प्रवचन- दिनांक ८--७--१९४२ सांयकाल, साहबगंज, गोरखपुर !
दुसरेकी आत्माको सुख पहुँचाने के समान कोई धर्म नहीं है----
पर हित सरिस धर्म नहीं भाई !
पर पीड़ा नहीं अधमाई !!
पर पीड़ा नहीं अधमाई !!
अपना सर्वस्व सेवामें लगाये ! भगवान् से सबकी सेवा करने के लिये प्रार्थना करें ! वाणी से नाम का जप, शरीर से सेवा, मनसे ध्यान करे ! अपना जीवन सेवा के लिये है !
एक महात्मा के पास एक वैश्य गया और उपदेश की प्रार्थना की ! महात्मा ने कहा दू:खी, अनाथ की सेवा करो ! वह वही करता रहा! एक दिन एक गरीब लकड़ी बेचने के लिये आया और धुप के मारे व्याकुल होकर गिर पड़ा ! उस वैश्य ने उसको जल पिलाया, तब उसको होश आया ! उसे भूख लगी थी, चना का सत्तू खाने के लिये दिया, जल पिलाया, वह खाकर, तृप्त होकर लौट गया ! इधर भगवान् प्रकट हो गये !वार माँगने को कहा, उसने कहा आप मिल गये, इससे बढ़कर और वार क्या चाहीये, भगवान् अन्तर्धान हो गये !
इस समय सब जनता दू:खी है, अत: सब जनता पात्र है ! दू:खी अनाथ कि सेवा से भगवान् दर्शन शीघ्र होता है ! हरेक आदमीको देखकर यह भाव हो कि इसको कैसे सुख हो, किसी से भेंट हो उसको सुख पहुँचाने करे, जिससे भेंट हो वो आनन्दमग्न हो जाय,परमधाम को प्राप्त हो जाय ! दुसरेको सुख कैसे मिले ? इसी प्रकार का व्रत करना चाहिये ! सब जीवों को अभयदान दे, जिससे कोई दू:खी न हो !
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: !
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: !!
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: !!
जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय, और उद्वेगादिकों से रहित है वह भक्त मेरे को प्रिय है ! अपना सर्वस्व नाश हो जाय, परन्तु दूसरे कि सेवा करे, जिस प्रकार हो दूसरे कि सेवा करे ! कभी किसी प्रकार कि कि किसी प्राणीकि हिंसा न करे, अपितु सेवा करे, दूसरे को सुख आराम पहुँचाने कि चेष्टा करनी चाहीये, साथ-साथ भगवान् का ध्यान करे ! जिसका यह भाव रहता है कि सबका कल्याण हो जाय, उसको मुक्ति का अधिकार
मिल जाता है !
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]