※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

वैराग्य -९-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, पूर्णिमा, गुरूवार, वि० स० २०७०

वैराग्य-प्राप्ति के उपाय


गत ब्लॉग से आगे.......उपर्युक्त विवेचनपर विचारकर साधकों को चाहिये की आरम्भ में वे संसार के विषयों को परिणाम में हानिकर मानकर भय से या दुखरूप समझकर घ्रणासे ही उनका त्याग करे | बारम्बार वैराग्य की भावना से, त्याग के महत्व का मनन करने से, जगत की यतार्थ स्थती पर विचार करने से, मृत पुरुषों, सूने महलों,टूटे मकानों और खंडहरों को देखने-सुनने से, प्राचीन नरपतियों की अंतिम गति पर ध्यान देने से और विरक्त, विचारशील पुरुषों अक सन्ग करने से ऐसी दलीले हृदय में स्वयंमेव उठने लगती है, जिनसे विषयों के प्रति विराग उत्पन्न होता है | पुत्र-परिवार, धन-मकान, मान-बड़ाई, कीर्ति-कान्ति आदि समस्त पदार्थों से निरन्तर दुःख और दोष देख-देखकर उनसे मन हटाना चाहिये | भगवान् ने कहा है:

इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकारका भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख-दोषों का बारम्बार विचार करना तथा पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति और ममता का अभाव करना चाहिये | (गीता १३| ८-९)

विचार करने पर ऐसी ही और भी अनेक दलीले मिलेगी जिनसे संसार के समस्त पदार्थ दुखरूप प्रतीत होने लगेंगे |

योगदर्शन का सूत्र है:

परिणाम दुःख, तापदुःख, संस्कारदुःख और दुःखोसे मिश्रित होने और गुण-वृति-विरोध होने से विवेकी पुरुष की दृष्टी में समस्त विषयसुख दुःखरूप ही है | (साधनपाद १५) शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!