※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

कल्याण प्राप्ति की कई युक्तियां -4-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, एकादशी  श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०
                          

गंगाजी के प्रवाह का, हवा, पशु, पक्षीआदि का जो शब्द सुनाई दे उसमे ऐसी भावना करे की शब्द ही भगवान है | किसी प्रकार का भी शब्द सुनाई क्यों न दे ‘नादं ब्रह्म’ शब्द को ही ब्रह्म समझे |जो कुछ भी सुनाई दे वह भगवान है | चाहे कोई गाली दे, चाहे आशीर्वाद दे, दोनों को ही भगवान समझे | यदि गाली सुनकर हमे दुःख होता है तो फिर हमने शब्द को भगवान कहा समझा ? भगवान समझने पर तो आनन्द-ही-आनन्द होगा | भगवान के दर्शनों से जो आनन्द है, गाली को सुनने से भी उसी आन्नद का अनुभव करे, इस बात से भी कल्याण हो जाता है |

संकल्पमात्र (स्फुरणामात्र) को भगवान का स्वरुप समझकर एकान्त में आँखे मीचकर बैठ जावे | मन जहाँ जाता है और जो कुछ देखता है सब भगवान है ऐसी भावना करे | यह निश्चय कर ले की मेरा मन भगवान के सिवा और किसी वस्तु का चिन्तन नहीं करता है | मन घट, पट आदि जिस किसी भी पदार्थ का चिन्तन करे उसकी को भगवान समझ ले, उसमे भगवद बुद्धि करले | यह विश्वास कर ले की जो कुछ मन चिन्तन करता है वह भगवान है | भगवान का स्वरुप वही है जो मन चिन्तन करता है | चाहे वह स्त्री, पुत्र, धन आदि का ही चिन्तन करे; उनको स्त्री,पुत्र एवं धन न समझे,किन्तु भगवान समझे |पत्थर तथा वृक्ष जिस किसी का भी चिन्तन करे सब भगवान है | जैसा दीखे वैसा ही भगवान का स्वरुप मान ले | यह भी कल्याण प्राप्ति का सीधा रास्ता है | ऊपर जितनी बाते बतलाई गयी है, उनमे से एक-एक के पालन से कल्याण हो सकता है | हाँ, यह बात जरुर है की श्रधा और रूचि के तारतम्य के कारण किसी साधन में समय अधिक लगता है और किसी में कम | लेकिन कल्याण सभी से होता है |....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, भगवत्प्राप्ति के विविध उपाय पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

रविवार, 29 सितंबर 2013

कल्याण प्राप्ति की कई युक्तियां -3-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, दशमी  श्राद्ध, रविवार, वि० स० २०७०

वृक्ष, पत्थर, मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादि संसार की जो भी वस्तुएँ दिखलाई दे उन सबमे यह भाव करे की भगवान ने ही ये सब रूप धारण कर रखे है | मन से कहे जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ जाओ,सब रूप तो भगवान ने ही  धारण कर रखे है | जो भी वस्तुये दिखलाई देती है वे सब परमात्मा नारायण के ही रूप है | सारे संसार में सबको भगवान का ही रूप समझकर मन-ही-मन भगवदबुद्धि से सबको प्रणाम करे | एक परमात्मा ने ही अनन्त रूप धारण कर लिए है, इस प्रकार के अभ्यास से भी कल्याण हो जाता है | इस प्रकार शास्त्रों में बहुत उपाय बतलाये गये है | जिसको जो मालूम हो पड़े उसको उसी का साधन करना चाहिये | क्योकि उनमे से किसी भी एक का साधन करने से कल्याण हो सकता है |
वृतिया दो है  अनुकूल और प्रतिकूल | जो मन को अच्छी लगे वः अनुकूल एवं जो मन के विरुद्ध हो वह प्रतिकूल कही जाती है | कोई भी काम जो मन के अनुकूल होता है उसमे स्वाभाविक ही प्रसन्नता होती है और जो मन के प्रतिकूल होता है उसमे दुःख होता है | उस दुःख को भगवान का भेजा हुआ पुरूस्कार समझकर उसमे से प्रतिकूलता को निकाल दे और यह विचार करे की जो कुछ भी होता है भगवान की इच्छा से होता है | भगवान की इच्छा के बिना पेड़ का एक पत्ता तक नहीं हिल सकता |
हम लोग अनुकूल में तो प्रसन्न होते है और प्रतिकूल में द्वेष करते है | भला इस प्रकार कही भगवान मिल सकते है ? भगवान की प्रसन्नता में ही प्रसन्नता का निश्चय करना चाहिये | जो बात मन के अनुकूल होती है उसमे तो ऐसा निश्चय करने में कोई कठिनाई है ही नहीं, लेकिन जो मन के प्रतिकूल हो उसको अनुकूल बना लेना चाहिये | स्मरण रखना चाहिये की भगवान के प्रतिकूल तो वह है नहीं, उनके प्रतिकूल होता तो होता ही कैसे ? इस साधना से भी उद्धार हो सकता है |
वाणी से सत्य बोले,व्यवहार सत्य करे, सत्य का आचरण करे | इससे कल्याण हो सकता है |
साँच बरोबर तप नही झूठ बरोबर पाप |
जाके हिरदै साँच है ताके हिरदै आप ||
सारे संसार में जितने पदार्थ रूप में दिखलाई देते है वे सब सचमुच नाशवान है | वे जैसे है हमारी आँखों के सामने है | उन सब पदार्थो में समबुद्धि कर ले | उनमे से भेदभाव उठा ले | किसी भी वस्तु में भेद न रखे | जैसे शरीर में अपनापन है, भेद नहीं, अंगो में अंतर नहीं; इसी तरह एक-दुसरे में भेद न रखे | सबमे समता कर ले, भेदबुद्धि उठा दे| इस भेदबुद्धि के उठाने से भी कल्याण हो जायेगा |....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, भगवत्प्राप्ति के विविध उपाय पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

 

शनिवार, 28 सितंबर 2013

कल्याण प्राप्ति की कई युक्तियां -2-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, नवमी  श्राद्ध, शनिवार , वि० स० २०७०

 

उठते, बैठते, चलते हर समय नामही का जप किया जाये | नाम को कभी भी न भूले, यह भगवतप्राप्ति का बहुत सुगम उपाय है | कहा भी है

कलिजुग केवल नाम आधारा | सुमिरि सुमिरि भव उतराहू पारा ||

सुमिरि पवनसुत पवन नामु | अपने बस कर राखे रामु ||

अपितु अजामिलु गजू गनिकाऊ | भये मुकुत हरी नाम प्रभाउ ||

एक ऐसा साधन भी है जिससे हर समय आनन्द रहता है और जिसमे परिश्रम भी नही करना पडता | वह है आनन्दमय का अभ्यास | ‘आनन्दमयो अभ्यासात |’ (ब्र० सू० १|१|१२) ‘आनन्द परमात्मा का स्वरूप् है |’ चारो तरफ भीतर-बाहर आनंद-ही-आनन्द भरा हुआ है, सारे सन्सार में आनंद छाया हुआ है | यदि ऐसा दिखलाई न दे तो वाणी से केवल कहते रहो और मन से मानते रहो | जल में डूब जाने, गोता खा जाने के सामान निरन्तर आनंद में ही डूबे रहो और गोता लगते रहो | रात-दिन आनंद में मग्न रहे | किसी की मृत्यु हो जाये, घर में आग लग जाये अथवा और भी कोई अनिष्ट कार्य हो जाये तो आनन्द-ही-आनन्द, कुछ भी हो केवल आनन्द-ही-आनन्द | इस प्रकार का अभ्यास करने से सम्पूर्ण दुःख एवं क्लेश नस्ट हो जाते है | वाणी से उच्चारण करे तो केवल आनंद ही का, मन से मनन करे तो आनंद ही का और बुद्धि से विचार करे तो आनन्द ही का; परन्तु यदि ऐसी प्रतीति न हो तो कल्पित रूप से ही आनन्द का अनुभव करे | इसका भी फल बहुत अच्छा होता है | ऐसा करते-करते आगे चल कर नित्य आनन्द की प्राप्ति हो जाती है | इस साधन को सब कर सकते है | पुराने ज़माने में मुसलमानों के राज्य में हिन्दुओं से कहा गया की तुम मुस्लमान मत बनो, हिन्दू ही रहो एवं हिन्दू धर्म का पालन करो, केवल मुसलमानों में अपना नाम लिखा दो | कोई पूछे तो कहो की हम मुसलमान है | इससमे तुम्हारा क्या बिगड़ता है | उन्होंने यह बात स्वीकार कर ली | आगे चल कर उनकी सन्तान से कजिओ ने कहा की तुम तो मुसलमान हो इसलिये मुसलमानों के धर्म का पालन करो | अन्त में यहाँ तक हुआ के वे लोग कट्टर मुसलमान बन गए | इसी प्रकार हमलोगों को भी यही निश्चय कर लेने से आनन्द-ही-आनन्द हो जायेगा |

भगवान की मूर्ती या चित्र को सामने रखकर तथा आंखे खोल कर उनके नेत्रों से अपने नेत्र मिलावे | त्राटक की भाँती आँखे खोल कर उसमे ध्यान लगा दे | ध्यान के समय यह विश्वाश रखे की इसमें भगवान प्रगट होंगे | विश्वासपूर्वक ऐसा ध्यान करने पर इससे भी भगवान मिल जाते है | यह भी भगवत्प्राप्ति का सुगम साधन है |.........शेष अगले ब्लॉग में.

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, भगवत्प्राप्ति के विविध उपाय पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

कल्याण प्राप्ति की कई युक्तियां -1-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, अष्टमी  श्राद्ध, शुक्रवार , वि० स० २०७०


सभी कार्यो में स्वार्थत्याग प्रधान है | किसी भी वैध-कार्य में स्वार्थ का त्याग होने से नीच-से-नीच प्राणी का भी कल्याण हो जाता है | उतनेही भोगोका अनासक्त भावसे ग्रहण किया जाये जितना शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक है | तथा केवल आसक्ति का त्याग कर देने से भी कल्याण हो जाता है | जो कुछ भी करे उसमे अहंकार का त्याग कर दे | किसी भी उत्तम कार्यं में अहंकार को पास न आने दें |

घर में भगवान की मूर्ती रखकर भक्ति-भाव से उसकी पूजा, आरती, स्तुति एवं प्रार्थना करने से भी कल्याण हो जाता है |

प्रतिदिन नियमपूर्वक एकान्त में बैठकर मन से सम्पूर्ण संसार को भूल जावे | इस प्रकार संसार को भुला देने से केवल एक चैतन्य आत्मा शेष रह जाता है | तब उस चैतन्य स्वरुप का ध्यान करें | ध्यान करने से समाधी हो जाती है और मुक्ति हो जाती है |

यह नियम ले-ले की शरीर से वही कार्य निष्काम भाव के साथ किया जायेगा की जिससे दुसरे का उपकार हो | इसके समान कोई भी धर्म नहीं है | भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने कहा है

पर हित सरिस धर्म नहीं भाई | पर पीड़ा सम नहीं अधमाई |

इस नियम को धारण कर लेने से भी संसार की मुक्ति हो जाती है |

यदि इन्द्रियाँ और मन वश में हो तो भगवान का ध्यान ही सबसे बढकर कल्याण का साधन है | यदि मन, इन्द्रियाँ वश में न हो तो ऐसी अवस्था में बिना किसी कामना के केवल आत्मा के कल्याण केलिए व्रत एवं उपवास आदि का साधन करना चाहिये | परमात्मा की प्राप्ति के अतिरिक्त उनसे कुछ भी कामना नहीं करनी चाहिये | इस प्रकार साधन करने से भगवान की प्राप्ति होती है | सारंश यह है की यदि मन एवं इन्द्रियाँ वश में हो तो ध्यानयोग का साधन करे | नहीं तो बिना किसी कामना के केवल भगवान की प्राप्ति के लिये ही तप एवं उपवास आदि का साधन करे | लेकिन इन सबमे भी सुगम उपाय तो भजन ही है |......शेष अगले ब्लॉग में.

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, भगवत्प्राप्ति के विविध उपाय पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

वैराग्य -१६-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, सप्तमी श्राद्ध, बुधवार, वि० स० २०७०

वैराग्य का फल  


गत ब्लॉग से आगे.......बस इस प्रकार एक परमात्मा का ज्ञान रह जाना ही अटल समाधी या जीवन्मुक्त-अवस्था है, उसी के यह लक्षण है | तदन्तर ऐसे जीवनमुक्त पुरुष भगवान् के भक्त संसार में किस प्रकार विचरते है, उनकी कैसी स्थिती होती हैं, इसका विवेचन गीता के अध्याय १२के श्लोक १३ से १९ तक निम्नलिखित रूप में है, भगवान् उनके लक्षण बतलाते हुए कहते है:-

‘इस प्रकार शान्ति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित, सुख-दुखोंकी प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात् अपना अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है | जो ध्यानयोग में युक्त हुआ, निरन्तर हानि-लाभ में संतुष्ट है, मन और इन्द्रियोंसहित शरीर को वश में किये हुए, मुझमे दृढ निश्चयवाला है,वह मुझमे अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है | जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता एवं जो हर्ष, अमर्ष, भय और  उद्वेगादी से रहित है, वह मुझे प्रिय है | जो पुरुष आकाक्षा से रहित, बाहर-भीतरशुद्ध, चतुर है अर्थात जिस काम के लिए आया था उसको पूरा कर चूका है एवं पक्षपात से रहित और दुक्खों से छुटा हुआ है, वह सब आरम्भों का त्यागी अर्थात मन, वाणी, शरीरद्वारा प्रारब्धसे होने वाले सम्पूर्ण स्वाभाविक कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है | जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न सोच करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ-अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है , वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है | जो पुरुष शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादी द्वंदों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है तथा जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है अर्थात ईश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला है एवं जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट और रहने के स्थान में ममता से रहित है,वह स्थिर बुद्धि वाला भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है |’

अतएव इस असार-संसार से मन हटाकर इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में वैराग्यवान होकर सबको परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिये |      

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!      

बुधवार, 25 सितंबर 2013

वैराग्य -१५-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, षष्ठी श्राद्ध, बुधवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय

 

गत ब्लॉग से आगे....... भगवान् ने इस दृढ वैराग्यरुपी शास्त्रद्वारा ही अहंता, ममता और वासनारूप अतिदृढ मूल वाले संसाररूप अश्वस्थ-वृक्ष को काटने को कहा है |

संसार के चित्र को सर्वथा भुला देना ही इस अश्वस्थ-वृक्ष का छेदन करना है | दृढ वैराग्य से यह काम सहज ही हो सकता है | (गीता १५|३)

भगवान कहते है

तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: |

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपध्ये यत्: प्रवर्ति: प्रसृता पुराणी || (गीता १४|६)    

इसके उपरान्त उस परमपदरूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिये,( उस परमात्मा के बिना आनंदघन ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ का बारम्बार चिंतन करना ही उसे ढूढना है ) जिसमे गए हुए पुरुष फिर वापस संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से यह पुरातन-वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है | उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ( उस परमपद के स्वरूप को पकड़ लेना-उसमे स्तिथ हो जाना ही उसकी शरण होना है) इस प्रकार शरण होने पर:-

निर्मानमोह जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्य विनिवृत्कामा: |

द्वन्देविमुक्ता सुखदुखःसंग्येगचन्त्येमूढा: पदम्व्यय तत् || (गीता १५|५)

नष्ट हो गया है मान और मोह जिनका तथा जीत लिया है आसक्ति दोष जिन्होंने और परमात्मा के स्वरुप में है निरंतर स्थिति तथा अच्छी तरह नष्ट हो गयी है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख-दुःख नामक द्वंदों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन, उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते है |’ शेष अगले ब्लॉग में ......        

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

वैराग्य -१४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, पंचमी श्राद्ध, मंगलवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय



गत ब्लॉग से आगे.......उपर्युक्त भयसे और विचारसे होने वाले दोनों प्रकार के वैराग्यों को प्राप्त करने के यही उपाय है, यह उपाय पूर्वापेक्षा उत्तम श्रेणी के वैराग्य-सम्पादन में भी अवश्य ही सहायक होते है | परन्तु अगले दोनों वैराग्यों की प्राप्ति में निम्नलिखित साधन विशेष सहायक होते है |

परमात्मा के नाम-जप और उनके स्वरुप का निरन्तर स्मरण करते रहने से ह्रदय का मल ज्यो-ज्यो दूर होता है, त्यों-त्यों उसमे उज्ज्वलता आती है | ऐसे उज्जवल और शुद्ध अन्त:करण में वैराग्य की लहरें उठती है, जिनसे विषयानुराग मनसे स्वयमेव ही हट जाता है | इस अवस्था में विशेष विचार की आवश्यकता नहीं रहती | जैसे मैल दर्पण को रूईसे घिसने पर ज्यों-ज्यों उसका मैल दूर होता , त्यों-ही-त्यों वह चमकने लगता है और उसमे मुख का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलाई पडता है, इसी प्रकार परमात्मा के भजन-ध्यानरुपी रूई की चालू रगड़ से अंत:करणरुपी दर्पण का मल दूर होने पर वह चमकने लगता है और उसमे सुखस्वरूप आत्मा का प्रतिबिम्ब दीखने लगता है | ऐसी स्थिती में जरा-सा भी बाकी रहा हुआ विषय-मलका दाग साधक के हृदय में शूल सा खटकता है | अतएव वह उत्तरोतर अधिक उत्साह के साथ उस दाग को मिटाने के लिए भजन-ध्यान में तत्पर होकर अन्तमें उसे सर्वथा मिटाकर ही छोड़ता है | ज्यो-ज्यों भजन-ध्यान से अंत:करणरुपी दर्पण की सफाई होती है, त्यों-त्यों साधक की आशा और उसका उत्साह बढ़ता रहता है, भजन-ध्यानरुपी साधन-तत्व को न समझने वाले मनुष्य को ही भाररूप प्रतीत होता है | जिसको इसके तत्व का ज्ञान होने लगता है, वह तो उत्तरोतर आनन्द की उपलब्धि करता हुआ पूर्णानन्दकी प्राप्ति के लिए भजन-ध्यान बढाता ही रहता है | उसकी दृष्टी में विषयों में दीखने वाले विषय-सुख की कोई सत्ता ही नहीं रह जाती | इससे उसे दृढ वैराग्य की बहुत शीघ्र प्राप्ति हो जाती है | शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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सोमवार, 23 सितंबर 2013

वैराग्य -१३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, चतुर्थी श्राद्ध, सोमवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय



गत ब्लॉग से आगे.......गुण-वृतियों के विरोधजन्य दुःख-एक मनुष्य को कुछ झूठ बोलने या छल-कपट, विश्वासघात करने से दस हज़ार रूपये मिलने की सम्भावना प्रतीत होती है | उस समय उसकी सात्विक वृति कहती है-‘पाप करके रूपये नहीं चाहिये, भीख माँगना या मर जाना अच्छा है, परन्तु पाप करना उचित नहीं |’ उधर लोभमूलक राजसी वृति कहती है ‘क्या हर्ज है ? एक बार तनिक सी झूठ बोलने में आपति ही कौन सी है ? जरा-से छल-कपट या विश्वासघात से क्या होगा ? एक बार ऐसा करके रूपये कमाकर दरिद्र मिटा ले, भविष्य में ऐसा नहीं करेंगे |’

यों सात्विकी और राजसी वृति में महान युद्ध मच जाता है, इस झगडे में चित अत्यन्त व्याकुल और किकर्तव्यविमूढ़ हो उठता है | विषाद और उदिग्नता का पार नहीं रहता |

इसी तरह राजसी, तामसी वृतियों का झगड़ा होता है | एक मनुष्य शतरंज या ताश खेल रहा है | उधर उसके समय पर न पहुचने से घर का आवश्यक काम बिगडता है | कर्म में प्रवृति कराने वाली राजसी वृति कहती है-‘उठो, चलो हर्ज हो रहा है, घर का काम करों |’ इधर प्रमादरूपा तामसी वृति पुन:-पुन: उसे खेल की और खीचती है, वह बेचारा इस दुविधा में पडकर महान दुखी हो जाता है |

उधाहरण के लिए दो द्रष्टान्त ही पर्याप्त है |

इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट विदित होता है की संसार के सभी सुख दुखरूप है | अतएव इनसे मन हटाने की भरपूर चेष्टा करनी चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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रविवार, 22 सितंबर 2013

वैराग्य -१२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, तृतीया श्राद्ध, रविवार, वि० स० २०७०

 
वैराग्य-प्राप्ति के उपाय

 

गत ब्लॉग से आगे.......संस्कारदुखता- आज स्त्री-स्वामी, पुत्र-परिवार, धन-मानादी जो विषय प्राप्त है उनके संस्कार ह्रदय में अंकित हो चुके है, इसलिए उनके समाप्त होनेपर संस्कारों के कारण उन वस्तुओंका अभाव महान दुखदायी होता है | में कैसा था, मेरा पुत्र सुन्दर, सुडौल और आज्ञाकारी था, मेरी स्त्री कितनी सुशीला थी, मेरे पितासे मुझे कितना सुख मिलता था, मेरी बड़ाई जगत भर में छा रही थी, मेरे पास लाखों रूपये थे परन्तु आज में क्या से क्या हो गया | मैं सब तरह से दींन-हीन हो गया, यदपि उसी के समान जगत में लाखों-करोड़ों मनुष्य आरम्भ से ही इन विषयों से रहित है परन्तु वे ऐसे दुखी नहीं है | जिसके विषय-भोगों की बाहुल्यता के समय सुखों के संस्कार होते है उसे ही उनके अभाव की प्रतीति होती है | अभाव की प्रतीति में दुःख भरा पडा  है | यहीं संस्कार-दुखता है |

इसके सिवा यह बात भी सर्वथा ध्यान में रखनी चाहिये की संसार के सभी विषय-सुख सभी अवस्था में दुःख से मिश्रित है | शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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शनिवार, 21 सितंबर 2013

वैराग्य -११-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, द्वितिया श्राद्ध, शनिवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय



गत ब्लॉग से आगे.......तापदुखता-पुत्र, स्त्री, स्वामी, धन, मकान आदि सभी पदार्थ हर समय ताप देते-जलाते रहते है | कोई विषय ऐसा नहीं है जो विचार करने पर जलानेवाला प्रतीत न हो | इसके सिवा जब मनुष्य अपने से दूसरों को किसी भी विषय में अधिक बढ़ा हुआ देखता है तब अपने अल्प सुख के कारण उसके ह्रदय में बड़ी जलन होती है | विषयों की प्राप्ति, उनके सरक्षण और नाश में भी सदा जलन बनी रहती है | कहा है-

अर्थानामर्जने दुखं तथैव परिपालने |

नाशे दुखं व्यये दुखं धिगार्थन क्लेशकारिण: ||

धन कमाने के कई तरह के संताप, उपार्जन हो जाने पर उसकी रक्षा में सन्ताप, कहीं किसी में डूब न जाये, इस चिन्तालय में सदा ही जलना पडता है, नाश हो जाए तो जलन, खर्च हो जाय तो जलन, छोडकर मरने में जलन, मतलब यह की आदि से अन्ततक केवल संताप ही रहता है | इसलिए इसको धिक्कार दिया गया | यही हाल पुत्र, मान-बड़ाई आदिका है | सभी में प्राप्तिकी इच्छा को लेकर वियोगतक संताप बना रहता है | ऐसा कोई विषयासक्त नहीं जो सन्ताप देने वाला न हो | शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

वैराग्य -१०-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, प्रतिपदाश्राद्ध, शुक्रवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय


गत ब्लॉग से आगे.......अब यहाँ इसका कुछ खुलासा कर दिया जाता है:-परिणामदुखता-जो सुख आरम्भ में सुखरूप प्रतीत होनेपर भी परिणाम में महान में महान दुखरूप हो, वह सुख परिणामदुखता कहलाता है | जैसे रोगी के लिए आरम्भ में जीभ को स्वाद लगनेवाला कुपथ्य | वैधके मना करने पर भी इंद्रियासक्त रोगी आपात-सुखकर पदार्थ को स्वार्थ खाकर अन्तमें दुःख उठाता, रोता चिल्लाता है, इसी प्रकार विषयसुख आरम्भ में रमणीय और सुखरूप प्रतीत होनेपर भी परिणाम में महान दुःखकर है |

भगवान् कहते है:-

विषयेन्द्रिय संयोगाधतद्रगेअमृतोप्ममं |

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम ||

‘जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है वह यदपि भोगकाल में अमृत के सदर्श भासता है, परन्तु परिणाम में वह (बल, वीर्य, बुद्धि, धन उत्साह और परलोकका नाशक होने से) विष के सदर्श है, इसलिए वह सुख राजस कहा गया है |’ (गीता १८|३८)     

दादकि खाज खुजलाते समय बहुत हि सुखद मालूम होता है | परन्तु परिणाममें जलन होने पर वही महान दुखद हो जाती है | यही विषय-सुखोंका परिणाम है | इस लोक और परलोक के सभी विषय-सुखों का परिणामदुखता को लिये हुए है | बड़े पुण्यसंचय से लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है परन्तु ‘ते तं स्वर्गलोकं विशाल क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति |’ वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर पुन: मृत्युलोक को प्राप्त होते है | इसलिये गोसाईजी महाराज ने कहा है :-

एही तन कर फल विषय न भाई |

स्वर्गउ  स्वल्प अंत दुखदाई || शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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गुरुवार, 19 सितंबर 2013

वैराग्य -९-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, पूर्णिमा, गुरूवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय


गत ब्लॉग से आगे.......उपर्युक्त विवेचनपर विचारकर साधकों को चाहिये की आरम्भ में वे संसार के विषयों को परिणाम में हानिकर मानकर भय से या दुखरूप समझकर घ्रणासे ही उनका त्याग करे | बारम्बार वैराग्य की भावना से, त्याग के महत्व का मनन करने से, जगत की यतार्थ स्थती पर विचार करने से, मृत पुरुषों, सूने महलों,टूटे मकानों और खंडहरों को देखने-सुनने से, प्राचीन नरपतियों की अंतिम गति पर ध्यान देने से और विरक्त, विचारशील पुरुषों अक सन्ग करने से ऐसी दलीले हृदय में स्वयंमेव उठने लगती है, जिनसे विषयों के प्रति विराग उत्पन्न होता है | पुत्र-परिवार, धन-मकान, मान-बड़ाई, कीर्ति-कान्ति आदि समस्त पदार्थों से निरन्तर दुःख और दोष देख-देखकर उनसे मन हटाना चाहिये | भगवान् ने कहा है:

इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकारका भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख-दोषों का बारम्बार विचार करना तथा पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति और ममता का अभाव करना चाहिये | (गीता १३| ८-९)

विचार करने पर ऐसी ही और भी अनेक दलीले मिलेगी जिनसे संसार के समस्त पदार्थ दुखरूप प्रतीत होने लगेंगे |

योगदर्शन का सूत्र है:

परिणाम दुःख, तापदुःख, संस्कारदुःख और दुःखोसे मिश्रित होने और गुण-वृति-विरोध होने से विवेकी पुरुष की दृष्टी में समस्त विषयसुख दुःखरूप ही है | (साधनपाद १५) शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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बुधवार, 18 सितंबर 2013

वैराग्य -८-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, चतुर्दशी, बुधवार, वि० स० २०७०

वैराग्य का महत्व


गत ब्लॉग से आगे.......साधनद्वारा इस प्रकारकी विवेकयुक्त भावनाओं से भोगों के प्रति जो वैराग्य होता है, वह साधनद्वारा होनेवाला वैराग्य है | इस तरह के वैरागी पुरुष को संसार के स्त्री, पुत्र, मान, बड़ाई, धन, ऐश्वर्य आदि उसी प्रकार कान्तिहीन और नीरस प्रतीत होती है, जैसे प्रकाशमय सूर्यदेव के उदय होने पर चन्द्रमा प्रतीत हुआ करता है |

परमात्माके ज्ञान से होने वाला वैराग्य-जब साधक को परमात्मा के तत्वकी उपलब्धि हो जाती है तब तो संसार के सम्पूर्ण पदार्थ उसे स्वत: ही रसहीन और मायामात्र प्रतीत होने लगते है | फिर उसे भगवतत्वके अतिरिक्त किसी में अन्य कुछ भी सार प्रतीत नहीं होता | जैसे मृगतृष्णा के जल को मरीचिका जान लेने पर भी उसमे जल नहीं दीखाई देता, जैसे नीदसे जागने पर स्वप्न को स्वप्न समझ लेनेपर स्वप्न के संसार का चिंतन करने पर भी उसमे सत्ता नहीं मालूम नहीं होती, उसी प्रकार तत्वज्ञानी पुरुष को जगत के पदार्थों में सार और सत्ता की प्रतीति नहीं होती |

चतुर बाजीमर द्वारा निर्मित रम्य बगीचेमें अन्य सब मोहित जाते है, परन्तु जैसे उसका मर्मज्ञ तत्व जानेवाला जमूरा उसे मायामय और निस्सार समझकर मोहित नहीं होता, (हाँ, अपने मायापति की लीला देख देखकर आह्लाधित अवश्य होता है ) इसी प्रकार इस श्रेणी का वैरागी पुरुष विषय-भोगों में मोहित नहीं होता |

इस प्रकार के वैराग्यवान पुरुष की संसार में किसी भोग-पदार्थ में आस्था ही नहीं होती, तब उसमे रमणीयता और सुख की भ्रान्ति तो हो ही कैसे सकती है ? ऐसा ही पुरुष परमात्मा के परमपद का अधिकारी होता है | इसी को परवैराग्य या दृढ वैराग्य कहते है | शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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मंगलवार, 17 सितंबर 2013

वैराग्य -७-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, त्रयोदशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

वैराग्य का महत्व


गत ब्लॉग से आगे.......जो लोग उसे मान बड़ाई देते है , उनके सम्बन्ध में वह यही समझता है की यह मेरे भोले भाई मेरी हित-कामना से विपरीत आचरण कर रहे है | ‘भोले साजन शत्रु बराबर’ वाली उक्ति चरितार्थ करते है | इसलिए वह उनकी क्षणिक प्रसन्नता के लिए उनका आग्रह भी स्वीकार नहीं करता | वह जानता है की इसमें इनका तो कोई लाभ नहीं है और मेरा अध:पतन है | पक्षान्तरमें स्वीकार न करने में न दोष है, न हिंसा है और इस कार्य के लिए इन लोगों के इस आग्रह से बाध्य होना धर्मसम्मत भी नहीं है |

धर्म तो उसे कहते है जो इस लोक-परलोक दोनों में कल्याणकारी हो | जो लोक-परलोक दोनों में अहित करता है वह कल्याण नहीं, अकल्याण ही है | पुरुस्कार नहीं, महान विपद ही है | माता-पिता मोहवश बालक के क्षणिक सुख के लिए उसे कुपथ्य सेवन कराकर अंत में बालक के साथ स्वयं भी दुखी होते है | इसी प्रकार यह भोले भाई भी तत्व न समझने के कारण मुझे इस पाप-पथ में धकेलना चाहते है | समझदार बालक माता-पिता के दुराग्रह को नहीं मानता तो वह दोषी नहीं होता | परिणाम देखकर या विचारकर माता-पिता भी नाराज नहीं होते | इसी प्रकार विचार करनेपर ये भाई भी नाराज नहीं होंगे | यों समझकर वह किसी के द्वारा भी प्रदान की हुई मान-बड़ाई स्वीकार नहीं करता | वह समझता है की इसके स्वीकारसे मैं अनाथ की भाँती मारा जाऊँगा | इतना त्याग मुझमे नहीं है की दूसरों की जरा-सी ख़ुशी के लिए मैं अपना सर्वनाश कर डालू | त्याग-बुद्धि हो, तो भी विवेक ऐसे त्याग को बुद्धिमानी या उत्तम नहीं बतलाता, जो सरल-चित भाई अज्ञान से साधकों को इस प्रकार मान-बड़ाई स्वीकार करने के लिए बाध्य कर उन्हें महान अन्धकार और दुःख के गड्ढे में धकेलता है, परमात्मा उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करे | जिससे वे साधकों को इस तरह विपत्ति के भँवर में न डाले | शेष अगले ब्लॉग में ......       


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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