※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

वैराग्य -३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद शुक्ल, अष्टमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

वैराग्य का महत्व

 
गत ब्लॉग से आगे........वैराग्य बहुत ही रहस्य का विषय है, इसका वास्विक तत्व विरक्त महानुभाव ही जानते हैं | वैराग्य की पराकाष्ठा उन्ही में पायी जाती है जो जीवन्मुक्त महात्मा है-जिन्होंने परमात्मरस में डूबकर विषय-रस से अपने को सर्वथा मुक्त कर लिया है | भगवान कहते है

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन: |

रसवर्जं रसोअप्यस्य परं द्रष्ट्वा निवर्तते || (गीता २|५९)

‘इन्द्रियों द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के केवल विषय निवृत हो जाते है, रस (राग) नही निवृत होता, परन्तु जीवनमुक्त पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत हो जाता है |’  

अब हमे वैराग्य के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के उपाय, वैराग्यप्राप्त पुरुषों के लक्षण और फल के विषय में कुछ विचार करना चाहिये | सधानकाल में वैराग्य की दो श्रेणियां है | जिसकी गीता में वैराग्य और दृढ वैराग्य, योगदर्शन में वैराग्य और परवैराग्य एवं वेदान्त में वैराग्य और उपरति के नाम से कहा गया है | यदपि उपर्युक्त तीनों में ही परस्पर शब्द और ध्येय में कुछ-कुछ भेद है, परन्तु बहुत अंश में यह मिलते-जुलते शब्द ही है | यहाँ लक्ष्य के लिए ही तीनों का उल्लेख किया गया है |  शेष अगले ब्लॉग में ......       

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!