|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल, एकादशी,
रविवार, वि० स० २०७०
वैराग्य
का महत्व
गत
ब्लॉग से आगे........भगवान् कहते है :
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्नसुखदुखदा: |
आगमापायिनोअनित्यास्तांस्तितिक्ष्व भारत || (गीता २|१४)
‘हे
कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग
तो क्षणभंगुर और अनित्य है, इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर |’ अगले श्लोक में इस
सहनशीलता का यह फल भी बतलाया गया है की:-
यं हि न व्यथय्न्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ् |
समदुखःसुखं धीरं सोअमृत्वाय कल्पते || (गीता २|१५)
‘दुःख-सुख
को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुष को यह इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते
वह मोक्ष के योग्य होता है |’ आगे चलकर भगवान् ने यह स्पष्ट कह दिया की जो पदार्थ
विचार से असत् ठहरता है वह वास्तव में है ही नहीं | यही तत्वदर्शियों का निर्णीत
सिद्धान्त है |
नासते विद्यते भावो नाभावो
विद्यते सत: |
उभयोरपि द्र्ष्टोअन्त्स्तव्न्योस्तत्वदर्शिभि || (गीता २|१६)
‘हे
अर्जुन ! असत वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन
दोनों का ही तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है |
इस प्रकार के विवेक द्वारा उत्पन्न वैराग्य
‘विचार से उत्पन्न होने वा वैराग्य है |’ शेष
अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!