※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 31 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल १, सोमवार, वि०स० २०७१


** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे......भगवान् श्रीकृष्ण का तो गोपियों के साथ विशुद्ध प्रेम था, वहाँ कामका नाम-निशान भी नहीं था | उनका प्रेम जारभाव को लेकर कदापि नहीं था | भागवत में जो प्रेम का वर्णन है; वह विशुद्ध एवं अत्यन्त स्वच्छ है | अवश्य ही भागवत के कुछ श्लोकों में अश्लीलता और जारभाव का उल्लेख मिलता है, उसे हम प्रक्षिप्त कहें तो भी ठीक नहीं और यदि उसे क्लिष्ट कल्पना करके वेदान्त के सिद्धांत में घटावें तो भी ठीक नहीं | पर वहाँ आये हुए रमण आदि अश्लील शब्दों का जैसा स्पष्ट अर्थ व्याकरण से समझ में आता है, वैसा मानना उचित नहीं है; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण दोषों से सर्वथा रहित और विशुद्ध सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हैं | अतः उनमें अश्लीलता का दोष हमारी आत्मा स्वीकार नहीं करती और न ऐसी मान्यता में कोई लाभ ही है; क्योंकि यह शास्त्रमर्यादा और युक्ति-संगत भी नहीं है | सिद्धान्त में कोई गड़बड़ी नहीं है, उनका प्रेम विशुद्ध है, उसमें काम था ही नहीं; फिर भी गोपियों के साथ उनके सम्बन्ध में जो ऐसी अश्लील बातें कहीं कुछ आती हैं, वे हमारी समझ में नहीं आतीं; इसलिए उन्हें नहीं मानना चाहिए | हमें भागवतपर दोष न लगाकर यही मानना चाहिए कि यह प्रकरण हमारी बुद्धि की समझ में नहीं आता | इस प्रकार मनुष्य को अपनी बुद्धि की कमजोरी मानने में कोई हानि नहीं, किन्तु भगवान्, भागवत तथा गोपियों पर कभी दोषारोपण नहीं करना चाहिए |

         इसी प्रकार बलदेवजी-जैसे महापुरुषों में कोई मदिरापान, पर-स्त्रीसेवन आदि का दोष लगावे तो यह कैसे हो सकता है ? जहाँ-कहीं झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, मदिरापान आदि का विषय आता है, जिसकी कि हर जगह निन्दा की गयी है, वह ईश्वर और भक्तों में हो, यह असम्भव है | उनमें उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती | ध्यान दीजिये, यदि मेरे-जैसा कोई मनुष्य चोरी, बेईमानी, व्यभिचार आदि करे तो क्या आप कभी यह समझ सकते हैं कि यह जो कुछ करते हैं सब ठीक है, इनके लिए सब माफ़ है ? किन्तु यह कदापि सम्भव नहीं हैं | ऐसा करना दुनियाँ को धोखा देना है एवं यह घृणित आचरण है | जो व्यक्ति यह प्रचार करता है कि ‘मैं महात्मा हूँ, समर्थ हूँ, ईश्वर और महात्मा जो कुछ करते हैं, सब ठीक करते हैं, इसलिए तुम मेरे साथ कामोपभोग करो’ | विश्वास रखें कि ऐसे विचारवाला व्यक्ति कदापि महात्मा नहीं, वह तो महान दम्भी, व्यभिचारी, मान-बड़ाई का किंकर एवं लोगों की आँखों में धूल झोंकनेवाला है | ऐसे दम्भी-पाखण्डी लोगों की बातों में कभी नहीं आना चाहिए | श्रीकृष्ण की रासलीला बिलकुल विशुद्ध है | इस रासलीला के प्रति विशुद्ध प्रेमभाव हो तो भगवान् से शीघ्र प्रेम हो सकता है एवं कामभाव यदि कहीं छिपा हुआ हो तो वह भी भगवान् श्रीकृष्ण के प्रभाव से नष्ट हो सकता है |

          अबतक मैंने आपको रासलीला के विषय में थोड़ी-सी बातें बतलायीं हैं | रासपंचाध्यायी के कुछ श्लोकों को, जिनमें खुला श्रृंगार या अश्लीलतायुक्त बातें हैं, छोड़कर शेष सभी बातें प्रेम की वृद्धि करनेवाली हैं | उन सबका आदर करना चाहिए और विशुद्ध भाव रखना चाहिये | यदि वास्तव में विशुद्ध एवं सच्चा प्रेम हो तो वाणी गद्गद् हो जाती है, शरीर में कपकपी और रोमांच होने लगता है | प्रेम की अधिकता से वाणी और कंठ दोनों रुक जाते हैं एवं अश्रुपात होने लगते हैं | भगवान् श्यामसुन्दर की मोहिनी छबि के आगे नेत्रों की पलक गिरती नहीं, बल्कि आँखे उनके स्वरुप का पान करती ही रहती हैं | भाव की बात है | विशुद्ध और उच्चकोटि की श्रद्धा तथा प्रेम हो तो उपर्युक्त बातें घट सकती हैं | भगवान् श्रीकृष्ण आनन्द के समुद्र हैं, गोपियाँ उनके संकेत पर नाचती थीं, भगवान् जो भी आज्ञा देते या संकेत करते, वे उसका पालन करती थीं |

          यदि कहें कि संकेत पर चलनेवाली गोपियों को जब भगवान् ने वापस अपने घर जाने के लिए कहा, तब उनकी आज्ञा मानकर वे घर क्यों नहीं लौट गयीं तो इसका उत्तर यह है, उस समय भगवान् के प्रेम से वे इस प्रकार स्तम्भित हो गयीं कि उनके पैर चलने में असमर्थ हो गये | स्वयं गोपियों ने कहा है—
चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये |
पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद् यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा ||
(श्रीमद्भा० १० | २९ | ३४)
‘हमारा जो चित्त घर में आसक्त था तथा हमारे हाथ भी जो घर के कामों लगे थे, उनको आपने सुखपूर्वक—अनायास ही चुरा लिया | एवं हमारे पैर भी आपके चरणप्रान्त से एक पग भी इधर-उधर नहीं चलते | अब हम किस प्रकार घर जायँ और वहाँ जाकर करें भी क्या ?’

          जैसे, पद्मपुराण के पातलखण्ड के ५६ वें और ५८ वें अध्यायों में आता है कि लोकापवाद को सुनकर भगवान् श्रीराम ने सीताको वाल्मीकि मुनि के आश्रम के पास वन में छोड़ आने के लिए शत्रुघ्न और भरत को आज्ञा दी, किन्तु ऐसी बात सुनकर वे स्तम्भित और मिर्छित हो गये | उन्होंने जान-बुझकर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, वरं वे वैसा करने में ही असमर्थ हो गये थे, इसी प्रकार गोपियों के विषय समझना चाहिए |

          असल बात यह है कि भगवान् सबके परम पति हैं, उनके पास गोपियों का जाना न्याययुक्त ही था | स्मृतियाँ जो आज्ञा देती हैं, उससे भी अधिक भगवान् की आज्ञा का महत्त्व है; क्योंकि वे परमपति हैं, उनकी आज्ञा के सामने पति की आज्ञा भी गौण है | गोपियाँ भगवान् के प्रेम में इतनी विवश थीं कि किसी के रोकनेपर वे रुक नहीं सकती थीं | जब गोपियों ने भगवान् की वंशीध्वनि सुनी,तब वे इतनी प्रेमविवश हो गयीं कि घर का सब काम-काज ज्यों-का-त्यों छोड़कर वे भगवान् के पास चली आयीं |

          ऊपर जो कामदेव का अभिमान नष्ट करने के लिए नारद जी के प्रति भगवान् ने मनुष्यरूप में अवतार लेने की बात कही है, यह लोकोक्ति चली आती है | आपलोगों ने भी सम्भव है यह बात सुनी हो | मेरा हृदय इसे मानता है और शायद शास्त्रों में भी कहीं यह कथा मिल सकती है | मुसलामानों के शासनकाल में हमारे बहुत-से धार्मिक ग्रन्थ नष्ट कर दिए गये, इस कारण शास्त्र में यह प्रसंग न भी मिले तो भी इसे ही मानना चाहिए; क्योंकि यह बात रहस्यमयी तथा युक्तियुक्त एवं विशुद्ध प्रेम की है |..शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
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रविवार, 30 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण अमावस्या, रविवार, वि०स० २०७०


** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे......गोपियों में कामकी गन्ध भी नहीं थी | भगवान् श्रीकृष्ण में तो काम था ही नहीं, बल्कि उनके प्रभाव से गोपियों में भी कामभाव सर्वथा नष्ट हो गया था | भगवान् श्रीकृष्ण के सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ थीं, उन रानियों से लाखों ही संतानें हुईं | इसमें भी उनमें कामकी गन्ध नहीं थी; उन्होंने तो अपनी पत्नियों के साथ केवल शास्त्रानुकूल व्यवहार किया था और वह भी कामभाव से बिलकुल रहित होकर |

         इसपर भी यदि कोई भगवान् में गोपियों के साथ व्यभिचार के दोष की कल्पना करता है तो मैं तो यही कहता हूँ कि उसे नरक में ठौर नहीं | काम की सामर्थ्य नहीं कि वह भगवान् और गोपियों में प्रवेश कर सके | उनके तो प्रभाव से ही काम दूर हो जाता है | गोपियों की चर्चा से ही काम दूर भाग जाता है | यदि कोई गोपियों में यह भाव करे कि उन्होंने व्यभिचार किया तो उसको कौन-सी गति मिलेगी, यह भी मेरी बुद्धि में नहीं आता | भगवान् ने स्वयं गोपियों की प्रशंसा की है | गोपियाँ प्रथम तो अबला थीं; स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा आठगुना अधिक कामभाव बताया जाता है | फिर साथ में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ही श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूपमें थे | उनके-जैसा सुन्दर भी कोई नहीं | सारे संसार का सौन्दर्य एकत्र होकर भी भगवान् के सौंदर्य के एक अंश की भी समानता नहीं कर सकता | ऐसे परम सुन्दर के साथ रहकर भी गोपियाँ कामभाव से सर्वथा रहित थीं; अतः उनकी जितनी बड़ाई की जाय, सब थोड़ी ही है | गोपियों में ऐसी शक्ति है कि उनके दर्शन से दर्शक का कामभाव नष्ट हो जाता है, फिर भगवान् की तो बात ही क्या ? उन परब्रह्म परमात्मा ने तो श्रीकृष्णरूपमें प्रकट होकर कामदेव का मद चूर्ण किया और सबको आदर्श शिक्षा दी | उनके तो आचरण अनुकरणीय थे | उन्होंने गीता में स्वयं कहा है—
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥
(३ | २२-२४)
‘हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ; क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूं तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं | इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करनेवाला होऊं तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करनेवाला बनूँ |’

         ध्यान देकर सोचना चाहिए कि यदि भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के साथ व्यभिचार करते तो व्यभिचारी और अधर्मी कहलाते; किन्तु जिस समय परीक्षित मृतक-अवस्था में उत्तरा के गर्भ से निकला तो उसको जीवित करने के लिए भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की कि ‘यदि मैंने जीवनभर सत्य का पालन किया है, यदि मुझमें सत्य और धर्म नित्य स्थित हैं तो उत्तरा का यह सुपुत्र जीवित हो उठे |’ यह कहते ही बालक जी उठा | इससे यह समझना चाहिए कि यदि उनमे कुछ भी दोष होता तो क्या वे ऐसा कहते; कदापि नहीं | इसके सिवा, शिशुपाल भगवान् श्रीकृष्ण का कट्टर शत्रु था, उसने भगवान् को अनेक अनुचित बातें कही हैं, यह बात महाभारत के सभापर्व में विस्ताररूपसे है तथा दुर्योधन ने भी मरते समय बहुत-सी गालियाँ दीं, यह बात महाभारत के शल्यपर्वान्तर्गत गदापर्व में आती है | यदि उनमें इस विषय का कुछ भी दोष होता तो शिशुपाल तथा दुर्योधन अन्य गालियों के साथ यह भी कहते कि तुमने गोपियों के साथ व्यभिचार किया है; किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा | इससे भी यह सिद्ध होता है कि उस समय भी यही प्रसिद्धि थी कि भगवान् श्रीकृष्ण इस दोष से सर्वथा मुक्त हैं | इसी कारण शिशुपाल और दुर्योधन उनपर यह दोष नहीं लगा सके | उन्हें यदि थोड़ी-सी भी गुंजाइश मिलती तो वे अवश्य यह दोष लगाते | इसके सिवा, रासलीला के समय भगवान् श्रीकृष्ण की दस वर्ष की आयु थी—दस वर्ष के बालक में स्त्री-सहवास का दोष घटना संभव नहीं, अतएव भगवान् श्रीकृष्ण में व्यभिचार-दोष की गन्ध की भी कल्पना नहीं करनी चाहिए | किन्तु दम्भी और व्यभिचारी लोग भगवान् पर झूठा दोष आरोप करके अपनी कामवासना सिद्ध करने के लिए ऐसा कहते हैं कि देखो, श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ भोग-विलास किया, इसी से गोपियों की मुक्ति हो गयी | इस प्रकार कहकर वे भोली-भली स्त्रियों को अपने पंजे में फंसाकर खुद तो श्रीकृष्ण बनते हैं और उन स्त्रियों को गोपी बनाते हैं एवं फिर उनके साथ पापकर्म करते हैं; भगवान् उनको कौन-सी घोर गति देंगे, यह तो वे भगवान् ही जानें |..शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,गीताप्रेसगोरखपुर
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शनिवार, 29 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण १४, शनिवार, वि०स० २०७०


** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे......उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया, तब गोपियों के मन में ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हमीं सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है | जब भगवान् ने देखा कि इन्हें कुछ गर्व हो गया है, तब वे उनका गर्व दूर करने के लिए अपनी प्रधान सखी (राधिकाजी) को लेकर अन्तर्धान हो गये | भगवान् के अन्तर्धान होते ही सब गोपियों में खलबली मच गयी, वे भगवान् श्रीकृष्ण के वियोग में अत्यंत व्याकुल हो गयीं और वनमें श्रीकृष्ण को खोजने लगीं | जब बहुत खोजनेपर भी भगवान् नहीं मिले, तब वे परस्पर में ही भगवान् की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं | कोई श्रीकृष्ण बन गयी और कोई गोपी; इस प्रकार रासलीला करने लगीं |

        इधर जब भगवान् राधाजी को साथ लेकर वन में जा रहे थे, तब राधाजी के मन में यह अभिमान आया कि मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ, इसीलिए भगवान् सब गोपियों को छोड़कर मुझे साथ ले आये | इसके बाद चलते-चलते राधाजी ने भगवान् से कहा कि ‘मैं थक गयी हूँ, मुझसे अब चला नहीं जाता | इसलिए आप मुझे अपने कंधेपर बिठाकर ले चलिए |’ भगवान् बोले—‘ठीक है |’ ऐसा कह भगवान् बैठ गये और जब राधिका जी भगवान् के कंधे पर बैठने लगीं, तब राधिकाजी के अभिमान को दूर करने के लिए भगवान् झट अन्तर्धान हो गये | भगवान् को अन्तर्धान हुए देखकर राधिकाजी भी विलाप करने लगीं | वे ‘हा कृष्ण ! हा कृष्ण !’ कहती हुई कृष्ण को खोजने लगीं |

         उधर गोपियाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण और राधिकाजी को खोजने के लिए वन में घूमने लगीं | घूमते-घूमते उन्हें श्रीकृष्ण और राधिकाजी के पदचिह्न मिले | उन चिह्नों को देखती हुई गोपियाँ आगे बढ़ गयीं | आगे जानेपर उनको श्रीकृष्ण के बैठने का चिह्न मिला; किन्तु उससे और आगे बढ़ने पर केवल राधिकाजी के ही पदचिह्न मिले, श्रीकृष्ण के नहीं | फिर वे  सखियाँ राधिकाजी के पदचिह्नों के पीछे-पीछे आगे बढ़ी और कुछ दूर जानेपर उनको विलाप करती हुई राधिकाजी मिल गयीं | गोपियों ने राधिकाजी से पूछा—‘श्रीकृष्ण कहाँ हैं ?’ राधिकाजी ने कहा—‘भगवान् मेरे साथ में यहाँ तक आये थे, किन्तु मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया; इसलिए वे मुझे भी छोड़कर चले गये |’

         तब विरह में व्याकुल हुई सभी गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण को आर्तभाव से पुकारने और उनके गुणों का गान करने लगीं | उनको अत्यन्त व्याकुल देखकर भगवान् सहसा सबके बीच में प्रकट हो गये |

         उस समय गोपियों ने भगवान् पूछा—‘नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालों से भी प्रेम करते हैं और कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते | इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ?’

        भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘मेरी प्यारी सखियों ! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है | न तो उनमें सौहार्द है और न धर्म ही | उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है, इसके सिवा उनका और कोई प्रयोजन नहीं | गोपियों ! जो लोग प्रेम न करनेवाले से भी प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और उनके व्यवहार में निश्छल धर्म भी है | कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम नहीं करते | ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं | एक तो वे, जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं | दूसरे वे, जो आप्तकाम यानी कृतकृत्य हो चुके हैं | तीसरे वे हैं, जो अकृतज्ञ यानी कृतघ्नी हैं और चौथे वे हैं, जो अपना हित करनेवाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी जान-बूझकर द्रोह करते हैं | गोपियों ! मैं तो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए | जैसे निर्धन मनुष्य को कभी बहुत-सा धन प्राप्त हो जाय और फिर खो जाय तो उसका चित्त खोये हुए धन की चिन्ता से भर जाता है, अन्यत्र नहीं जाता, वैसे ही मैं भी उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगी रहे, निरंतर मुझमें ही लगे रहे, इसीलिए ऐसा करता हूँ | तुम्हारी चित्तवृत्ति अन्यत्र कहीं न जाय, मुझमें ही लगी रहे, इसीलिए तुमलोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं तुम्हारे अभिमान को नष्ट करने एवं प्रेम की वृद्धि करने के लिए छिप गया था | अतः तुमलोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो | तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ | मुझसे तुम्हारा यह मिलन सर्वथा निर्मल और निर्दोष है | यदि मैं अमर शरीर से अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता | मैं तो तुम्हारा ऋणी हूँ |’ ऐसा कहकर वे गोपियों के साथ पुनः रासलीला करने लगे |..शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
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शुक्रवार, 28 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण द्वादशी, शुक्रवार, वि०स० २०७०

** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे.......रास में तो विशुद्ध प्रेम से नृत्य, गीत, वंशीवाद्य आदि कला का प्रकाश होता है, न कि भोग-विलास का | भगवान श्रीकृष्ण गोपियों में विशुद्ध प्रेम की वृद्धि करते थे, रास में भगवान् गोपियों के साथ नृत्य करते थे, इससे गोपियों की बड़ी प्रसन्नता होती थी एवं विशुद्ध प्रेम का संचार होता था | उस समय उनको एक-दूसरे के सिवा कुछ भी सुधि नहीं रहती थी | काम की सामर्थ्य नहीं कि उनकी ओर ताक भी सके | देखिये, गोपियों में कैसा विशुद्ध प्रेम था | भगवान् ने गोपियों को बुलाने के लिए बड़े ही मधुर स्वर से वंशी बजायी थी | वंशी की तान सुनते ही गोपियाँ सब काम छोड़कर श्रीकृष्ण के पास चली आयीं | उस समय भगवान् ने उनसे कहा—‘गोपियों ! रात का समय बड़ा भयावना होता है और इस वन में बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु रहते हैं; अतः तुम सब तुरंत व्रज में लौट जाओ | रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिए | तुम्हें न देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूढ़ रहे होंगे, उन्हें भय में न डालो | तुमलोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा | पूर्ण चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से यह रंगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों से चित्रकारी की हो और यमुनाजी के जल का स्पर्श करके बहनेवाली शीतल वायु की मंद-मंद गति से हिलते हुए ये वृक्षों के पत्ते तो इस वन की शोभा को और भी बढ़ा रहे हैं; परन्तु अब तो तुमलोगों ने यह सब कुछ देख लिया | अब देर न करो, शीघ्र-से-शीघ्र व्रज में लौट जाओ | तुमलोग कुलीन स्त्री हो और स्वयं भी सती हो, जाओ, अपने पतियों की सेवा-शुश्रूषा करो | यदि मेरे प्रेमसे परवश होकर तुमलोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि जगत के पशु-पक्षी तक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं | कल्याणी गोपियों ! स्त्रियों का परमधर्म यही है कि वे पति और उसके भाई-बन्धुओं की निष्कपटभाव से सेवा करें और संतान का पालन-पोषण करें | गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से, रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है, वैसे प्रेम की प्राप्ति पास रहने से नहीं होती | इसलिए तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ |’

       इसपर गोपियाँ बोलीं—‘प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घटघटव्यापी हो | हमारे हृदय की बात जानते हो | तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिए | हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं | प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मों का रहस्य जानते हो | तुम्हारा यह कहना कि ‘अपने पति, पुत्र, भाई-बन्धुओं की सेवा करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है’—अक्षरशः ठीक है, परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिए; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशों के पद (चरम लक्ष्य) हो, साक्षात् भगवान हो | तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो |’

       तदन्तर भगवान् ने बड़े ही प्रेम से सबके साथ रासलीला आरम्भ की | योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गये | इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, इस क्रम से मंडल बनाकर भगवान् रासलीला करने लगे | सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे श्रीकृष्ण तो हमारे ही पास हैं | उस समय रासोत्सव को देखने के लिए सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आये | स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं | स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी | गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान् के निर्मल यश का गान करने लगे | रासमण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करने लगीं | उनकी कलाइयों के कंगन, पैरों के पायजेब और करधनी के घुंघरू एक साथ बज उठे | जिससे वह मधुर ध्वनि बड़े ही जोरकी हो रही थी | यमुनाजी की रमणीय वालुकापर व्रज-सुंदरियों के बीच में भगवान् श्रीकृष्ण की बड़ी ही अनोखी शोभा हुयी | ऐसा जान पड़ता था, मानो अनेक सुवर्ण-मणियों के बीच में महामरतकमणि चमक रही हो | नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से पाद्न्यास करने लगीं | कभी धीरे-धीरे पैर रखतीं तो कभी पीछे हटा लेतीं | कभी धीरे-धीरे पैर रखतीं तो कभी बड़े वेग से और कभी चाक की तरह घूम जातीं | कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं और कभी मुसकराने लगतीं | उनके कानों के कुंडल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते थे | नाचने के परिश्रम से उनके मुँहपर पसीने की बूंदे झलकने लगीं | इस प्रकार गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के साथ गा-गाकर नाच रही थीं | उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघमण्डल हैं और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गौरवर्णा गोपियाँ बिजली हैं |..शेष अगले ब्लॉग में
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