|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल,
त्रयोदशी, मंगलवार, वि० स० २०७०
वैराग्य
का महत्व
गत
ब्लॉग से आगे.......जो लोग उसे मान बड़ाई देते है , उनके सम्बन्ध में वह यही समझता
है की यह मेरे भोले भाई मेरी हित-कामना से विपरीत आचरण कर रहे है | ‘भोले साजन
शत्रु बराबर’ वाली उक्ति चरितार्थ करते है | इसलिए वह उनकी क्षणिक प्रसन्नता
के लिए उनका आग्रह भी स्वीकार नहीं करता | वह जानता है की इसमें इनका तो कोई लाभ
नहीं है और मेरा अध:पतन है | पक्षान्तरमें स्वीकार न करने में न दोष है, न हिंसा
है और इस कार्य के लिए इन लोगों के इस आग्रह से बाध्य होना धर्मसम्मत भी नहीं है |
धर्म तो उसे कहते है जो इस लोक-परलोक दोनों में
कल्याणकारी हो | जो लोक-परलोक दोनों में अहित करता है वह कल्याण नहीं, अकल्याण ही
है | पुरुस्कार नहीं, महान विपद ही है | माता-पिता मोहवश बालक के क्षणिक सुख के
लिए उसे कुपथ्य सेवन कराकर अंत में बालक के साथ स्वयं भी दुखी होते है | इसी
प्रकार यह भोले भाई भी तत्व न समझने के कारण मुझे इस पाप-पथ में धकेलना चाहते है |
समझदार बालक माता-पिता के दुराग्रह को नहीं मानता तो वह दोषी नहीं होता | परिणाम
देखकर या विचारकर माता-पिता भी नाराज नहीं होते | इसी प्रकार विचार करनेपर ये भाई
भी नाराज नहीं होंगे | यों समझकर वह किसी के द्वारा भी प्रदान की हुई मान-बड़ाई
स्वीकार नहीं करता | वह समझता है की इसके स्वीकारसे मैं अनाथ की भाँती मारा जाऊँगा
| इतना त्याग मुझमे नहीं है की दूसरों की जरा-सी ख़ुशी के लिए मैं अपना सर्वनाश कर
डालू | त्याग-बुद्धि हो, तो भी विवेक ऐसे त्याग को बुद्धिमानी या उत्तम नहीं
बतलाता, जो सरल-चित भाई अज्ञान से साधकों को इस प्रकार मान-बड़ाई स्वीकार करने के
लिए बाध्य कर उन्हें महान अन्धकार और दुःख के गड्ढे में धकेलता है, परमात्मा
उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करे | जिससे वे साधकों को इस तरह विपत्ति के भँवर में न
डाले | शेष अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!