※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 28 जुलाई 2012

शिक्षाप्रद पत्र


प्रेमपूर्वक हरिस्मरण ! आपका पत्र मिला ! समाचार मालूम हुए, आपके प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है----
  ( १ ) निर्गुण, सगुण, निराकार और साकार सभी उस परब्रह्म परमात्मा के ही स्वरुप है, अत: जिस साधक का जिस स्वरुप में श्रद्धा-प्रेम हो, जिसकी उपासना वो बिना किसी कठिनाई के कर सकता हो, उसके लिए वो ही ठीक है ! आपने निर्गुण स्वरुप की उपासनाका प्रकार,पूछा, सो यह उपासना ज्ञान मार्ग के द्वारा की जाती है ! निर्गुण की उपासना के लिये सब प्रकार की भोगवासनाका त्याग कर कर्त्तापन के अभिमान से शून्य होना आवश्यक है तथा शरीर में जो मैं और मेरापन है इसका सर्वथा त्याग करना चाहीये ! फिर एक मात्र सच्चिदानन्द
परब्रह्म के चिन्तनमें तल्लीन होकर सब प्रकार के चिन्तनसे रहित हो जाना चाहीये ! उपासना का पूरा प्रकार पत्र द्वारा कहाँ तक समझाया जाय !

  ( २ ) ह्रदय में ध्यान आत्मस्वरूप में मन लगाकर भी किया जाता है, परमात्मा को सर्वव्यापी आकाश की भाँती सर्वत्र परिपूर्ण मानकर भी उसके सच्चिदानंदघन स्वरुप का ध्यान किया जा सकता है ! जिस साधक की जैसी रूचि हो, जैसा विश्वास हो, जैसी योग्यता हो, उसे वैसा ही करना चाहीये !

  ( ३ ) ध्यान करते समय जब तक नामका ज्ञान रहे, तब तक नाम-स्मरण करते रहना चाहीये !

  ( ४ ) नियमितरूपसे एकान्तमें बैठकर सुबह और संध्या के समय तो ध्यान करना ही चाहीये, उसके अतिरिक्त अन्य समयमें भी जब अवकाश मिले, करना चाहीये तथा काम करते समय भी भगवान का स्मरण रखना बहुत अच्छा और आवश्यक है !

  ( ५ ) भगवान् के  ध्यानमें मन का टिकनेका तरीका या साधन पूछा सो पहले यह विचार करना चाहीये की मन क्यूँ नहीं टिकता ? विचार करने पर जो-जो विरोधी कारण समझ में आये उनको दूर करते रहना चाहीये ! मन न टिकने का दू:ख होना चाहीये, मन को ध्यान में टिकाना है- यह उद्देश्य होना चाहीये !भगवान् में प्रेम होने पर भगवान् का ध्यान अपने आप होने लगता है ! अत: जिन-जिन सांसारिक पदार्थों में प्रेम है, जिनको आप सुख का हेतु मानते हैं, जिनके साथ अपनेपन को जोड़ रखा है, उनसे सम्बन्ध-विच्छेद करके भगवान् मेंप्रेम करना चाहीये ! उनको ही अपना परम हितैषी मानना चाहीये ! ऐसा करने से धयान में मन लग सकता है !

 ( ६ ) सगुण स्वरुप की उपासना का तरीका एक नहीं है ! साधकों के श्रद्धा विश्वास प्रेम और योग्यता के भेद से अनेक भेद होते हैं ! आपको अपने लिये जो तरीका सुगम मालूम हो, जिसमें आपका प्रेम हो, जिस पर श्रद्धा -विश्वास हो, वही आपके लिये ठीक है और वही सुगम भी होगा ! सगुण परमेश्वर निराकार भी है और साकार भी ! वह अनन्त दिव्य गुणों से भरपूर है, अनन्त दिव्य सामर्थ्य से संपन्न है और उनका रूप-सौन्दर्य भी परम-दिव्य तथा अलौकिक है, उसका वर्णन लेखनी द्वारा नहीं किया जा सकता ! वह तो उनकी कृपा से ही समझ में आता है, अत: उनकी शरण लेकर लालसापूर्वक उन पर निर्भर होना चाहीये !

 ( ७ ) निर्गुण-उपासक यदि श्रीकृष्ण की मानस पूजा करे तो कोई हानि नहीं हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण और उनके निर्गुण स्वरूपों में कोई भेद नहीं है ! दोनों एक ही हैं ! जो निर्गुण है वही सगुण है और जो सगुण है वही निर्गुण है तथा वही श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होते हैं !

भगवान् श्रीकृष्ण समस्त  ब्रह्मांड में परिपूर्ण है और समस्त ब्रह्मांड ही नहीं करोड़ो ब्रह्मांड उनके एक अंश में स्थित है, ऐसा समझकर उनका ध्यान करना चाहीये !

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक शिक्षाप्रद पत्र ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में