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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ कृष्ण, त्रयोदशी, बुधवार, वि० स० २०७०
सत्संग और कुसंग -५-
गत ब्लॉग से
आगे….. ऐसे महात्माओं की वाणी से भी उनके हृदयगत भावों
का विकास होता है; इससे उसे सुननेवालों पर यथाधिकार-जो जैसा पात्र होता है तदनुसार
प्रभाव पड़ता ही है, साथ ही वह वाणी (शब्द) नित्य होने के कारण सारे आकाश में
व्याप्त होकर स्थित हो जाती है और जगत के प्राणियों का सदा सहज ही मंगल किया करती
है । जहाँ उनकी वाणी का प्रथम प्रादुर्भाव होता है, वह स्थान और वहाँ का वायुमण्डल
विशेष प्रभावोत्पादक बन जाता है । इसी प्रकार उनके शरीर का स्पर्श होने से भी लाभ
होता है । भावों के परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होते है, इससे उनको प्रत्यक्ष प्रतीति
नही होती; पर वे वैसे ही सद्भाव का प्रसार करते है जैसे प्लेग के कीटाणु रोग का
विस्तार करते है ।
ऐसे महापुरुषों की प्रत्येक क्रिया सर्वोत्तम दिव्य
चरित्र, गुणों और भावों से ओत-प्रोत रहती है; अतएव उनके चिन्तनमात्र
से-स्मृतिमात्र से उनके चरित्र, गुण और भावो का प्रभाव दूसरों के ह्रदय पर पड़ता है
। नाम की स्मृति आते ही नामी के स्वरुप का स्मरण होता है । स्वरुप के स्मरण से भी
क्रमश: चरित्र, गुण और भावों की स्मृति हो जाती है, जो ह्रदय को उन्ही भावों से
भरकर पवित्र बना देती है । वस्तुत: महापुरुष का मानसिक सँग बहुत लाभदायक होता है;
चाहे महात्मा किसी साधक का स्मरण कर ले या साधक किसी महात्मा का स्मरण कर
ले । अग्नि घास पर पड जाय या घास अग्नि पर पड जाय, अग्नि का संसर्ग उसके घास
स्वरुप को मिटाकर उसे तुरन्त अग्नि बना देगा ।
इसी प्रकार ज्ञानाग्नि से परिपूर्ण
अधिकारी महात्मा के सँग से साधक के दुर्गुण और दुराचारों का तथा अज्ञान का नाश हो
जाता है, चाहे वह संसर्ग महामाओं के द्वारा हो या साधकों के द्वारा । महात्मा
स्वयं आकर दर्शन दे तब तो वह प्रत्यक्ष ही केवल श्रीभगवान् की अपार कृपा का ही फल
है, परन्तु यदि साधक अपने प्रयत्न से महात्मा से मिले तो इससे साधक के अन्तकरण में
शुभ संस्कार अवश्य सिद्ध होते है, क्योकि शुभ
संस्कार हुए बिना महात्मा के मिलने की इच्छा और चेष्टा ही क्यों होने लगी,
तथापि इसमें प्रधान कारण भगवान् की कृपा ही है ।
‘बिनु हरी कृपा मिलही नही संता ।’ ......शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!