※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

वैराग्य -७-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, त्रयोदशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

वैराग्य का महत्व


गत ब्लॉग से आगे.......जो लोग उसे मान बड़ाई देते है , उनके सम्बन्ध में वह यही समझता है की यह मेरे भोले भाई मेरी हित-कामना से विपरीत आचरण कर रहे है | ‘भोले साजन शत्रु बराबर’ वाली उक्ति चरितार्थ करते है | इसलिए वह उनकी क्षणिक प्रसन्नता के लिए उनका आग्रह भी स्वीकार नहीं करता | वह जानता है की इसमें इनका तो कोई लाभ नहीं है और मेरा अध:पतन है | पक्षान्तरमें स्वीकार न करने में न दोष है, न हिंसा है और इस कार्य के लिए इन लोगों के इस आग्रह से बाध्य होना धर्मसम्मत भी नहीं है |

धर्म तो उसे कहते है जो इस लोक-परलोक दोनों में कल्याणकारी हो | जो लोक-परलोक दोनों में अहित करता है वह कल्याण नहीं, अकल्याण ही है | पुरुस्कार नहीं, महान विपद ही है | माता-पिता मोहवश बालक के क्षणिक सुख के लिए उसे कुपथ्य सेवन कराकर अंत में बालक के साथ स्वयं भी दुखी होते है | इसी प्रकार यह भोले भाई भी तत्व न समझने के कारण मुझे इस पाप-पथ में धकेलना चाहते है | समझदार बालक माता-पिता के दुराग्रह को नहीं मानता तो वह दोषी नहीं होता | परिणाम देखकर या विचारकर माता-पिता भी नाराज नहीं होते | इसी प्रकार विचार करनेपर ये भाई भी नाराज नहीं होंगे | यों समझकर वह किसी के द्वारा भी प्रदान की हुई मान-बड़ाई स्वीकार नहीं करता | वह समझता है की इसके स्वीकारसे मैं अनाथ की भाँती मारा जाऊँगा | इतना त्याग मुझमे नहीं है की दूसरों की जरा-सी ख़ुशी के लिए मैं अपना सर्वनाश कर डालू | त्याग-बुद्धि हो, तो भी विवेक ऐसे त्याग को बुद्धिमानी या उत्तम नहीं बतलाता, जो सरल-चित भाई अज्ञान से साधकों को इस प्रकार मान-बड़ाई स्वीकार करने के लिए बाध्य कर उन्हें महान अन्धकार और दुःख के गड्ढे में धकेलता है, परमात्मा उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करे | जिससे वे साधकों को इस तरह विपत्ति के भँवर में न डाले | शेष अगले ब्लॉग में ......       


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!