※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 15 सितंबर 2013

वैराग्य -५-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, एकादशी, रविवार, वि० स० २०७०

वैराग्य का महत्व

 

गत ब्लॉग से आगे........भगवान् कहते है :

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्नसुखदुखदा: |

आगमापायिनोअनित्यास्तांस्तितिक्ष्व भारत || (गीता २|१४)

‘हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो क्षणभंगुर और अनित्य है, इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर |’ अगले श्लोक में इस सहनशीलता का यह फल भी बतलाया गया है की:-

यं हि न व्यथय्न्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ् |

समदुखःसुखं धीरं सोअमृत्वाय कल्पते || (गीता २|१५)

‘दुःख-सुख को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुष को यह इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते वह मोक्ष के योग्य होता है |’ आगे चलकर भगवान् ने यह स्पष्ट कह दिया की जो पदार्थ विचार से असत् ठहरता है वह वास्तव में है ही नहीं | यही तत्वदर्शियों का निर्णीत सिद्धान्त है |

नासते विद्यते भावो नाभावो  विद्यते सत: |

उभयोरपि द्र्ष्टोअन्त्स्तव्न्योस्तत्वदर्शिभि || (गीता २|१६)

‘हे अर्जुन ! असत वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है |

इस प्रकार के विवेक द्वारा उत्पन्न वैराग्य ‘विचार से उत्पन्न होने वा वैराग्य है |’ शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!