※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -७-


 ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ शुक्ल, प्रतिपदा, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 सत्संग और कुसंग  -७-
 


 गत ब्लॉग से आगे…..  उपर्युक्त विवेचन श्रीभगवान् और सच्चे अधिकारी महापुरुषों के सम्बन्ध में है ऐसे महापुरुष कोई विरले ही होते है इस सिद्धान्त का दुरूपयोग करके जो दुराचारी लोग शास्त्रों तथा भगवान् का खण्डन करते हुए दम्भपूर्वक स्वयं अपने को भगवान् या महापुरुष बतलाकर अपने कल्पित मिथ्या नाम का जप-कीर्तन करवाते है, अपने नश्वर शरीर को पुजवाते, लोगो को अपना उचिष्ट, अपने चरणों की धूलि और चरणामृत देते, अपने चित्र का ध्यान करवाते और इस प्रकार जनता को धोखा देकर स्वार्थ-साधन करते है, वे वस्तुत: बड़ा पाप करते है ऐसी लोगों को महापुरुष मानना बड़े-से-बड़े धोखे में पडना है तथा ऐसे लोगों का सँग करना बड़े-से-बड़ा कुसंग है

असल में यह एक सिद्धान्त है की जिस प्रकार के भाववाले पुरुष का संसर्ग जिस मात्रा में चेतनाचेतन पदार्थों को प्राप्त होता है, उसी प्रकार के भावों का उसी मात्रा में न्यूनाधिकरूप से उनमे प्रवेश होता है और यह प्रवेश जैसे महात्माओं के भावों का होता है वैसे ही दुरात्माओं के भावों का भी होता है महात्माओं का भाव जैसे सच्चे श्रद्धालु व्यक्तियों पर तथा सात्विक पदार्थों पर विशेष प्रभाव पडता है, वैसे ही दुराचारियों के भावों का दुराचारपरायण व्यक्तियों एवं राजस-तामस पदार्थों पर विशेष प्रभाव पडता है इसीलिये अब यहाँ कुसंग के फल संक्षेप में विचार किया जाता है     ......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -६-


 ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, अमावस्या, गुरुवार, वि० स० २०७०


 सत्संग और कुसंग  -६-

  गत ब्लॉग से आगे….. इस संसार में जितने भी तीर्थ है, सब केवल दो के ही सम्बन्ध से बने हुए है-(१)भगवान् के किसी भी स्वरुप या अवतार का प्रागट्य, निवास, लीलाचारित्रादी के होनें से और (२) महापुरुषों के निवास, तप, साधन, प्रवचन या समाधि आदि के होने से । देशगत अच्छे परमाणुओं का परिणाम प्रत्यक्ष है । आज भी जो लोग घर छोड़कर पवित्र तीर्थ या तपो-भूमि में निवास करते है, उनको अपनी-अपनी श्रद्धा तथा भाव के अनुसार विशेष लाभ होता ही है । इसका कारण यही है की उक्त भूमि, जल तथा वातावरण में ईश्वर के लीलाचरित्रादी के या महात्माओं के तपस्या, भक्ति, सदाचार, सद्गुण, सद्भाव,ज्ञान आदि के शक्तिशाली परमाणु व्याप्त है ।

विशेष और शीघ्र लाभ तो वे साधक प्राप्त कर सकते है, जो ईश्वर और महापुरुषों की इच्छा का अनुसरण, आचरणों का अनुकरण और आज्ञा का पालन करते है । जो भाग्यवान पुरुष महापुरुषों की आज्ञा की प्रतीक्षा न करके सारे कार्य उनकी रूचि और भावों के अनुकूल करते है, उन पर भगवान् की विशेष कृपा माननी चाहिये । यों तो श्रेष्ठ पुरुषों का अनुकरण साधारण लोग ही किया करते है । इसीलिये श्रीभगवान् ने भी कहा है-

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (गीता ३/२१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते है वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है

पर जो श्रद्धा-विश्वासपुर्वक महापुरुषों के चरित्र का अनुकरण और उसके द्वारा निर्णीत मार्ग का अनुसरण करते है, वे विशेष लाभ प्राप्त करते है

इसी प्रकार भगवान् और महात्माओं के चरित्र, उपदेश, ज्ञान, महत्व तत्व, रहस्य आदि की बातें जिन ग्रन्थों में लिखित हैं, महात्माओं के और भगवान् के चित्र जिन दीवालों तथा कागजों पर अंकित है; यहाँ तक की महात्माओं की और भगवान् की स्मृति दिलानेवाली जो-जो वस्तुएँ है-उन सबका सँग भी सत्संग ही है तथा श्रद्धा-विश्वास के अनुसार सभी को लाभ पहुचाने वाला है
 
जिस प्रकार स्वाभाविक ही मध्ह्यानकाल के सूर्य से प्रखर प्रकाश, पूर्णिमा के चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से अमृत एवं अग्नि से उष्णता प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार महात्मा पुरुष के सँग से स्वाभाविक ही ज्ञान का प्रकाश, शान्ति की सुधाधारा एवं साधन में तीक्ष्णता और उतेजना प्राप्त होती है

इसलिये सभी को चाहिये की अपनी इन्द्रियों को, मन को, बुद्धि को नित्य-निरन्तर महापुरुषों के सँग में और उन्ही विषयों में लगाये जो भगवान् तथा महापुरुषों के संसर्ग या सम्बन्ध से भगवद्भाव-सम्पन्न हो चुके है ऐसा करने पर उन्हें सर्वत्र तथा सर्वदा सत्संग ही मिलता रहेगा ......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

बुधवार, 29 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, त्रयोदशी, बुधवार, वि० स० २०७०

 सत्संग और कुसंग  -५-

 
 गत ब्लॉग से आगे…..  ऐसे महात्माओं की वाणी से भी उनके हृदयगत भावों का विकास होता है; इससे उसे सुननेवालों पर यथाधिकार-जो जैसा पात्र होता है तदनुसार प्रभाव पड़ता ही है, साथ ही वह वाणी (शब्द) नित्य होने के कारण सारे आकाश में व्याप्त होकर स्थित हो जाती है और जगत के प्राणियों का सदा सहज ही मंगल किया करती है । जहाँ उनकी वाणी का प्रथम प्रादुर्भाव होता है, वह स्थान और वहाँ का वायुमण्डल विशेष प्रभावोत्पादक बन जाता है । इसी प्रकार उनके शरीर का स्पर्श होने से भी लाभ होता है । भावों के परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होते है, इससे उनको प्रत्यक्ष प्रतीति नही होती; पर वे वैसे ही सद्भाव का प्रसार करते है जैसे प्लेग के कीटाणु रोग का विस्तार करते है ।

ऐसे महापुरुषों की प्रत्येक क्रिया सर्वोत्तम दिव्य चरित्र, गुणों और भावों से ओत-प्रोत रहती है; अतएव उनके चिन्तनमात्र से-स्मृतिमात्र से उनके चरित्र, गुण और भावो का प्रभाव दूसरों के ह्रदय पर पड़ता है । नाम की स्मृति आते ही नामी के स्वरुप का स्मरण होता है । स्वरुप के स्मरण से भी क्रमश: चरित्र, गुण और भावों की स्मृति हो जाती है, जो ह्रदय को उन्ही भावों से भरकर पवित्र बना देती है । वस्तुत: महापुरुष का मानसिक सँग बहुत लाभदायक होता है; चाहे महात्मा किसी साधक का   स्मरण कर ले या साधक किसी महात्मा का स्मरण कर ले । अग्नि घास पर पड जाय या घास अग्नि पर पड जाय, अग्नि का संसर्ग उसके घास स्वरुप को मिटाकर उसे तुरन्त अग्नि बना देगा ।
 
इसी प्रकार ज्ञानाग्नि से परिपूर्ण अधिकारी महात्मा के सँग से साधक के दुर्गुण और दुराचारों का तथा अज्ञान का नाश हो जाता है, चाहे वह संसर्ग महामाओं के द्वारा हो या साधकों के द्वारा । महात्मा स्वयं आकर दर्शन दे तब तो वह प्रत्यक्ष ही केवल श्रीभगवान् की अपार कृपा का ही फल है, परन्तु यदि साधक अपने प्रयत्न से महात्मा से मिले तो इससे साधक के अन्तकरण में शुभ संस्कार अवश्य सिद्ध होते है, क्योकि शुभ  संस्कार हुए बिना महात्मा के मिलने की इच्छा और चेष्टा ही क्यों होने लगी, तथापि इसमें प्रधान कारण भगवान् की कृपा ही है ।  ‘बिनु हरी कृपा मिलही नही संता ।’ ......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -४-


 ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, द्वादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 सत्संग और कुसंग  -४-

 
 गत ब्लॉग से आगे…..  महात्मा पुरुषों के भी शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि मायिक होते है परन्तु परमात्मा की प्राप्ति के प्रभाव से वे साधारण मनुष्य की अपेक्षा पवित्र, विलक्षण और दिव्य हो जाते है । अतएव उनके दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप से तो लाभ होता ही है, मन के द्वारा उनका स्मरण हो जाने से बड़ा लाभ होता है । जब एक कामिनी के दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन से कामी पुरुष के ह्रदय में काम का प्रादुर्भाव हो जाता है तब भगवतप्राप्त महापुरुष के दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तन से साधक के ह्रदय में तो भगवद्भाव और ज्ञान का प्रदुर्भाव अवश्य होना ही चाहिये ।                 

  ऐसे महापुरुषों के ह्रदय में दिव्य गुणों का अपार शक्तिसम्पन्न समूह भरा रहता है, जिसके दिव्य बलशाली परमाणु नेत्रमार्ग से निरन्तर बाहर निकलते रहते है और दूर दूर तक जाकर जड-चेतन सभी पर अपना प्रभाव डालते रहते है । मनुष्यों पर तो उनके अपने-अपने भावानुसार न्यूनाधिकरूप में प्रभाव पड़ता ही है, विविध पशु-पक्षियों तथा जड आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वृक्ष, पाषण, काष्ठ, घास आदि पदार्थों तक पर भी असर पड़ता है । उनमे भी भगवतभाव के पवित्र परमाणु प्रवेश कर जाते है ।
 
ऐसे महात्मा जिस पशु-पक्षी को देख लेते है, जिस वायुमण्डल में रहते है, जो वायु उनके शरीर को स्पर्श करके जाता है, जिस अग्नि से वे अग्निहोत्र करते है, रसोई बनाते या तापते है, जिस सरोवर या नदी में स्नान-पान करते है, जिस भूमि पर निवास करते है, जिस वृक्ष का किसी प्रकार उपयोग करते है, जिस पाषाणखण्ड का स्पर्श कर लेते है, जिस चोकी पर बैठ जाते है और जिन तृणअंकुरों पर अपने पैर रखदेते है, उन सभी में भगवदभाव के परमाणु न्यूनाधिकरूप से स्थित हो जाते है और उन वस्तुओं को जो काम में लेते है या जिन-जिनको उनका संसर्ग प्राप्त होता है-उन लोगों को भी बिना जाने-पहचाने भी सद्भाव की प्राप्ति में लाभ होता है । जिनमे श्रद्धा, ज्ञान तथा प्रेम होता है, उनको यथापात्र विशेष लाभ होता है ।......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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सोमवार, 27 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -३-


 ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, एकादशी, सोमवार, वि० स० २०७०

 सत्संग और कुसंग  -३-

 
गत ब्लॉग से आगे….. इस प्रकार जिन को अग्नि का ज्ञान भी नही था, उन्होंने भी अग्निके स्वभाववश उसके निकट रहने के कारण गरमी प्राप्त की, जिन्हें ज्ञान था पर श्रद्धा नहीं थी, उन लोगों ने केवल रोशनी-रसोई का लाभ उठाया । ज्ञान-श्रद्धा के साथ सकामभाव से अग्निहोत्र करनेवाले ने सकाम सिद्धि पाई और निष्कामी पुरुष ने परमात्मविषयक लाभ उठाया ।

इसी प्रकार किसी महापुरुष का यदि संग हो जाय और उन्हें पहचाना भी न जाय तो भी उसके स्वाभाविक तेज से पापरुपी ठंड का तो नाश होता ही है, जो लोग महात्मा को किसी किसी अंश में ही जानते है और उनसे साधारण क्षणिक लाभ उठाते है, उन्हें साधारण क्षणिक लाभ मिल जाता है ।
 
जिनमे श्रद्धा है पर साथ ही सकाम भाव है, वे उनका सँग करके इस लोक और परलोक के भोगों की प्रप्तिरूप वैषयिक लाभ प्राप्त करते है और जो लोग उन्हें भलीभांति पहचानकर श्रद्धा के साथ निष्काम भाव से उनका सँग करते है, वे परमात्मप्राप्ति विषयक लाभ उठाते है ।
 
इस प्रकार महात्मा के अमोघ सँग से लाभ सभी को होता है, पर होता है अपनी अपनी भावना के अनुसार ।......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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रविवार, 26 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -२-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, दशमी, रविवार, वि० स० २०७०

 सत्संग और कुसंग  -२-

 
 गत ब्लॉग से आगे…..  श्रीनारदजी ने भक्तिसूत्र में कहाँ है-‘महात्माओं का सँग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है ।’ (नारद० सू० ३९)

अपने-अपने भाव के अनुसार लाभ कैसे होता है ? इस पर एक कल्पित दृष्टान्त है । दो ब्राह्मण किसी जंगल के मार्ग से जा रहे थे । दोनों अग्निहोत्री थे । एक सकाम भाव से अग्नि की उपासना करने वाला था, दूसरा निष्काम भाव से । रास्ते में बड़े, जोर की आंधी और वर्षा आ गयी । थोड़ी ही दूर पर एक धर्मशाला थी । वे दोनों किसी तरह धर्मशाला में पहुचे । अँधेरी रात्री थी और जाड़े के दिन थे । धर्मशाला में दूसरे लोग भी ठहरे हुए थे और वे सभी प्राय: सर्दी से ठिठुर रहे थे । धर्मशाला में और सब चीजे थी, पर अग्नि का कहीं पता नहीं लगता था । न किसी के पास दियासलाई ही थी
 
उन दोनो ब्राह्मणों ने जाकर आग्नि की खोज आरम्भ की । उन्हें एक जगह कमरे के आस-पास बैठे हुए लोगों ने बतलाया की हमे तो जाड़ा नहीं लग रहा है, पता नहीं कहाँ से किस चीज की गरमी आ रही है । उन लोगों ने उस कमरे को खोल कर देखा तो तो पता लगा उसमे राख से ढकी आग है । इसी आगकी गरमी से कमरा गरम था, शेष सारी धर्मशाला में सर्दी छायी थीं ।  जब आग का पता लग गया, तब सब लोग प्रसन्न हो गए । पहले से ठहरे हुए जिन लोगों को अग्नि में श्रद्धा नहीं थी और जो केवल अग्नि से रौशनी और रसोई की अपेक्षा रखते थे, उनोने उससे रोशनी की और रसोई बनाई ।
 
दोनों अग्निहोत्री ब्राह्मणों ने, जिनकी अग्नि के ज्ञान  के साथ ही उनमे श्रद्धा थी, रोशनी तथा रसोई का लाभ तो उठाया ही, पर साथ ही अग्निहोत्र भी किया । इनमे जो सकाम भाव वाला था, उसने सकामभाव से अग्निहोत्र करके लौकिक कामना-सिद्धरुप सिद्धि प्राप्त की और जो निष्कामभाव वाला था, उसने अपने निष्कामभाव से अग्निहोत्र करके अन्त:करण की शुद्धि के द्वारा परमात्मप्राप्ति विषयक परम लाभ उठाया । ......शेष अगले ब्लॉग में  

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शनिवार, 25 जनवरी 2014

सत्संग और कुसंग -१-


।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ कृष्ण, नवमी, शनिवार, वि० स० २०७०
 
 सत्संग और कुसंग  -१-
 
महापुरुषों की महिमा और उनके सँग का फल
 
जिस प्रकार भगवान् के महान आदर्श चरित्र और गुणों की महिमा अनिवर्चनीय है, उसी प्रकार भगवतप्राप्त सन्त महापुरुषों के पवित्रतम चरित्र और गुणों की महिमा का भी कोई  वर्णन नहीं कर सकता । ऐसे महापुरुषों में समता, शान्ति, ज्ञान, स्वार्थत्याग और सौहार्द आदि पवित्र गुण अतिशयरूप में होते है, इसी से ऐसे पुरुषों के सँग की महिमा शास्त्रों में गायी गयी है ।
 
श्री तुलसीदासजी महाराज कहते है-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरीअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग ।।
ठीक यही भाव श्रीमद्भागवतम के इस श्लोक में  है-
  श्लोक संख्या (१|१८|१३) ‘भगवतसंगी अर्थात नित्य भगवान् के साथ रहने वाले अनन्य प्रेमी भक्तों के निमेषमात्र के भी सँग के साथ हम स्वर्ग और मोक्ष की भी  समानता नही कर सकते, फिर मनुष्य के इच्छित पदार्थों की तो बात ही क्या है ?’
 
भगवतप्रेमी महापुरुषों के एक निमेष के सत्संग के साथ स्वर्ग-मोक्ष किसी की भी तुलना नहीं होती-यह बात उन्ही लोगों की समझ में आ सकती है, जो श्रद्धा तथा प्रेम के साथ नित्य सत्संग करते है ।
 
प्रथम तो संसार में ऐसे महापुरुष है बहुत कम । फिर उनका मिलना दुर्लभ है और मिल जाय तो पहचानना अत्यन्त दुर्लभ है । तथापि यदि ऐसे महापुरुषों का किसी प्रकार मिलना हो जाय तो उससे अपने-अपने भाव के अनुसार लाभ अवश्य होता है; क्योकि उनका मिलना अमोघ है  । ......शेष अगले ब्लॉग में  
 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
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शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -१०-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, अष्टमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -१०-

 

गत ब्लॉग से आगे…..  संसार के विषयों को विष के समान समझकर इनका त्याग करना चाहिये; क्योकि विष से तो मनुष्य एक जन्म में ही मरता हैं, किन्तु विषयों के सुखोपभोग से तो मरने का ताँता ही लग जाता है ।

 

हरेक काम में स्वार्थ, आराम और अहंकार को दूर रखकरव्यवहार करना चाहिये; फिर आपका व्यव्हार उच्च कोटि का हो सकता है ।

 
किसी व्यक्ति ने अपनी सेवा स्वीकार कर ली तो उनकी अपने पर बड़ी दया माननी चाहिये ।

 
किसी कार्य में मान-बडाई हो, वहाँ मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा दुसरे को देनी चाहिये तथा स्वयं मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा से हट जाना चाहिये ।

 
असली बात तो यह है की एक मिनट भी जो भगवान् को भूलना है, वह बड़ी भारी खतरे की चीज है ; क्योकि जिस क्षण भगवान् की विस्मृति हो जाती है, उस क्षण यदि हमारे प्राण चले जाय तो हमारे लिए बहुत खतरा है ; इसलिए बचे हुए जीवन का एक क्षण भगवान् की स्मृति के बिना नही जाना चाहिये । यदि आप कहे की रात्रि में सोते हुए प्राण निकल गए तो क्या उपाय है, तो इसके लिए आप चिंता न करे । जाब आपके जाग्रत अवस्था में १८ घंटे निरन्तर भजन होने लगेगा तो उसके बल से रात्रि में सोते हुए स्वप्न में भी आपके प्राय: भजन ही होना सम्भव है ।                   


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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गुरुवार, 23 जनवरी 2014

आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -९-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, सप्तमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 
आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -९-

 

गत ब्लॉग से आगे….. मनुष्य संसार में लोग अपनी निन्दा करें, अपमान करें तो उससे अपने को खुश होना चाहिये और यदि लोग अपनी प्रशंसा करे, सम्मान करे तो उससे लज्जित होना चाहिये ।

 

कुसंग कभी न करे । मनुष्य सत्संग से तर जाता है और कुसंग से डूबता है ।
 

सत्संग में सुनी हुई बातों को एकान्त में बैठकर मनन करे और उनको काम में लाने की पूरी चेष्टा करे ।

 
पाप, भोग, आलस्य और प्रमाद-ये चार नरक में ले जानेवाले है । इनका सर्वथा त्याग करे ।

 
यह निश्चय कर ले की प्राण भले ही चले जाँय पाप तो कभी करना ही नहीं है । भारी-से-भारी  आपति आ जाय, तब भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये और सदा ईश्वर को याद रखना चाहिये ।

 

मनुष्य जो चिंता, भय, शोक से व्याकुल होता है, इसमें प्रारब्ध हेतु नहीं है । सिवा मूर्खता के इनके होने का कोई अन्य कारण नही है । मनुष्य थोडा-सा विचार करके इस मूर्खता को हटा दे तो से सरलता से मिट सकते है ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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बुधवार, 22 जनवरी 2014

आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, षष्ठी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -८-

 
गत ब्लॉग से आगे…..अभ्यास के साथ वैराग्य की बड़ी आवश्यकता है ।  वैराग्य होने से मन वश में हो सकता है । वैराग्य होता है-वैराग्यवान पुरुषों के सँग करने से । जैसे चोर का सँग करने चोर के भाव हो जाते है और व्यभिचारी के सँग से व्यभिचार के भाव आते है, उसी प्रकार विरक्त पुरुषों का सँग करने से वैराग्य आपने-आप होने लगता है ।

 
वैराग्य ही आनन्द है, वैराग्य के समान त्रिलोकी का राज्य भी तुच्छ है । वैराग्य से भी अधिक आनन्द है उपरति में और उपरति से भी अधिक आनन्द है परमात्मा के ध्यान में । संसार में प्रीति न होना वैराग्य है और संसार की और वृति न होना उपरति है ।

 
भगवान् के भजन-ध्यान में मन न लगे, तब भी हठपूर्वक भजन-ध्यान करते रहना चाहिये । आगे जाकर आप ही मन लग सकता है ।

 
भगवान् से यह प्रार्थना करनी चाहिये की प्रभो ! अपना नित्य सुख थोडा सा भी दे दीजिये, किन्तु यह संसार का लम्बा-चौड़ा सुख भी किसी कामका नहीं ।

मनुष्य को अपने मन, बुद्धि और इन्द्रयों में भगवान् का भजन-ध्यान करना चाहिये । जो मनुष्य भगवान् का भजन-ध्यान करता है, उसको स्वयं भगवान् मदद देते है । इसलिए निराश नहीं होना चाहिये; बल्कि यह विश्वाश रखना चाहिये की ईश्वर का हमारे सिर पर हाथ है, अत: हमारी विजय में कोई शंका नहीं; ईश्वर और महात्मा की कृपा के बल पर ऐसा कोई काम नही, जो हम न कर सके । हमे बड़ा अच्छा मौका मिला है । इसे पाकर अपना काम बना लेना चाहिये, निराश नही होना चाहिये ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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