※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 16 सितंबर 2013

वैराग्य -६-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, द्वादशी, सोमवार, वि० स० २०७०

वैराग्य का महत्व
 

गत ब्लॉग से आगे.......साधन से होने वाला वैराग्य-जब मनुष्य साधन करते-करते प्रेम में विहल होकर भगवान् के तत्व का अनुभव करने लगता है तब उसके मन में भोगों के प्रति स्वत: ही वैराग्य उत्पन्न होता है | उस समय उसे संसार के समस्त भोग-पदार्थ प्रत्यक्ष दुःखरूप प्रतीत होने लगते है | सब विषय भगवतप्राप्ति में स्पष्ट बाधक दीखते है |

जो स्त्री-पुत्रादि अज्ञानी दृष्टी में रमणीय, सुखप्रद प्रतीत होते है, वही उसकी द्रष्टिमें घ्रणित और दुःखप्रद होने लगते है* | धन-मकान, रूप-यौवन, गाडी-मोटर, पद-गौरव, शान-शौकीनी, विलासिता-सजावट आदि सभी में उसकी विषवत बुद्धि हो जाती है और उनका सन्ग उसे साक्षात् कारागार से भी अधिक बन्धनकारक दुखदायी और घ्रणास्पद बोध होने लगता है | मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा, सत्कार-सम्मान आदि से वह इतना डरता है, जितना साधारण मनुष्य सिंह-व्याघ्र, भूत-प्रेत और यमराज से डरते है | जहाँ उसे सत्कार, पूजा और सम्मान मिलने की किन्च्चित भी सम्भावना होती है, वहाँ जानेसे उसे बड़ा भय मालूम होता है | अत: ऐसे स्थानों को वह दूर से ही त्याग देता है | जिन प्रसंशा-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान की प्राप्ति में साधारण मनुष्य फूले नहीं समाते, उन्हीं में उसको लज्जा, संकोच और दुःख होता है, वह उनमे अपना अध:पतन समझता है ! हमलोग जिस प्रकार अपवित्र और घ्रणित पदार्थों को देखने में हिचकते है, उसी प्रकार वह मान-बड़ाई से घ्रणा करता है | किसी को भी प्रसन्न करने या किसीके भी दबाबसे वह मान-बड़ाई स्वीकार नहीं करता | उसे यह प्रत्यक्ष नरकतुल्य प्रतीत होते है | शेष अगले ब्लॉग में ......       
 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

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*इससे कोई यह न समझे की स्त्री-पुत्रादि से व्यवहार में घ्रणा करनी चाहिये | गृहस्थ साधक को सबसे यथायोग्य प्रेम का बर्ताव करते हुए मन में वैराग्य की भावना रखनी चाहिये |  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!