचार करके देखे के स्त्री का संग करना ख़राब है, पर जब संग प्राप्त हो तो वृति उधर चली जाती है | विषयचिन्तन से उधर प्रीती हो जाती है |

(गीता २| ६२-६३) विषयो का चिंतन करने वाले पुरुष के उन विषयो में आसक्ति हो जाती है , आसक्ति से उन विषयो के कामना उत्पन्न होती है और कामना में  विघ्न पडने से क्रोध उत्पन होता है |
क्रोध से अत्यंत मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है , स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि नाश होने जाने से यह पुरुष अपनी स्तिथि से गिर जाता है |

नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
*******************************************************
प्रवचन दिनांक २6\४\१९४७ , सायकाल ६ बजे , वट वृक्ष , ऋषिकेश
********************************************************
जयदयाल जी गोयन्दका, साधन की आवश्यकता , पुस्तक कोड ११५० , गीता प्रेस गोरख पुर ,
***************************************************************

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

जीवन-सुधार की बातें



पिछला शेष भाग आगे .........

अश्वत्थमेनं     सुविरूढमूलमसङगशस्त्रेण    दृढेन छित्वा !!
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: !
तमेव   चाध्यं  पुरुषं    प्रपध्ये  यत:  प्रवृति:  प्रसूता पुराणी !!
                                                            (गीता १५ ३-४ )
      डेढ़ श्लोक पर्याप्त है ! क्या कहते हैं ? संसार रूपी वृक्ष को दृढ वैराग्य रूप शस्त्र से कट डालो ! यह वृक्ष बड़ा दृढ है, इसकी जड़े भी जम गयी है इसको काट डालो ! काटना क्या ? भुला दो संकल्प रहित हो जाओ ! तीव्र वैराग्य का फल उपरति है !
  संकल्प रहित होने के बाद उप पद की खोज करनी चाहीये जिसको पाकर फिर लौट कर नहीं आयें ! वह पद कैसे मिले ? उस आदि पुरुष की मैं शरण हूँ ! जिस परमात्मासे चिरकाल से यह संसार विस्तार को प्राप्त हुआ है, इस भाव से उसका अन्वेषण करना चाहीये !
  संसार को हटा देना, परमात्मा की शरण होना यह भक्ति का मार्ग है ! ऐसे ही ज्ञान का मार्ग है-----------
  शनै:         शनैरुपरमेदबुद्धया        धृतिगृहीतया !
  आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत !!
                                     (गीता ६ / २५ )
     क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मनको परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे !
 धैर्य धारण की हुई बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में लगा दो, फिर किसी का चिन्तन करो ही मत ! ऐसा नहीं हो सके तो जो प्रतीत हो वह परमात्मा का स्वरुप है !
 बहिरन्तश्च     भूतानामचरं      चरमेव     च !
 सुक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् !!
                                 (गीता १३ / १५ )
     वह चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चार-अचररूप भी वही है ! वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित वही है !
     वह जो परमात्मा का स्वरुप है जिनके श्रद्धा प्रेम नहीं है उनके समझ में नहीं आता, जिनके श्रद्धा प्रेम है उनके निकट है ऐसा समझकर सर्वत्र परमात्मा को देखो !
  बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपध्य्ते !
  वासुदेव:   सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः !!
                                  (गीता ७ / १९ )
     यह ज्ञान के मार्ग में भी चलता है भक्ति के मार्ग में भी ! भक्ति मार्ग में सब चराचर परमात्मा का स्वरुप है ! मैं उसका सेवक हूँ !
  यह चराचर जो नाना रूपसे आपको दिख रहा है यह तत्व समझ में आने से परमात्मा के रूप में दिखने लगेगा !
  यह घट-पट आदि क्या है ? सब मिट्टी  है ! आग लगाओ सब मिट्टी सब मिट्टी जायगी ! मूल देखो मिट्टी, अंत देखो मिट्टी !
  इसी प्रकार जो संसार है उसमें मूलमें परमात्मा, अन्तमें भी परमात्मा तो बीचमें भी परमात्मा ही है !
  गहनों का नाम अलग अलग है किन्तु वास्तव में सोना ही है !

   जब आपको यह ज्ञान हो जायेगा तो परमात्मा ही परमात्मा दिखेगा ! जो जल का तत्व समझता है उसे बूंद, बर्फ, बादल सब जल-ही-जल दिखता है ! सोने का तत्व जो समझ जाता है उसे सब गहनों में स्वर्ण-ही-स्वर्ण दीखता है ! इसी प्रकार जो परमात्मा के तत्व को समझ जाता है उसे परमात्मा-ही-परमात्मा दीखते हैं ! आनन्दमय ! आनन्दमय ! आनन्दमय !
    प्रत्यक्ष देखो कैसा आनन्द है, कैसी शान्ति है ! नेत्रों को बंद करनेपर भी प्रकाश दीखता है हमारे बाहर-भीतर जो चेतनता है यह परमात्माका निराकार स्वरुप है ! वे विज्ञानानन्दघन परमात्मा बहार-भीतर सब जगह परिपूर्ण हो रहे हैं ! मनुष्य हरे रंग का चश्मा चढ़ा लेता  है तो सारा संसार हरा दिखने लग जाता है ! आप इसी प्रकार बुद्धि पर हरिके रंगका चश्मा चढ़ा लें तो सारा संसार हरिमय दीखने लगेगा !
   यह तो मान्यता की बात है और जब वास्तव में अनुभव हो जाता है तब तो प्रत्यक्ष परमात्मा दीखने लग जाते हैं, फिर कण-कण में परमात्मा का दर्शन होता है ! कोई भी जगह खाली नहीं जहाँ वह न दिखें !
 
  गम्भीरतासे विचारने पर सारे   आभूषण स्वर्ण है ! इसी प्रकार गंभीरतापूर्वक विचारने से सब जगह परमात्मा दीखने लग जाते हैं ! वे परमात्मा ही नाना रूपोंमें लीला कर रहे हैं !
  
            नारायण       नारायण    नारायण
 आनन्दमय पूर्ण आनन्द नित्य आनन्द ही आनन्द
  शान्ति शान्ति शान्ति





गुरुवार, 19 जुलाई 2012

जीवन-सुधार की बातें



पिछला शेष आगे...............

     सबसे बढ़कर एक नियम आपको बताया जाता है उसका यदि पालन कर ले तो सब काम सिद्ध हो सकता है !

     एक और तो सारा संसार और एक और भगवान है ! यह नियम कर लेना चाहीये की संसार का त्याग कर देना, किन्तु भगवान का त्याग नहीं करना, बुद्धिसे, मन से, वाणी से भगवान् को छोड़ना ही नहीं !

      बुद्धि से पकड़ना कैसे ? भगवान् सब जगह मौजूद है ! इस प्रकार बुद्धि से निश्चय करना बुद्धि से पकड़ना है ! निश्चय के अनुसार ध्यान करना मन से पकड़ना है ! मन से पकड़ना कैसे है ?

       आप राम के उपासक हो तो बालकाण्ड से लेकर अन्त तक भगवान् की लीला रोज देख जाओ ! कृष्ण के उपासक हो तो कृष्ण की लीला देखो ! चरित्र के साथ गुण, प्रभाव है ही, स्वरुप भी है ही ! बड़ा सरल काम है, लीला देखते रहो ! अभी तो तुम अपनी लीला देखते हो,उसे छोड़ो, प्रभु की लीला देखो यह मनसे पकड़ना है !

        वाणी से पकड़ना है उनके नाम और गुणोंका उच्चारण !

        श्वाससे पकड़ना है उनके नामको जपते रहना, कानों से पकड़ना है उनके गुणों को सुनाता ही रहे ! तुम्हारे पास पकड़ने के कितने द्वार है ? बारह द्वार है, दस इन्द्रियां दो मन बुद्धि ! इनसे भगवान् को बांधो ! बारह साधनों के रहते हुये भी तुम उन्हें नहीं बांध रहे हो यह तुम्हारी मूर्खता है ! भगवान् तुम्हारे पंजे में आ गये ! तुम पशु पक्षियों को बांध रहे हो, इनको बांधोगे तो तुम पशु पक्षी ही बनोगे ! यह तुम्हारा संसार है इसे घटाओ !वेदान्तियो ने संसार को हटा कर सच्चिदानंद ब्रह्मा की स्थापना की, यह भी ठीक है ! तुम्हारे लिये तो
बड़ा सरल है ! सूरदासजी ने तो भगवान् को चैलैंज दे दिया -

        बाँह छुड़ाये जात हो निबल जानि में मोहि !
        हिरदे से  जब  जाहुगे  पुरुष  बदौंगो तोहि !!

         भगवान् को ध्यान से पकड़ो, ध्यान से नहीं पकड़ो तो बुद्धि के निश्चय से पकड़ो, बुद्धि से नहीं पकड़ सको तो श्वास से पकड़ो ! श्वास के साथ नाम को जोड़ दो ! श्वास से नहीं पकड़ सको तो वाणी से पकड़ो ! नेत्रों से मूर्ति का दर्शन करो ! नेत्र, वाणी, बुद्धि से भी नहीं पकड़ सको तो उनके स्वरुप की पूजा करो ! यदि यह भी नहीं कर सको तो कुछ तो करो, और कुछ नहीं तो हर समय नमस्कार ही करते रहो, नमस्कार करते हुये जाओगे तो भी बेड़ा पार है !

          नमस्कार करोगे तो स्मृति तो होगी ही कि किसको नमस्कार करते हैं ! बस बेड़ा पार है-------
         अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम !
          य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय: !!
                                                (गीता ८ / ५ )
         जो पुरुष अन्तकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुवा शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरुप को प्राप्त होता है - इसमे कुछ भी संशय नहीं है !

          मरने के समय जो इस प्रकार हाथ जोड़ता हुवा जाता है समझना चाहीये उसके भीतर भगवान् की स्मृति है ! किसी भी तरह भगवान् को नहीं छोड़ना चाहीये और एक मदद की बात इसमे है ! भगवान् कहते हैं जो मुझे नहीं छोड़ता मैं उसे नहीं छोड़ता !
           यो मां  पश्यति  सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति !
           तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति !!
                                             (गीता ६ / ३० )

          जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों मे सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों  को मुझ वासुदेव के  अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता !

          धर्म की यदि प्रतिज्ञा है, मरने के बाद भी धर्म साथ मे रहता है ! महात्मा पुरुष भी छोड़ना नहीं जानते, पकड़ना जानते हैं ! ईश्वर, धर्म, महात्मा किसी को नहीं छोड़ते, इनको पकड़ लिया तो पकड़ लिया, छोड़ना नहीं, यह नियम निभाना चाहीये !
          ईश्वर को पकड़ लिया है ! यहाँ आये हैं तो पकड़ा ही है, इसे छोड़ें नहीं ! नियम ले लो की अपनी शक्ति भर नहीं छोड़ेंगे ! कमी जो रहेगी उसके लिये प्रार्थना करें, भगवान् कमी की पूर्ति करते हैं !
         अनन्याश्चिन्तयन्तो  मां ये जना: पर्युपासते !
          तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यह्म !!
                                               (गीता ९ / २२ )
         जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ !

           कमी रहेगी उसकी वे पूर्ति कर देंगे, उसके लिये कोई चिन्ता की बात नहीं है ! भगवान् गीता में कहते हैं एक को हटाओ, एक को बैठाओ ! अभिप्राय क्या है ? संसार को हटाओ भगवान् को बैठाओ ! असली बात इतनी ही है !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में




बुधवार, 18 जुलाई 2012

जीवन-सुधार की बातें



     प्रह्लादको कितना कष्ट दिया गया, उनकी माँग एक ही थी भगवान् की भक्ति ! पिता कहता है कि इसको छोड़ दो,  परन्तु उन्होंने नहीं छोड़ा ! हमारी एक ही माँग होनी चाहीये भगवान् के दर्शन की, प्रहलाद की तरह हठ होना चाहीये- इसीका का नाम सत्याग्रह है !दुनिया में जो लोग सत्याग्रह करते हैं वह तो दुराग्रह है ! सत् परमात्मा है, उसके लिये आग्रह ही सत्याग्रह है ! सच्चे स्वराज्य के लिये परिश्रम करना चाहीये, सच्चा स्वराज्य मिले तो झूठा स्वराज्य इसके अंतर्गत है ! बड़े बड़े चक्रवर्ती राजा उनके चरणों में लेटा करते थे जिनके हाथ में सच्चा स्वराज्य था ! जिनको परमात्मा की प्राप्ति हो गयी है उनके पास ही सच्चा स्वराज्य है ! जब आपको सच्चा स्वराज्य मिल जायेगा तो बड़े बड़े राजा महाराजा आपके चरणों की धूलि की आकांक्षा करेंगे ! लोग आपके चरणों की धूलि की आकांक्षा करें इसके लिये आपको वह प्राप्त नहीं करना है !

     आपको मैले की तरह मान-बडाई, प्रतिष्ठा को फेंक देना चाहीये ! जहाँ मन-बडाई, प्रतिष्ठा मिले उस स्थान में हम नहीं जायें ! जिस प्रकार मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा को अपना रखा है, उस तरह प्रभु को अपनाना चाहीये ! वे खड़े हैं तुम्हारी चिरोरी कर रहे हैं कि यह स्थान दे तो मैं इसके ह्रदय में बैठूँ ! प्रभु को ह्रदय में बसाओ, यह सब नियमों का सरदार है ! कुछ छोटे छोटे नियम बताये जाते हैं !

     १ भोजन करने के समय जो कुछ प्राप्त हो जाये, मन ही मन सें उसे भगवान के समर्पण करना चाहीये ! उस समय जो कुछ मिल गया वही प्रसाद है, फिर दुबारा नहीं लें ! नमक आदि कम है, जो कुछ है वह प्रसाद है ! अब प्रसाद को बिगाड़ो मत, जैसे खीर में धुल डालनी है ऐसे उस प्रसाद में नमक डालना है ! चीज  भी घर में चाहे ५० तरह कि बने एक ही लें तो उत्तम है, अन्यथा २ ले लें ! यदि ३ चीजें ले तो कामचोरी कि बात है, दूध और  गंगाजल तो खुला है ! यह बाहर का नियम है ! किन्तु इससें बड़ी रक्षा होती है ! संयम करना चाहीये !

    २ जिनके यज्ञोपवीत है बन सके तो सूर्योदय के पूर्व तथा सूर्यास्त के पूर्व संध्या करनी चाहीये ! समय का बड़ा महत्व है ! महाभारत में जरत्कारू कि कथा है ! जरत्कारू ने कहा - मैं ठीक समय पर उपासना करता हूँ ! जब तक मैं सूर्य कि उपासना नहीं कर लूँगा तब तक क्या सूर्य अस्ताचल को जा सकते हैं ? नहीं जा सकते !

     संध्योपासन क्या है ? ईश्वर कि उपासना है ! उसमे यदि साथ में प्रेम हो तो भगवान को उसी समय आना पड़े, किन्तु प्रेम दुरी कि बात है ! नियम, समय और प्रेम तीन चीजें है, नियम का मतलब नित्य करना ठीक समय पर करना. दो काम हो जाय तो पीछे प्रेम रह जाता है ! पैंसठ पैसा काम हो गया, पैंतीस पैसा काम बाकी रहा !

      सूर्य भगवान के उदय होते समय हम प्रेम से पुष्पांजलि के लिये खड़े हैं, उदय होते ही हमने पुष्पांजलि दे दी, भगवान सूर्य प्रसन्न हो जाते हैं ! मरने के समय हम सूर्य भगवान सें प्रार्थना करें - हे सूर्य देव ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, मेरे लिये वह मार्ग दीजिये  जिससे अर्चिमार्ग कहते है, मैं परमात्मा के दर्शन कि इच्छा करता हूँ, उनके दर्शन के लिये द्वार खोल दें तो सूर्य भगवान प्रार्थना सुन लेते हैं ! यदि हमारा प्रेम हो जाय तब तो भगवान यहीं आकार मिल जायें ! गायत्री मंत्र में और क्या बात है ?

      स्तुति, ध्यान, प्रार्थना तीन चीजें है ! एक ही जगह तीन चीज किसी मंत्र में नहीं है ! गायत्री मंत्र में स्तुति है और ध्यान है ! भगवान के तेज का वर्णन है ! उनका ध्यम करते हैं ! ध्यान करने के बाद मांग पेश करते हैं, याचना भी बहुत उच्च कोटि कि है ! इस प्रकार समझकर हम गायत्री का जप करें तो बेड़ा पार है ! गायत्री के अर्थ कि और ध्यान रखें या उसके अर्थस्वरूप भगवान हैं, उनका ध्यान करें ! आप हजार गायत्री मंत्र जप करते हैं, किन्तु इस प्रकार आप दस  मंत्र का जप करें तो दस मंत्र हजार से बढ़कर हैं ! बीस वर्ष से आप जप करते हैं भगवान नहीं मिले ! तुम्हारा मन संसार में डोलता है तो तुम भी संसार में डोलोगे ! गायत्री मंत्र आप इस तरह जपें तो थोड़े ही समय में आपका कल्याण हो सकता है ! सन्ध्या में नियम, समय और प्रेम तीनो ही शामिल हो तो भगवान तुरंत मिलेंगे ! तीनों नहीं हो,  दो ही हो तो कभी तो मिलेंगे ही !

        आप गीता पाठ करते हैं ! पाठ करते समय मुग्ध हो जाना चाहीये और अर्थ का जो भाव है उसके रंग में रंग जाना चाहीये ! आप भगवान के किसी भी नाम का जप करते है, नाम जप के साथ स्वरुप का ध्यान भी करना चाहीये तथा गुण, प्रभाव कि और भी दृष्टि डालनी चाहीये ! आप एक घंटा भगवान का भजन करते हैं ! इस प्रकार करने सें २ घंटा लगे तो लगाने दो ! इस प्रकार ही करो ! आपके दस माला फेरने का या आठ माला फेरने का नियम ले रखा है, वह चाहे कमती हो इस प्रकार करो !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में ....


मंगलवार, 17 जुलाई 2012

सात्विक दान


प्रवचन दिनांक २३\४\७४, प्रात काल ७ बजे , वट वृक्ष , स्वर्गाश्रम
सात्विक दान

         मनुष्य मन और शरीर के अनुकूल जो बात पड़ती है , उसको करना चाहता है | तीर्थ करने में शरीर का परिश्रम ज्यादा है | सत्संग का प्रकरण भी तीर्थो में कम मिलता है यहाँ ज्यादा मिल जाये, यही सब बात सोचकर मैं यही रहता हु | दुसरे भाइयों   को यदि तीर्थ में भजन, भाव महात्म्य का लक्ष्य दिखे तो उन्हें वहाँ जाना चाहिए | कोई तीर्थो में जाने के लिए पूछे तो उत्तम बता देते है | मैं नहीं जा सकूँ तो तुम्हे यह क्यों कहूँ की तुम मत जाओ | ज्यादातर मेरा ध्यान यही आने का रहता है | तीर्थ बड़े अच्छे स्थान है , पुजारी, पण्डों ने गडबड़ी कर रखी है | उनको देने में मेरी इच्छा कम रहती है | मैं समझ  लूँ की यह पण्डा अच्छा है तो सत्कार करता हूँ | जिन पंडो का धन बर्बाद होता हो वह मैं नहीं देता | जिस मंदिर का धन बर्बाद होता हो वहाँ मैं नहीं देता | कही कही महन्त को देना पड़े तो वह अपनी गरज से है |
           तीर्थो की , मंदिरों की प्रणाली चलायी, वह अच्छी है, परन्तु पण्डो ने, महंतो  गडबड़ी मचाई है | आज कल के समय में ऐसे बहुत कम मंदिर है जहा चढ़ावा उचित काम में आता है | मैं तो मंदिर में फूल लेकर जाता हु | भगवान् तो पात्र पुष्प से प्रसन्न होते है | ठाकुर जी को चढाओ तो पुष्प चढा दो | कोई कोई जगह पात्र और गरज हो तो धन भी दे सकते है | वह देना भक्ति और श्रद्धा से नहीं है |
           भूखे को अन्न , आवश्यकता वाले को कपड़ा, पुस्तकों के आभाव वाले को पुस्तके देनी चाहिए | दान देना ही कर्तव्य है-ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है , वह दान सात्विक कहा गया है | (गीता १७|२०)

           निष्काम भाव से देना सात्विक भाव है | प्रत्युपकार न चाहकर देना सात्विक है | जिससे बदला चाहे उसको देना मजबूरी है, दान नहीं | अनुपकारी के प्रति दिया हुआ दान , उपकारी को देना अपने ऋण से मुक्त होना है | दान देकर काम लेना यह भी दान नहीं है | देश, काल और पात्र दो प्रकार के होते है | उत्तम देश वह है जहा अभाव हो | देश में समय देखे की आपति किस काल में है | काल का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए |पात्र का भी ज्ञान प्राप्त करना चैये | अपने शरीर के लिए तो कम खर्च लगाना चाहिए | बचत में रूपये रहे , उनको धर्मार्थ में लगाये | बेटी को देते है तो समझना चाहिये के बेटी का हक है | ब्रह्मण भूदेव है , क्षत्रिये वैश्य जन उनके गुमास्ते है | भक्ति के मार्ग से देखे की सब चीज भगवान् की है , उनकी चीज उनको दे दो तो लोक सेवा है |
सो अनन्य जाके असी मति न ता रा इए हनुमंत |
में    सेवक    सचराचर    रूप    रासी      हनुमंत ||
           सब नारायण का है | हम भी नारायण के है | हम तो निमित मात्र बने है येः भाव रखे तो जल्दी से जल्दी परमात्मा की प्राप्ति होगी |वह देना अमृत है | जो न्याय के पैसे है , उनके द्वारा उपकार करे तोह बहुत  ज्यादा लाभ है | पैसे न्याय से उपार्जन करना और उनको अच्छे काम में लगाना दुगुना अमृत है | इससे लेने वाले की बुद्धि सुधर जाती है |

नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
[जयदयाल जी गोयन्दका, साधन की आवश्यकता , पुस्तक कोड ११५० ], गीता प्रेस गोरख पुर ,

गीताजीकी महिमा


 प्रवचन तिथि ज्येष्ठ शुक्ल १३, संवत २००२, प्रात: काल वट वृक्ष, स्वर्गाश्रम  पिछला शेष आगे------

 सुहृदं  सर्वभूतानां  ज्ञात्वा  मां  शान्तिमृच्छति !!
                (गीता ५/ २९  )

   मुझे सम्पूर्ण भुत-प्राणियों जा सुह्रद अर्थात स्वार्थ रहित दयालु और प्रेमी ऐसा तत्व से जानकर को शान्तिको प्राप्त होता है !
   जो भगवान्के भक्त होते है वे सुह्रद ही होते हैं ! जब आपमें सुह्र्द्ता आ जायगी तो यह स्वत: ही सिद्ध हो जायगा !
   आप इस कामके लिये घरसे निकल पड़े तो किसी भी अंशमें  भक्त हो ही गये ! आपमें दया और प्रेम की कमी है उसे बढाओ ! मैं तो यही कहूँगा प्रथम मेरेसे प्रारम्भ करो, यध्यपि मेरे ऊपर दया और प्रेम आपका है किन्तु और बढ़ाये !

 दया और प्रेम कैसा होना चाहीये ? ममता रहित ! ममता करे भगवान् में, अहंकार भी भगवान् में, संसार से ममता, अंहकार हटाकर भगवान् से ममता, अहंकार करो !
 अस अभिमान जाइ जनि भोरे ! मैं सेवक रघुपति पति मोरे !!
  यह शुद्ध अभिमान है ! संसार में हमारा जो अहंकार है, यह हटाकर प्रभुमें करना चाहीये ! जब आपमें ममता, अहंकार नहीं रहेगा तो सुख-दू:ख में स्वत:हो ही जायगी ! यह नारायणी हर समय हँसती रहती है, यह चीज हमें इससे सीखनी चाहीये ! हर समय प्रसन्न रहना चाहीये ! दूसरी बात यह है कि यह रोती हो तो गीता पूछो, रोना बंद कर देती है !
  गीता का अभ्यास ऐसा ही नहीं इससे भी बढ़कर करना चाहीये ! जैसा इसने अभ्यास किया है, ऐसा अभ्यास होनेके बाद उसका अनुभव हो जाय, तो फिर उसका कल्याण हो, यह तो बात ही क्या है, उसके द्वारा बहुतों का कल्याण हो सकता है ! वह गँगा से भी बढ़कर है !गँगा स्नान करनेवाला स्वयं का कल्याण कर सकता है, दूसरे का नहीं, किन्तु गीता-रूपी गँगा में स्नान करने वाला दूसरों का भी कल्याण कर सकता है!
  गीता के एक-एक श्लोक ऐसें हैं जिनके एक-एक के पालन सेन कल्याण हो जाये ! भक्तिका----
मच्चिता मद्गतप्राणा  बोधयन्तः परस्परम !
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च !!
                               (गीता १० / ९ )
   निरन्तर मुझमे मन लगानेवाले और मुझमे ही प्राणों को अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपसमे मेरे प्रभाव को जनाते हुये तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुये ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण
करते हैं !
  कर्मका-----
  कर्मजं  बुद्धियुक्ता  हि  फलं  त्यक्त्वा  मनीषिणः !    
  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः  पदं गच्छ्न्त्यानामयम् !!
                                 ( गीता २ / ५१ ) 
   क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्मरूप बन्धन सेन मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जातें हैं !
 भक्ति एवम कर्म एक साथ------
  सर्वकर्माण्यपि  सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः !
  मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्य्यम् !!
                          (गीता १८ / ५६ )
  मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुवा भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है !
  ज्ञान का -----------
    योऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव  य: !
    स  योगी  ब्रह्मनिर्वाणं   ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति !!
                          (गीता ५ / २४ )
 जो पुरुष अन्तरात्मा में हि सुख वाला है, आत्मा में हि रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में हि ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्द घन परमब्रह्मा परमात्मा के साथ एक हि भाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है !
  तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः      ! 
  गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं         ज्ञाननिर्धुतकल्म्षा: !!

                   (गीता ५ / १७ )
 जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्द घन परमात्मा में ही जिनकी निरन्तर एक ही भाव से स्तिथि है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर अपुनरावृतिको अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं !
  सर्वत्र समबुद्धय: कहाँ है ?
  संनियम्येन्द्रियग्रामं  सर्वत्र समबुद्धयः !
  ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: !!
                        (गीता १२ / ४ )
   परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वशमे करके मन-बुद्धिसे परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरुप और सदा एकांत रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चीदानंदघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत सबमे समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं !
  तत्मात् योगी भवार्जुन कहाँ है ?
  तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः !
  कर्मिभ्यश्चाधिको   योगी   तस्माद्योगी   भवार्जुन !!
                            (गीता ६ / ४६ )
  योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियोंसे भी श्रेष्ठ माना गया है और सकामकर्म करानेवालोसे भी योगी श्रेष्ठ माना गया है और सकामकर्म करनेवालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये हे अर्जुन तुम योगी हो !
  सात्विक ज्ञान-------
    सर्वभूतेषु        येनैकं            भावमव्ययमिक्षते ! 
    अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् !!
                             (गीता १८ / २० )
 जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक पृथक सब भुतोंसे एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभावसे स्थित देखता है,उस ज्ञानको तो तू सात्विक जान !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में

सोमवार, 16 जुलाई 2012

गीताजीकी महिमा


प्रवचन तिथि ज्येष्ठ शुक्ल १३, संवत २००२, प्रात: काल वट वृक्ष, स्वर्गाश्रम  पिछला शेष आगे------

        हमारा समय गया सो गया ! श्रद्धा-प्रेमकी कमी के कारण कमी रह गयी ! श्रद्धा-प्रेमकी पुर्तिके लिये एकान्तमें भगवान् के सम्मुख रुदन करना चाहीये ! रोना नहीं आये तो व्याकुल होना चाहीये, वह भी नहीं हो स्तुति-प्रार्थना करनी चाहीये ! यह अपने अधिकार की बातहै ! स्तुति-प्रार्थना क्रियासाध्य है ! इसके करनेसे भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं ! भगवान् के यहाँ सुनवायी हो जाती है ! और कुछ भी नहीं हो सके तो भगवान् केशवका नाम लेकर रोना चाहीये, जैसे द्रौपदी रोती  है, ऐसे ही हमें रोना चाहीये
     केशव केशव कुकिये न कुकिये असार !

संसार के लिये नहीं रोना चाहीये ! लोग रोते हैं, संसार के लिये ! हमें तो भगवान् के लिये ही रोना चाहीये ! यदि रोना नहीं आये तो रटन लगाओ ! इसमें तो कह ही नहीं सकते कि यह हम नहीं कर सकते ! राम राम रटते रहो जब लग घटमें प्रान ! कबहुँ तो दीनदयालके  भनक पड़ेगी कान !!

  उनके नाम कि रटन करो ! करते करते भगवान्के कानों में आवाज पड़ेगी ही ! यह सार कि बात है !

    यहाँ जो बात सुनी है, उसके अनुसार घरपर कसकर साधन करना चाहीये ! शरीरको आराम नहीं देना चाहीये ! मन, इन्द्रियों को भी भगवान् में लगा देना चाहीये ! मनसे भगवान् का ध्यान, बुद्धि से निश्चय, कानोंसे भगवान् के प्रेम-प्रभावकी बातों श्रवण, श्वास से जप करतेरहना चाहीये !

   इतना तीव्र साधन वैराग्य से होता है ! आप कहें कि यह वैराग्य कहाँ से लायें ? यहाँ का दृश्य याद  कर लो !  यहाँ का दृश्य याद करनेसे ही वैराग्य होता है ! यह ऐसा ही स्थान है ! गंगा, वटवृक्ष, एकान्त देश, वन, गुफा, यहाँ वर्षों तक महात्माओंने तपस्या कि है !वर्षों से सत्संग होता है ! परम पवित्र भूमि है ! ऐसा स्थान कोसोंमे कहीं शायद मिले !   वैराग्य कि उत्पादक धुलमें बैठना है ! राजा-महाराजा भी यहाँ आकार धूलि में बैठते हैं ! वनमें पत्थरों पर बैठना-इस दृश्य को याद करना चाहीये !  वैराग्य कि वृत्ति बार-बार बनानी चाहीये !   उससे साधन स्वत: ही होगा, करना नहीं पड़ेगा ! आपलोगों ने किसीने दो महीना, किसी ने तीन महीना यहाँ वास किया, हमारे ऊपर बड़ी कृपा कि ! मूल में भगवान् कि कृपा है ही !
 जापर कृपा राम कि होई ! तापर कृपा करइ सब कोई !!

   आप लो इतने आदमी नहीं जुटते तो मैं क्या जंगल को सुनाता ! आपलोगों को जो शान्ति मिली है उससे अधिक वक्ताको मिलनी चाहीये ! कारण वक्ता के मन में वह सब का सब कैसे कहा जा सकता है ! भगवद्विषयक यत्किंचित जो भाव बुद्धि में आता है, उतना मन कल्पना नहीं कर पाता ! पंगु हो जाता है ! मनमें जो भाव आता है, वाणी के द्वारा कहा ही नहीं जा सकता ! वाणी के द्वारा जो कुछ कहा जाता है, सुनने वाले उतना सुन नहीं पाते, जितना सुना जाता है उतना याद नहीं रहता ! इसलिये श्रोताकी बुद्धि द्वारा उतना निश्चय नहीं किया जा सकता जितना वक्ताकी बुद्धि के निश्चय में आया है ! इतने मात्र से भी श्रोताको प्रसन्नता. आनन्द मिलता है. फिर वक्ताको तो अधिक प्रसन्नता, आन्नद मिलता ही है ! इस ऋण से मैं मुक्त नहीं हो सकता, इससे उऋण होने का उपाय है आपको भगवान्की प्राप्ति ! वह मैं नहीं करा सकता, वह तो भगवान् के हाथ की बात है ! वे स्वतंत्र ठहरे, वे चाहे सो कर सकते हैं ! नहीं तो सच्ची बात तो यह है कि हम सब भगवान्के ऋणी तो हैं ही ! जो सुनने के लिए आते हैं उनकी हमारे ऊपर कृपा है किन्तु उऋण होना प्रभु के हाथ कि बात है, हमारे हाथ कि बात नहीं है ! 

    हनुमानजी भगवान् के मात्र दास हैं ! उन्होंने आकार सन्देश दिया कि सीता-लक्षम्ण के साथ भगवान् आ रहे हैं ! भरतजी चौंक पड़े, कहा यह आपने जो सन्देश दिया है उसके  लिये मैं आपका ऋणी रहूँगा !
 एही संदेस सरिस जग माहीं ! करी बिचार देखेउँ कछु नाहीं !!
 नाहिन तात उरिन मैं तोही ! अब प्रभु चरित सुनावहु मोहि !!


   हे हनुमान ! मैंने देखा संसार में कोई पदार्थ है ही नहीं. जिसको देकर मैं आपसे उऋण हो सकूँ !

     हे तात ! हे प्यारे ! मैं तुम्हारे ऋण से नहीं छूट सकता, अब प्रभु के चरित्र सुनाओ ! एक बात सुनायी उतने मात्र से ही भरतजी ऋणी हो गए !
       थोड़ी सी परमात्मा कि बात आपको सुनायी, उससे, मैं आपका ऋणी हो गया ! अधिक आपको सुनायी जायेगी, उससे और ज्यादा ऋण मेरे ऊपर हो जायेगा ! जब तक आप और मैं जीवित रहें, आप इस प्रकार मुझे ऋणी बनाते ही रहें ! जिस प्रकार इस बार दया की,बार-बार इस प्रकार करते ही रहें !
 
  आपका जितना मुझ पर प्रेम है, इसके लिये भी यही प्रार्थना है और प्रेम बढे ! प्रेम और दया आपके ह्रदय में बढाती रहेगी तो एक दिन उस अवस्था को आप प्राप्त हो सकते हैं, जो भक्तों के लक्षण भगवान् ने बताये हैं-
  अद्वेष्टा सर्वभूतानां  मैत्र: करुण  एव च !
  निर्ममो  निरहंकार: समदुःखसुखः क्षमी !!
                  ( गीता १२ / १३ )
  जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित, सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दु:खो की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में ...