प्रेमपूर्वक हरिस्मरण !
आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए ! उत्तर इस प्रकार है-------
आपको झूठ बोलने और पाप करनेमें हिचक नहीं होती और डर नहीं लगता, इसका तो यह कारण है कि उनसे होने वाले परिणामपर आपका विश्वास नहीं है तथा वर्तमान में झूठ बोलकर पाप करके आप किसी-न-किसी प्रकार कि भोग वासनाकी पूर्ति करना चाहते हैं,पर वास्तव में यह बड़ी भरी भूल है ! सुखभोग कि इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती; क्योंकि भोगों कि प्राप्ति इच्छा से नहीं होती ! ये तो कर्मफल के रूप में मिलते हैं और जैसे जैसे मिलते हैं, इच्छा को बढ़ाते रहते हैं; इस परिस्थिति में इच्छा कि पूर्ति कैसे हो ! उसकी तो विचार द्वारा निवृति ही हो सकती है !
आपने लिखा कि धर्म क्या है और पाप क्या है ? उसका मुझे ज्ञान नहीं है, सो ऐसी बात नहीं है ! ज्ञान तो आपको अवश्य है, पर आप उस ज्ञान का आदर नहीं करते ! आप समझते हैं कि झूठ बोलना बुरा है---पाप है ! झूठ नहीं बोलना चाहीये---ऐसा दूसरोंसे कहते भी हैं !यदि कोई झूठ बोलता है तो उसका झूठ बोलना आपको बुरा भी लगता है, तथापि आप झूठ बोलने के लिये विवश हो जाते हैं, यही अपने ज्ञान का अनादर करना है ! यदि आप जितना जानते हैं, उतने धर्म का पालन करना आरम्भ कर दें तो आवश्यक जानकारी स्वयं प्राप्त हो सकती है; यह भगवत्कृपा कि महिमा है !
`भगवान क्या है`------यह जानना नहीं बनता, क्योंकि भगवान् मनुष्यकी ज्ञान शक्ति के बाहर हैं ! भगवान् पर तो विश्वास किया जा सकता है, उनको माना जा सकता है, उनकी महिमा और प्रभावका दर्शनकर, सुनकर, समझकर और मानकर उनपर निर्भर हुआ जा सकता है ! ऐसा करनेपर साधक कृतकृत्य हो सकता है; इसमें कोई संदेह नहीं है !
भगवान् अकारण ही कृपा करनेवाले हैं, यह ध्रुव सत्य है, तभी तो आप और हम सब लोग जो कि उनको नहीं मानते वे भी और जो उनको मानते हैं वे भी उनकी बनायीं हुई हवा, अग्नि, जल, प्रकाश आदि का बिना ही किसी प्रकार का मूल्य दिये उपभोग कर पाते हैं !यदि वे अकारण कृपालु नहीं होते तो क्या इनपर रोक नहीं लगा देते, क्या टैक्स नहीं बाँध देते, पर वे ऐसा नहीं करते; क्योंकि वे उदारचित्त हैं !
जो यह बात मान लेता है कि भगवान् अकारण ही कृपालु है, वह तो उन्ही का होकर रहता है, वह फिर उनको भूल ही कैसे सकता है !
आप लिखते हैं कि मुझे भगवान् को पाने कि इच्छा नहीं है, इससे तो स्पष्ट ही मालूम होता है कि न तो आपको यह विश्वास है कि भगवान् अकारण ही कृपालु हैं, न उनकी महिमाका ज्ञान है और न उनकी सत्तापर ही पूरा विश्वास है; क्योंकि जो यह समझता है कि भगवान् किसको कहते हैं, वे क्या कर सकते हैं, क्या कर रहे हैं. उनमे क्या क्या गुण हैं, उनको प्राप्त होना क्या है ? इस रहस्य को जानने वाला भला उनको बिना प्राप्त किये कैसे रह सकता है !
आपको जो यह मान्यता है कि बिना छल, कपट और चालाकिके मुसीबत नहीं टलती, यह सर्वथा निराधार है ! छल, कपट और चालाकी का ही परिणाम मुसीबत है, इसी कारण एक टलती है तो दूसरी आ जाती है ! छल कपट और चालाकी का सर्वथा त्याग कर देने पर ही वास्तव में मुसीबत सदा के लिये ताल जाती है, यह समझना चाहीये !
आपने लिखा कि मैं क्या हूँ. कौन हूँ यह समझ नहीं आता ! इसका तो अर्थ यह होता है कि वास्तवमें आप इसे समझना ही नहीं चाहते ! मुसीबत जिस पर आती है, जो उसे टालना चाहता है, जिसे मुसीबत का ज्ञान है, वही आप है !
आपंने लिखा कि विशम्भर, करुणानिधान, दयासिन्धु, दयालु, प्रभु इस प्रकार के शब्दोंका तो प्रयोग ही नहीं करना चाहीये, क्योंकि ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं -----सो यह आप किस आधार पर लिखते हैं जब कि आपको यही पता नहीं है कि मैं कौन हूँ !
आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होती, यह तो उचित ही है ! यदि आपकी या इसी प्रकार के भाव वाले अन्य मनुष्यों कि इच्छा पूर्ण होने लगे तो संसार में सारा काम अव्यस्थित हो जाय, क्योंकि आपकी इच्छाओं में तो दुसरोका अहित और अपना स्वार्थ भरा हुआ है, तभी तो आप पापमय कर्म करते हैं और भले बुरे सभी मनुष्यों कि निंदा करते हैं !
यदि आपको अपने जीवनसे घृणा होती है, आपके मनमे अपना सुधार करने कि इच्छा होती है तो समझना चाहीये कि भगवान् कि बड़ी कृपा है ! सुधार चाहनेवालेका सुधार होना कठिन नहीं है, दू:खोंसे छूटने का उपाय तो यही ठीक मालूम होता है कि उस दू:खहारी प्रभुकि शरण ग्रहण करके अपने विवेक का आदर करें तथा वह काम जो हम दूसरों से नहीं चाहते ! अर्थात जिसको हम अपने लिये अच्छा समझते है, उसको सबके लिये अच्छा समझें और जिसे हम अपने लिये बुरा समझते हैं, उसे सबके लिये बुरा समझे !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में
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