|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल, दशमी,
शुक्रवार, वि० स० २०७०
वैराग्य
का महत्व
गत
ब्लॉग से आगे........योगदर्शन में यतमान, व्यतिरेक, एकेन्द्रिय और वशीकार भेद से
वैराग्य की चार संज्ञाएँ टीकाकारों ने बतलाई हैं, उसकी विस्तृत व्याख्या भी की है
| वह व्याख्या सर्वथा युक्तियुक्त और माननीय है | तथापि यहाँ संक्षेपसे अपनी
साधारण बुद्धि के अनुसार वैराग्य के कुछ रूप बतलाने की चेष्टा की जाती है, जिससे
सरलतापूर्वक सभी लोग इस विषय को समझ सके !
भय से होने वाला वैराग्य-संसार के भोग
भोगनेसे परिणाम में नरक की प्राप्ति होगी | क्योकि भोग में संग्रह की आवश्यकता है,
संग्रह के लिए आरम्भ आवश्यक है, आरम्भ में पाप होता है, पाप का फल नरक या दुःख है
| इस तरह भोग के साधन में पाप और पाप का परिणाम दुःख समझकर उसके भय से विषयों से
अलग होना भय से उत्पन्न वैराग्य है |
विचार
से होने वाला वैराग्य-जिन पदार्थों को भोग मान उनके सन्ग से आनन्द की भावना की
जाती है, जिनकी प्राप्ति में सुख की प्रतीति होती है, वे वास्तव में न भोग है, न
सुख के साधन, न उनमे सुख है | दुखपूर्ण पदार्थों में-दुःख में है अविचार से सुख की
कल्पना कर ली गयी है | इसीसे वे सुखरूप भासते है, वास्तव में तो दुःख या दुःख के
ही कारण है |
भगवान
के कहा है :
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुखःयोनय एव ते |
अधान्तवन्त कौन्तेय न तेषु रमते बुध: || (गीता ५|२२)
‘जो ये
इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होनेवाले सब भोग है, वे यदपि विषयी
पुरुषों को सुखरूप भासते हैं तो भी निस्सदेह दुःख के ही हेतु है और आदि-अन्तवाले
अर्थात् अनित्य है, इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान पुरुष उनमे नहीं रमता |’ अनित्य न
हो तो इनको क्षणभंगुर समझकर सहन करना चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!