|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल,
द्वादशी, सोमवार, वि० स० २०७०
वैराग्य
का महत्व
गत
ब्लॉग से आगे.......साधन से होने वाला वैराग्य-जब मनुष्य साधन करते-करते प्रेम में
विहल होकर भगवान् के तत्व का अनुभव करने लगता है तब उसके मन में भोगों के प्रति
स्वत: ही वैराग्य उत्पन्न होता है | उस समय उसे संसार के समस्त भोग-पदार्थ
प्रत्यक्ष दुःखरूप प्रतीत होने लगते है | सब विषय भगवतप्राप्ति में स्पष्ट बाधक
दीखते है |
जो स्त्री-पुत्रादि अज्ञानी दृष्टी में रमणीय,
सुखप्रद प्रतीत होते है, वही उसकी द्रष्टिमें घ्रणित और दुःखप्रद होने लगते है* | धन-मकान, रूप-यौवन, गाडी-मोटर, पद-गौरव,
शान-शौकीनी, विलासिता-सजावट आदि सभी में उसकी विषवत बुद्धि हो जाती है और उनका
सन्ग उसे साक्षात् कारागार से भी अधिक बन्धनकारक दुखदायी और घ्रणास्पद बोध होने
लगता है | मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा, सत्कार-सम्मान आदि से वह इतना डरता है, जितना
साधारण मनुष्य सिंह-व्याघ्र, भूत-प्रेत और यमराज से डरते है | जहाँ उसे सत्कार,
पूजा और सम्मान मिलने की किन्च्चित भी सम्भावना होती है, वहाँ जानेसे उसे बड़ा भय
मालूम होता है | अत: ऐसे स्थानों को वह दूर से ही त्याग देता है | जिन
प्रसंशा-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान की प्राप्ति में साधारण मनुष्य फूले नहीं समाते,
उन्हीं में उसको लज्जा, संकोच और दुःख होता है, वह उनमे अपना अध:पतन समझता है !
हमलोग जिस प्रकार अपवित्र और घ्रणित पदार्थों को देखने में हिचकते है, उसी प्रकार
वह मान-बड़ाई से घ्रणा करता है | किसी को भी प्रसन्न करने या किसीके भी दबाबसे वह
मान-बड़ाई स्वीकार नहीं करता | उसे यह प्रत्यक्ष नरकतुल्य प्रतीत होते है | शेष अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
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*इससे
कोई यह न समझे की स्त्री-पुत्रादि से व्यवहार में घ्रणा करनी चाहिये | गृहस्थ साधक
को सबसे यथायोग्य प्रेम का बर्ताव करते हुए मन में वैराग्य की भावना रखनी चाहिये |
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!