※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

भगवान् के रहनेके पाँच स्थान




भगवान् के रहनेके पाँच स्थान


पाँच महायज्ञ

व्यासजी बोले -- शिष्यगण! में तुमलोगोकों पाँच धर्मोंके आख्यान सुनाउँगा! उन पाँचोंमेंसे एकका भी अनुष्ठान करके मनुष्य सुयश, स्वर्ग तथा मोक्ष भी पा सकता है! माता-पिताकी पूजा, पतिकी सेवा, सबके प्रति समान भाव, मित्रोंसे द्रोह न करना और भगवान् श्रीविष्णुका भजन करना -- ये पाँच महायज्ञ हैं! 

पहले माता-पिताकी पूजा करके मनुष्य जिस धर्मका साधन करता है, वह इस पृथ्वीपर सैंकड़ों यज्ञों तथा तीर्थयात्रा आदिके द्वारा भी दुर्लभ है! पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है, और पिता ही सर्वोत्कृष्ट तपस्या है! पिताके प्रसन्न हो जानेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं! जिसकी सेवा और सदगुणोंसे पिता माता सन्तुष्ट रहते हैं, उस पुत्रको प्रतिदिन गंगास्नानका फल मिलता है! माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओंका स्वरुप है; इसलिये सब प्रकारसे यत्नपूर्वक माता- पिताका पूजन करना चाहिये! जो माता-पिताकी प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सातों द्वीपोंसे युक्त समूची पृथ्वीकी परिक्रमा हो जाती है! माता-पिताको प्रणाम करते समय जिसके हाथ, मस्तक और घुटने पृथ्वीपर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्गको प्राप्त होता है! जबतक माता-पिताके चरणोंकी रज पुत्र के मस्तक और शरीरमें लगती रहती है, तभीतक वह सुद्ध रहता है! जो पुत्र माता-पिताके चरण- कमलोंका जल पिता है, उसके करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं! वह मनुष्य  संसारमें  धन्य है!  जो नीच  पुरुष माता -पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करता है, वह महाप्रलय पर्यन्त नरकमें निवास करता है! जो रोगी, वृद्ध, जीविकासे रहित, अंधे और बहरे पिताको त्यागकर चला जाता है, वह रौरव नरकमें पड़ता है! इतना ही नहीं, उसे अन्त्यजों, मलेच्छों और चाण्डालोंकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है! माता- पिताका पालन -पोषण न करनेसे समस्त पुण्योंका नाश हो जाता है! माता-पिताकी आराधना न करके पुत्र यदि तीर्थ और देवताओंका भी सेवन करे  तो उसे उसका फल नहीं मिलता! 

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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

अमूल्य वचन




अमूल्य वचन 


'' ऐसी चेष्टा करनी चाहिये, जिससे एकान्त स्थानमें अकेलेका ही मन प्रसन्नतापूर्वक स्थिर रहे! प्रफुल्लित चित्तसे एकान्तमें श्वासके द्वारा निरंतर नामजप करनेसे ऐसा हो सकता है!''

''भगवत्प्रेम एवं भक्ति-ज्ञान -वैराग्य -सम्बन्धी शास्त्रोंको पढ़ना चाहिये!''

''एकान्त देशमें ध्यान करते समय चाहे किसी भी बातका स्मरण क्यों न हो, उसको तुरन्त भुला देना चाहिये! इस संकल्पत्यागसे बड़ा लाभ होता है!''

''धनकी प्राप्तिके उद्देश्यसे कार्य करनेपर मन संसारमें रम जाता है, इसलिये सांसारिक कार्य बड़ी सावधानीके  साथ केवल भगवत् की प्रीतिके लिये ही करना चाहिये! इस प्रकारसे भी अधिक कार्य न करे, क्योंकि कार्यकी अधिकता उद्देश्यमें परिवर्तन हो जाता है!''

''सांसारिक पदार्थों और मनुष्योंसे मिलना -जुलना कम रखना चाहिये!''

'' संसार -सम्बन्धी बातें  बहुत ही कम करनी चाहिये!''

''बिना पूछे न तो किसीके अवगुण बताने चाहिये और न उनकी तरफ ध्यान ही देना चाहिये!''

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012




साधकको जबतक अपने पुरुषार्थ, साधन या अपनी योग्यताका स्मरण होता है तबतक वह भगवत्कृपाके परम लाभसे वंचित - सा ही रहता है! भगवत्कृपाके प्रभावसे वह सहज ही साधनके उच्च स्तरपर नहीं चढ़ सकता! परन्तु जब उसे भगवत्कृपासे ही भगवत्कृपाका भान होता है और वह प्रत्यक्षवत् यह समझ जाता है कि जो कुछ हो रहा है, सब भगवन् के अनुग्रहसे ही हो रहा है, तब उसका ह्रदय कृतज्ञतासे भर जाता है और वह पुकार उठता है 'ओहो, भगवन् ! में किसी भी योग्य नहीं हूँ! में तो सर्वथा अनधिकारी हूँ! यह सब तो आपके अनुग्रहकी ही लीला है!' ऐसे ही कृतज्ञतापूर्ण ह्रदयसे अर्जुन कह रहे हैं कि भगवन् ! आपने जो कुछ भी महत्त्व और प्रभावकी बातें सुनायी हैं, में इसका पात्र नहीं हूँ! आपने अनुग्रह करनेके लिये ही यह परम गोपनीय अपना रहस्य मुझको सुनाया है! 'मदनुग्रहाय' पदके प्रयोगका यही अभिप्राय है! 


                 - गीता -तत्त्वविवेचनी नामक पुस्तकसे 


मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012





गीताके समान संसारमें कोई ग्रन्थ नहीं है! सभी मत इसकी उत्कृष्टता स्वीकार करते हैं! अतः हमें गीताका इतना अभ्यास करना चाहिये कि हमारी आत्मा गीतमय हो जाय! हमें उसे अपने ह्रदयमें  बसाना चाहिये! गीता गंगासे भी बढ़कर है, क्योंकि गंगा भगवान् के चरणोंसे निकली है और गीता भगवान् के मुखकमलसे निकली है; गंगा तो अपनेमें स्नान करनेवालोंको ही पवित्र करती है किन्तु गीता धारण करनेसे घर बैठे हुएको पवित्र कर देती है! गंगामें स्नान करनेवाला स्वंय मुक्त हो सकता है पर गीतामें अवगाहन करनेवाला तो दूसरोंको भी मुक्त कर सकता है! 


अतएव यह सिद्ध हुआ कि गीता गंगासे भी बढ़कर है! गीताका पाठमात्र करनेवालेकी अपेक्षा उसके अर्थ और भावको समझनेवाला श्रेष्ट है और गीताके अनुसार आचरण करनेवाला तो उससे भी श्रेष्ट है! 


इसलिए सबको अर्थ और भावसहित गीताका अध्ययन करते हुए उसके अनुसार अपना जीवन बनना चाहिये! 
                                    - 'भगवद दर्शनकी उत्कंठा' नामक पुस्तकसे

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012




प्र.) जब ऐसे महापुरुषोंपर विधि- निषेध-शास्त्रका कोई शासन ही नहीं, तब वे कर्मोंका आचरण क्यों करते हैं? 


उ.) लोगोंपर दया कर केवल लोकहितके लिये! स्वंय भगवान् वासुदेव भी तो अवतार लेकर लोकहितार्थ कर्माचरण करते हैं! संतको करनेके लिये भी कहा है -- 


यद्यदाचरति श्रेष्टस्तत्तदेवेतरो जनः !
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते !!
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन !
नान्वाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्माणि !!


'श्रेष्ट पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं, वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है! हे अर्जुन! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी में कर्ममें ही बरतता हूँ!'


भगवान् के इस आदर्शके अनुसार यदि संत पुरुष आचरण करें तो इसमें उनका गौरव है और लोगोंका परम कल्याण है और इसलिए संतोंके द्वारा स्वाभाविक ही लोकहितकर कर्म होते हैं! ऐसे संतोंका जीवन लोगोंके उपकारके निमित्त ही होता है! अतएव लोगोंको भी इस प्रकारके संत बननेके लिये भगवान् की शरण होकर पद-पदपर भगवान् की दयाका दर्शन करते हुए हर समय  प्रसन्नचित्त रहना चाहिये! भगवान् को यंत्री मानकर अपनेको उनके समर्पण करके उनके हाथका यन्त्र बनकर उनके आज्ञानुसार चलना चाहिये और यह याद रखना चाहिये कि जो इस प्रकार अपने -आपको भगवान् के अर्पण कर देता है, उसके सारे आचरण भगवत्कृपासे भगवान् के अनुकूल ही होते हैं-- यही शरणागतिकी कसौटी है! इस शरणागतिसे ही भगवान् की अनन्त दयाके दर्शन होते हैं और भगवान् की दयासे ही देवताओंके द्वारा भी पूजनीय परम दुर्लभ संतभावकी प्राप्ति  होती है! 

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012




संतोंके आचरण और उपदेश 


प्र.) ऐसे संत-महात्माओंके आचरण अनुकरणीय हैं या उपदेश ?


उ.) आचरण और उपदेश दोनों ही अनुकरणीय हैं! केवल आचरण और उपदेश ही क्यों, उनके एक-एक गुनको अपने हृदयमें भलीभाँती धारण करना चाहिये! हाँ, यदि आचरण और उपदेशमें भिन्नता प्रतीत हो तो वहाँ उपदेशको ही प्रधान समझा जाता है! यधपि महापुरुषोंके आचरण शास्त्रके अनुकूल ही होते हैं और शास्त्रानुकुल  ही वे उपदेश- आदेश करते हैं, परन्तु उन पुरुषोंके तत्त्व और रहस्यको न जाननेके कारण जो-जो आचरण शास्त्रके अनुकूल न प्रतीत हों, उनका अनुकरण नहीं करना चाहिये! 


यदपि उन महापुरुषोंके लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथापि स्वाभाविक ही वे लोगों-पर दया कर लोकहितके लिये शास्त्रानुकुल आचरण करते हैं! उनसे शास्त्रविपरीत आचरण होनेके तो कोई कारण ही नहीं हैं; परन्तु शास्त्रके अनुकूल जितने कर्म होने चाहिये, उनमें स्वाभाविक उपरामताके कारण अथवा शारीरका बाह्यज्ञान न रहनेके कारण या और किसी कारण उनमें कमी प्रतीत हो तो उनको इसके लिये कोई बाध्य भी नहीं कर सकता; क्योंकि वे विधि-निषेधरूप शास्त्रसे पार पहुँचे हुए हैं! उनपर 'यह ग्रहण करो' और 'यह त्याग करो' -- इस प्रकारका शासन कोई भी नहीं कर सकता ! उनके गुण और आचरण ही सदाचार हैं! उनकी वाणी-- उपदेश -आदेश ही वेदवाणी है! फिर उनके लिये विधान करनेवाला कौन? अतएव उनके द्वारा होनेवाले आचरण सर्वथा अनुकरणीय  ही हैं, तथापि जिस आचरणमें संदेह हो, जो शास्त्रके विपरीत प्रतीत होता हो उसके लिये या तो उन्ही पुरुषोंसे पूछकर संदेह मिटा लेना चाहिये अथवा उसको छोड़कर जो शास्त्रनुकुल प्रतीत हों उन्हींके अनुसार आचरण करना चाहिये!   

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

ज्ञानमार्गी संत




प्र.)  जैसे भक्त सम्पूर्ण विश्वको साक्षात् अपना इष्टदेव भगवान् समझकर काम पड़नेपर विश्व-हितके लिये प्रसन्नतापूर्वक अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्यसहित अपने - आपको बलि - वेदीपर चढ़ा देता है, क्या ज्ञानमार्गपर चलनेवाला भी अवसर आनेपर ऐसा ही कर सकता है? 

उ.) हाँ, कर सकता है; क्योंकि प्रथम तो उसकी दृष्टिमें ऐश्वर्य और देहका कोई मूल्य ही नहीं है और दुसरे, अज्ञानी मनुष्य ऐश्वर्य और देहको आनंददायक मानकर मूल्यवान समझते हैं! अतएव इनकी दृष्टिसे उन्हें सुख पहुँचानेके लिये ज्ञानी पुरुष ऐश्वर्य और देहका त्याग कर दें -- इसमें आश्चर्य और शंका ही क्यों होनी चाहिये?

ज्ञानमार्गपर चलनेवाला पुरुष समस्त चराचर विश्वको अपने चिन्मय आत्मरूपसे ही अनुभव करता है! अतएव उसका सबके साथ आत्मवत् व्यवहार होता है! जैसे किसी समय अपने ही दाँतोंसे जीभके कट जानेपर कोई भी मनुष्य दाँतोंको दण्ड नहीं देना चाहता, वह जानता है कि दाँत और जीभ दोनों मेरे ही हैं! जीभमें तकलीफ है ही, दाँतोंमें और तकलीफ क्यों उत्पन्न की जाय! इसी प्रकार ज्ञानमार्गी संत सबको अपना आत्मा समझनेके कारण किसीके द्वारा अनिष्ट किये जानेपर भी उसे दण्ड देनेकी भावना नहीं करते! कभी-कभी यदि ऐसी कोई बात देखी जाती है तो उसका हेतु भी आत्मोपम प्रेम ही होता है! जैसे अपने दुसरे अच्छे अन्गोंकी रक्षाके लिये मनुष्य समझ-बूझकर सड़े हुए अंगको कटवा देनेमें अपना हित समझता है, इसी प्रकार संतोंके द्वारा भी विश्वहितार्थ स्वाभाविक ही कभी-कभी ऐसी क्रिया होती देखी जाती है! 

संतोंके उपर्युक्त विश्वप्रेमका तत्त्व और रहस्य बड़ा ही विलक्षण है! वास्तवमें जो संत होते है, वे ही इसको जानते हैं! ऐसे संतोंके गुण,आचरण, प्रभाव और तत्त्वका अनुभव उनका संग और सेवन करनेसे ही हो सकता है!  

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदाय



'जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदाय को भली प्रकार वशमें करके मन-बुद्धिसे परे सर्वव्यापी, अकथनीयस्वरुप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दनघन ब्रम्हाको निरंतर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं! 

परन्तु जैसे अज्ञानी मनुष्यका देहमें अहंकार, अभिमान, ममता और आसक्ति होती है, वैसे संतका विश्वमें अहंकार, अभिमान, ममता और आसक्ति नहीं होती! उनका विश्वप्रेम विशुद्ध ज्ञानपूर्ण होता है! अहंकार, अभिमान, ममता और आसक्ति आदि दोषोंको लेकर अथवा व्यक्तिगत स्वार्थवश जो प्रेम होता है, वही दूषित समझा जाता है! क्षणभंगुर, नाशवान, दृश्य पदार्थोंको सत्य मानकर उनके सम्बन्धसे होनेवाले भ्रमजन्य सुखको सुख मानकर उनमें प्रेम करना अज्ञानपूर्ण प्रेम है! ये दोनों बातें संतमें नहीं होतीं -- इसलिये उस ज्ञानी संतका प्रेम विशुद्ध और ज्ञानपूर्ण होता है! 

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

परमार्थ-पत्रावली


अभिमान और तृष्णाकी अधिकताके नाश होनेका उपाय पूछा सो भगवानके नामका जप और सत्पुरुषोँका संग ही सुगम और उत्तम है । एक भगवानके नामसे ही समस्त दोष नष्ट हो जाते हैँ, दोषोँको ठहरनेके लिए स्थान नहीँ मिलता । भगवन्नामके परायण होनेपर अन्य किसी उपायकी आवश्यकता नहीँ रह जाती । भजन-सत्संगके अधिक अभ्याससे भगवान का मर्म जाना जाता है, मर्मके ज्ञान से जब भगवानमेँ पूर्ण प्रेम हो जाता है तब शरीरमेँ प्रेमका रहना सम्भव नहीँ, जब शरीरमेँ ही प्रेम न हो तब मान-बड़ाईकी तो बात ही क्या है?

तुमने लिखा कि भगवानकी पूर्ण कृपा होनेपर भी हरामीपन नहीँ मिटता सो ठीक है परंतु भगवानकी पूर्ण कृपाका प्रभाव अभीतक विदित नहीँ हुआ हैभगवानकी कृपा का निरंतर अनुभव होते रहनेपर और अपनेको उनका कृपापात्र मान लेनेपर तो चिन्ता-फिकरका रहना सम्भव ही नहीँ है । इसके बाद भी यदि चिन्ता रह जाय तो वह प्रभुको लज्जित करनेवाली है । वास्तवमेँ अभीतक भगवत्कृपाकी पूर्णता मानी नहीँ गयी है । बिना माने फल होता नहीँ । भजनका अधिक अभ्यास हुए बिना सांसारिक कार्योँसे और लौकिक बातचितसे प्रीति का टूट जाना कठिन है । वास्तवमेँ उस कृपालुकी कृपा तो निरंतर ही सबपर पूर्ण है । मनुष्य कृपा करनेवाला कौन है?

[परमार्थ-पत्रावली]

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

परमात्मा कृपा


वे परमात्मा कृपा करके हमारा जिसमे प्रेम होता है वही प्रकट हो जाते हैं , दर्शन दे देते हैं | जिसमें प्रेम होता है उसे तो दर्शन देते ही हैं , जिसके हृदय में प्रेम नहीं है , पर जो भगवान् को चाहता है उस पर भी भगवान् दया करते हैं | इसलिए हम लोगों को कोई भी चिंता करने की जरुरत नहीं है | यदि हम उसके लायक नहीं होते तो भगवान् हमलोगों को मनुष्य बनाते ही नहीं | अगर मनुष्य बना दिया तो अब हमारे हृदय में कमजोरी आये, अश्रद्धा आये, अज्ञता आये उसे लात मार कर भगा देना है| भगवान् की हमारे पर इतनी कृपा है , इतना प्रेम है , जिन्होंने असंख्य कोटि जीवों में से चुनकर हमको यह मोका दिया है | भगवान् की इतनी दयाको , प्रेम को उपकार को हम भूल कर हम कृत्घनी बने यह कभी नहीं हो सकता | दिन में रात में जब इस बात का ख्याल आये तब सावधान हो जाना चाहिए | जहाँ हमारी बुद्धि जाय , मन जाय वहीँ भगवान् के स्वरुप का अनुभव करे | बुद्धि से हर समय यह निश्चय रखना चाहिए की परमात्मा निश्चय हैं , सब जगह हैं और भगवान् की हमारे ऊपर कृपा है | भगवान् हमे मिलेंगे |

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012




प्र.) ज्ञानके मार्गमें चलनेवालेका देह,  प्राण और आत्माके समान प्रेम क्यों और कैसे हो जाता है? 
उ.) ज्ञानके मार्गमें चलनेवाला सबके आत्माको अपना आत्मा ही समझता है! 
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ! 
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः !!


' सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त हुए आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें बर्फमें जलके सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है! 


जब सबको वह आत्मा ही समझता है तब सारे विश्वमें आत्माके सदृश उसका प्रेम होना युक्तियुक्त ही है! इसलिये जैसे देहको आत्मा माननेवाला अज्ञानी अपने ही हितमें रत रहता है, वैसे ही संत पुरुष सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत रहते हैं और ऐसे सर्वभूतहितमें रत ज्ञानमार्गी साधक ही निर्गुण परमात्माको प्राप्त होते हैं! भगवान् ने कहा है -- 


ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ! 
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थ्मचलं ध्रुवम् !!
संनिय्म्येन्द्रियेग्रामं सर्वत्र  समबुध्दयः ! 
ते प्राप्रुवंती मामेव सर्वभुतहिते रताः !!   (गीता १२/ ३-४) 

परमार्थ-पत्रावली

'मन के पाजीपन के सम्बन्धमेँ लिखा' सो ठीक है । कोई चिन्ता नहीँ, प्रेम और हर्षपूर्वक निरंतर परमात्माके नामका स्मरण होता रहे इस बातकी चेष्टा बड़े जोर के साथ करनी चाहिए । ध्यानके समय आलस्य आवे तो आँखेँ खोल लेनी चाहिए, फिर भी आलस्य दूर न हो तो सद्ग्रंथ देखना चाहिएइतने पर भी आलस्य रहे तो खड़े होकर टहलते हुए नाम-जप करना चाहिए, यदि किसी तरह भी आलस्य न जाय तो कुछ समय सो जाना उचित है, आलस्यके अधिक होनेमेँ भगवानमेँ प्रेम के अभाव और पापोँकी अधिकता ही कारण है । भगवन्नाम-जप और सत्संग के तीव्र अभ्यास बिना कलियुगमेँ पापोँका नाश होना कठिन है । भजन अधिक होनेपर यह प्रतीत होने लगेगा कि समस्त संसार कालके द्वारा प्रत्यक्ष नष्ट हो रहा है । सत्संग से भजन अधिक होता है । भजन की अधिकतासे भगवानमेँ प्रेम और संसारमेँ वैराग्य होता है, वैराग्यका प्रादुर्भाव हो जानेपर बिना ही चेष्टाके परमात्माका ध्यान रहने लगता है, तब ध्यानके लिए विशेष साधन करनेकी आवश्यकता नहीँ रह जाती

[परमार्थ-पत्रावली]

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

परमार्थ-पत्रावली



 संसार मेँ भगवद्भावका प्रचार करनेवाले कई मनुष्य तैयार हो जायँ तो बहुत शीघ्र श्रीभगवद्भक्तिका प्रचार हो सकता है, किन्तु विद्वान त्यागी और सदाचारी पुरुषोँ की अत्यंत आवश्यकता है । ऐसे व्यक्ति स्वयं प्रेममेँ मग्न होकर संसारमेँ भगवत्प्रेम, भक्तिका प्रचार करेँ तो प्रेमका बहुत तेज प्रवाह बह सकता है ।

निष्काम प्रेम-भावसे सबकी 'परम सेवा' करने के सदृश अन्य कोई भी कार्य नहीँ है । परम सेवा वास्तवमेँ उसी को कहते हैँ कि जिस सेवा के करने के पश्चात कुछ भी कार्य शेष न रहे, अर्थात् संसारी मनुष्योँको भगत्प्रेममेँ लगाकर उन्हेँ भगवान के परमधाम मेँ पहुँचा देनेका नाम ही वास्तवमेँ 'परम सेवा' है । यद्यपि भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी, असमर्थ तथा भिक्षुक आदिकोँ अन्न, वस्त्र, औषध एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो उस वस्तु के द्वारा उन सबको सुख पहुँचाकर तथा श्रेष्ठ आचरणोँवाले योग्य विद्वान ब्राह्मण जनोँ को धनादि सब पदार्थोँ के द्वारा सुख पहुँचाना भी एक प्रकारकी सेवा ही है तथापि परम सेवा तो उसी का नाम हो सकता है कि जिस सेवा के करने के पश्चात् अन्य कुछ भी करना शेष न रहे । ऐसी सेवा के समान और कोई भी सेवा नहीँ हो सकती । इसलिए तुमको भी निष्काम प्रेम-भाव से सब जीवोँकी परम सेवा करनी चाहिए ।

अपने तन, मन, धन तथा और भी जो कुछ पदार्थ होँ वे यदि सम्पूर्ण सांसारिक जीवोँ के उद्धार के लिए, उनकी सेवा के कार्यमेँ आ जावेँ तो वे सार्थक हैँ, और जो पदार्थ उनकी सेवा के बिना शेष रहेँ वे निरर्थक हैँ । इस प्रकार समझकर उनकी परम सेवा करनी चाहिए । ऐसा करने से सब जीवोँ से बहुत प्रेम हो सकता है एवं सब जीवोँके साथ जो निष्काम प्रेम है वह प्रेम भगवान के साथ ही है, क्योँकि भगवान ही सब जीवोँ की आत्मा है ।

[परमार्थ-पत्रावली]