※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

भगवान् का तत्व समझकर प्रेम करें


प्रवचन ८- ७ -१९४२,  प्रातःकाल, साहेबगंज, गोरखपुर

जो चीज न्याययुक्त प्राप्त हो, वह अमृत है ! गीताप्रेस में हम परिश्रम करके वेतन लेते हैं, वह अमृत है, हम चोरी करके गीताप्रेस की चीज लें तो वह विष है ! न्यायानुकूल लेने से अमृत है, अनुचित लेना विष के सदृश है !
जो जितना पवित्र है उसका दुरूपयोग उतना ज्यादा हानि करनेवाला है ! गंगा पवित्र है ! उनमें गन्दगी करनेसे महान पाप और पुण्य करनेसे ज्यादा लाभ है ! इसी प्रकार अन्य तीर्थोंकी तथा महात्माओं की बात है ! लाभ और हानि दोनों प्रकार से महत्व है ! दुरूपयोगसे हानि और सदुपयोग से लाभ है ! जहाँ नौकरीसे अनुचित रूपसे आमदनी हो, वहाँ नुकसान है ! इसीलिये हम लोग नौकरी नहीं करते, प्रसाद पवित्र करने करने वाला है ! भगवान् की वस्तुमात्र सब पवित्र करनेवाली है ! यदि हम अनुचित रूपसे चोरी करके ले गए तो बहुत हानिकर है !चीज तो भगवान् की, परन्तु वही अनुचित रूप से लेने से नुकसान है ! परमात्मा सबमें है-----
 समोऽहं   सर्वभूतेषु  न  मे  द्वेष्योऽस्ति  न  प्रिय: !
 ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यय्ह्म !!
मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है. परन्तु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमे प्रत्यक्ष प्रकट हूँ !
आकाश की तरह परमात्मा सब भूतों में समान भावसे व्यापक है ! भगवान् कहते हैं कि जो कुछ भी चेष्टा होती है सब मेरी सत्ता से होती है !
  ईश्वर:   सर्वभूतानां    हृद्देशेऽर्जुन   तिष्ठति !
  भ्रामयन्सर्वभूतानि  यन्त्रारूढानि   मायया !!          (गीता १८ / ६१ )
भगवान् सबके ह्रदयमें स्थित हुए उसके कर्मों के अनुसार भ्रमाते हैं ! परमात्मा तो एक हैं परन्तु नाना रूप से दिखते हैं ! जल एक ही है है अनेक रूपमें आता है ! एक ही जल सीपमें मोती और सर्प के मुखमें विष आदि के रूपमें आता है ! इसी प्रकार एक ही परमात्मा पदार्थ के कारण अनेक रूपमें दिखलायी देते हैं ! गीता कहती है---------
    बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते !
    वासुदेव:   सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः !!                 (गीता ७ / १९ )
 बहुत जन्मों के अन्तमें तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है ! वासुदेव के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं इस प्रकार मेरे को भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है !
जैसे यहाँ वस्तु, काठ, पुस्तक, किवाड़ आदि सब अग्नि हो जायगा ! क्योंकि सब एक ही था ! एक मिट्टी ही नाना रूपमें परिणत है ! दरी वृक्ष, पत्थर मिट्टी थे, आखिरमें मिट्टी में मिलेंगे, इसी प्रकार जो कुछ रूप, वस्तु दिखलायी देती है, एक परमात्मा ही अनेक रूप में
परिणत हो जाता है !
जल एक ही है, वही ऊपर बादलके रूप में, वही जल बूंद के रूप में, वही जल जल बर्फमें दिखलायी देता है ! वही भाप बन जाता है ! वास्तवमें एक ही जल अनेक रूपों में दिखलायी देता है ! इस प्रकार एक परमात्मा ही अनेक रूपों में दिखलायी देता है ! सबमें एक परमात्मा को देखना चाहीये ! सब कुछ एक परमात्मा कि लीला है ! जैसे नाटक देखने से सब लोग प्रसन्न होते हैं ! यह तो मनुष्यकृत है और संसाररूपी नाटकको रचनेवाले भगवान् है, सबमें प्रविष्ट हैं ! जैसे बिजली सब जगह है है वैसे ही परमात्मा सब जगह व्यापक हैं !
यदि कहो कि परमात्मा हैं तो दिखलाओ ! परमात्मा का जो सगुण-साकार स्वरुप है वह हमें दिखलायी दे सकता है और भगवान् प्रेमसे प्रकट हो जाते हैं ! वह स्वरुप देखने लायक है और जो निराकार है वह देखने कि चीज नहीं है ! निराकार का भान तो सकता है, प्रेमसे निराकार को भी जान सकते हैं ! तत्वसे समझमें आ सकता है, देखने मे नहीं आ सकता !  
शेष अगले ब्लॉग में......

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........  
भगवत्प्राप्ति कैसे हो ?  श्री जय दयालजी गोयन्दका, कोड १७४७, गीता प्रेस गोरखपुर