शिक्षाप्रद पत्र -२
सप्रेम राम-राम ! आपका पत्र मिला ! आपने कई शंकाएँ की है, उनका उत्तर क्रमश: इस प्रकार है------
१ गरीबों को भगवान् ही बनाते हैं, यह आपका लिखना ठीक है ! जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भगवान् भुगतातें हैं एवं उनकी सेवा करने के लिये भी कहते हैं ! भगवान् ने ही गरीब को बनाया है ! इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेचारे कष्ट पातेरहें एवं उनकी सेवा भी न कि जाय ! सेवा का काम अपने लोगों के जिम्मे है ! जैसे कोई चोरी-डकैती या बदमाशी करता है तो पुलिस द्वारा गवर्नमेंट उसे पर्याप्त मात्रा में दण्ड दिलवाती है ! अगर उस दोषी के कहीं घाव हो जाता है तो मलहम-पट्टी के लिये लिये भी उचित व्यवस्था रहती है ! मार-पीटकर ही नहीं छोड़ दिया जाता ! इसी प्रकार भगवान् उन्हें दण्ड भुगताने के लिये गरीबी देते हैं ! उनकी सेवा का काम दूसरों के जिम्मे है ! जो सेवा करता है, उसे इसका अच्छा फल मिलता है, अत: सेवा करने वाले को तो कर्तव्य समझकर गरीबों कि सेवा ही करनी चाहीये !
२ आपने मित्र भाव रखने वाले एक व्यक्ति का उदाहरण दिया ! आपने उसे दूकान करवायी और वह सब रूपया लेकर चंपत हो गया, सो मालूम किया ! इस घटना से आपके मन जो यह धारणा हो गयी है कि किसी के साथ भला करने पर भी बुरा ही होता है,यह ठीक नहीं है ! आपके साथ कोई बुराई का व्यवहार करे तो आपको बुरा नहीं मानना चाहीये ! आपको तो उसके साथ अच्छे-से-अच्छा वयवहार करना चाहीये ! आपको अपने अच्छे कर्मका फल मिलेगा एवं बुरा कर्म करने वाले को पाप भोगना पड़ेगा !
` जो तोकूँ काँटा बुवै ताहि बोय तूँ फूल !`
आपको इस उपर्युक्त पध्यवाक्य के अनुसार ही करना चाहीये ! साथ ही धोखा देनेवालों से सावधान रहना चाहीये ! कोई काँटा बने तो बने, आपको तो फूल ही बनना चाहीये !
३ आप कल्याण-अंक तथा गीता प्रेस से पुस्तकें मँगाकर बराबर पढाते हैं, सो बहुत उत्तम बात है ! यह भी लिखा कि संतोष नहीं हो रहा है, सो संतोष हो इसके लिये भगवान् के नाम का जप, स्वरुप का ध्यान, गीता-रामायण का पाठ, स्तुति-प्रार्थना श्रद्धा -भक्तिपूर्वक निष्काम भाव से नित्य-निरन्तर करते रहना चाहीये ! इससे संतोष हो सकता है !
४ गीता पढ़ने के लिये आपकी हार्दिक इच्छा है एवं इसके लिये आप प्रयत्नशील भी है, सो उत्तम बात है ! संस्कृत का आप शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते हैं, तो इसके लिये संस्कृत के किसी पंडित से गीता का शुद्ध उच्चारण करना सीख लेना चाहीये ! नहीं तो, संस्कृत श्लोकों को छोड़कर केवल भाषा-ही-भाषा पढ़ लेनी चाहीये !
आपकी शंकाओं का अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार उत्तर दे दिया गया ! और भी कोई बात आप पूछना चाहें तो तो नि:संकोच पूछ सकते हैं !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में
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