|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल,
चतुर्दशी, बुधवार, वि० स० २०७०
वैराग्य
का महत्व
गत
ब्लॉग से आगे.......साधनद्वारा इस प्रकारकी विवेकयुक्त भावनाओं से भोगों के प्रति
जो वैराग्य होता है, वह साधनद्वारा होनेवाला वैराग्य है | इस तरह के वैरागी पुरुष
को संसार के स्त्री, पुत्र, मान, बड़ाई, धन, ऐश्वर्य आदि उसी प्रकार कान्तिहीन और
नीरस प्रतीत होती है, जैसे प्रकाशमय सूर्यदेव के उदय होने पर चन्द्रमा प्रतीत हुआ
करता है |
परमात्माके
ज्ञान से होने वाला वैराग्य-जब साधक को परमात्मा के तत्वकी उपलब्धि हो जाती है तब
तो संसार के सम्पूर्ण पदार्थ उसे स्वत: ही रसहीन और मायामात्र प्रतीत होने लगते है
| फिर उसे भगवतत्वके अतिरिक्त किसी में अन्य कुछ भी सार प्रतीत नहीं होता | जैसे
मृगतृष्णा के जल को मरीचिका जान लेने पर भी उसमे जल नहीं दीखाई देता, जैसे नीदसे
जागने पर स्वप्न को स्वप्न समझ लेनेपर स्वप्न के संसार का चिंतन करने पर भी उसमे
सत्ता नहीं मालूम नहीं होती, उसी प्रकार तत्वज्ञानी पुरुष को जगत के पदार्थों में
सार और सत्ता की प्रतीति नहीं होती |
चतुर
बाजीमर द्वारा निर्मित रम्य बगीचेमें अन्य सब मोहित जाते है, परन्तु जैसे उसका
मर्मज्ञ तत्व जानेवाला जमूरा उसे मायामय और निस्सार समझकर मोहित नहीं होता, (हाँ,
अपने मायापति की लीला देख देखकर आह्लाधित अवश्य होता है ) इसी प्रकार इस श्रेणी का
वैरागी पुरुष विषय-भोगों में मोहित नहीं होता |
इस प्रकार के वैराग्यवान पुरुष की संसार में
किसी भोग-पदार्थ में आस्था ही नहीं होती, तब उसमे रमणीयता और सुख की भ्रान्ति तो
हो ही कैसे सकती है ? ऐसा ही पुरुष परमात्मा के परमपद का अधिकारी होता है | इसी को
परवैराग्य या दृढ वैराग्य कहते है | शेष अगले
ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!