|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद शुक्ल,
सप्तमी, गुरूवार, वि० स० २०७०
वैराग्य
का महत्व
गत
ब्लॉग से आगे........भगवान् कहते है
कर्मेन्द्रियाणि
संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियर्थान्विमूढात्मा
मिथ्याचार: स उच्यते || (गीता ३|६)
‘जो मूढ़बुद्धि
पुरुष कर्मेन्द्रियों को हठ से रोककर इन्द्रियों के भोगों को मन से चिन्तन करता है
वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता हैं |’
सम्प्रति
दम्भ का बहुत विस्तार हो रहा है, कई लोगों को ठगने के लिये दिखलौना मौन धारण करना,कोई आसन लगाकर बैठता है, कोई विभूति रमाता है, कोई केश बढाता है,कोई धूनी तपता
है, ‘उदरनिमितं बहु कृतवेष:’ |
इनमे
से कोई-सा भी वैराग्य नहीं है | मेरे इस कथन का यह अभिप्राय नहीं की मैं स्त्री,
पुत्र, कुटुम्ब, धन, शिखा-सुत्रादी तथा कर्मों का स्वरुप से तेग करने को बुरा
समझता हूँ | न यह समझना चाहिये की मौन धारण करना, आसन लगाना, विभूति रमाना, केश
बढ़ाना या मुडवाना आदि कार्य अशास्त्रीय और निन्दनीय है | न मेरा कथन है की घर-बार
त्याग कर इन चिन्हों के धारण करने वाले सभी लोग पाखंडी है |
उपर्युक्त
कथन किसी की निन्दा या किसीपर भी घ्रणा करने के लिये नहीं समझना चाहिये | मेरा
अभिप्राय यहाँ उन लोगों से से है जो वैराग्य के नाम पर पूजा पाने और लोगों पर
अनधिकार रोब जमाकर उन्हें ठगने के लिए नाना भांति के स्वांग सजते है |
जो लोग संयम के लिए, अंतकरण की शुद्धि के लिये,
साधन बढ़ाने के लिए करते है उनकी कोई निन्दा नहीं है | भगवान ने भी मिथ्याचारी
उन्ही को बतलाया है जो बाहर से संयम का स्वांग सजकर मन-ही-मन विषयों का मनन करते
रहते है | जो पुरुष चित की वृतियों को भगवच्चिन्तन में नियुक्त कर सच्ची
वैराग्यवृति से बाहयाभ्यन्तर त्याग करते
है उनकी तो सभी शास्त्रों ने प्रसंशा की है | शेष अगले ब्लॉग में ......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!