※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 31 मार्च 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल १, सोमवार, वि०स० २०७१


** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे......भगवान् श्रीकृष्ण का तो गोपियों के साथ विशुद्ध प्रेम था, वहाँ कामका नाम-निशान भी नहीं था | उनका प्रेम जारभाव को लेकर कदापि नहीं था | भागवत में जो प्रेम का वर्णन है; वह विशुद्ध एवं अत्यन्त स्वच्छ है | अवश्य ही भागवत के कुछ श्लोकों में अश्लीलता और जारभाव का उल्लेख मिलता है, उसे हम प्रक्षिप्त कहें तो भी ठीक नहीं और यदि उसे क्लिष्ट कल्पना करके वेदान्त के सिद्धांत में घटावें तो भी ठीक नहीं | पर वहाँ आये हुए रमण आदि अश्लील शब्दों का जैसा स्पष्ट अर्थ व्याकरण से समझ में आता है, वैसा मानना उचित नहीं है; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण दोषों से सर्वथा रहित और विशुद्ध सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हैं | अतः उनमें अश्लीलता का दोष हमारी आत्मा स्वीकार नहीं करती और न ऐसी मान्यता में कोई लाभ ही है; क्योंकि यह शास्त्रमर्यादा और युक्ति-संगत भी नहीं है | सिद्धान्त में कोई गड़बड़ी नहीं है, उनका प्रेम विशुद्ध है, उसमें काम था ही नहीं; फिर भी गोपियों के साथ उनके सम्बन्ध में जो ऐसी अश्लील बातें कहीं कुछ आती हैं, वे हमारी समझ में नहीं आतीं; इसलिए उन्हें नहीं मानना चाहिए | हमें भागवतपर दोष न लगाकर यही मानना चाहिए कि यह प्रकरण हमारी बुद्धि की समझ में नहीं आता | इस प्रकार मनुष्य को अपनी बुद्धि की कमजोरी मानने में कोई हानि नहीं, किन्तु भगवान्, भागवत तथा गोपियों पर कभी दोषारोपण नहीं करना चाहिए |

         इसी प्रकार बलदेवजी-जैसे महापुरुषों में कोई मदिरापान, पर-स्त्रीसेवन आदि का दोष लगावे तो यह कैसे हो सकता है ? जहाँ-कहीं झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, मदिरापान आदि का विषय आता है, जिसकी कि हर जगह निन्दा की गयी है, वह ईश्वर और भक्तों में हो, यह असम्भव है | उनमें उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती | ध्यान दीजिये, यदि मेरे-जैसा कोई मनुष्य चोरी, बेईमानी, व्यभिचार आदि करे तो क्या आप कभी यह समझ सकते हैं कि यह जो कुछ करते हैं सब ठीक है, इनके लिए सब माफ़ है ? किन्तु यह कदापि सम्भव नहीं हैं | ऐसा करना दुनियाँ को धोखा देना है एवं यह घृणित आचरण है | जो व्यक्ति यह प्रचार करता है कि ‘मैं महात्मा हूँ, समर्थ हूँ, ईश्वर और महात्मा जो कुछ करते हैं, सब ठीक करते हैं, इसलिए तुम मेरे साथ कामोपभोग करो’ | विश्वास रखें कि ऐसे विचारवाला व्यक्ति कदापि महात्मा नहीं, वह तो महान दम्भी, व्यभिचारी, मान-बड़ाई का किंकर एवं लोगों की आँखों में धूल झोंकनेवाला है | ऐसे दम्भी-पाखण्डी लोगों की बातों में कभी नहीं आना चाहिए | श्रीकृष्ण की रासलीला बिलकुल विशुद्ध है | इस रासलीला के प्रति विशुद्ध प्रेमभाव हो तो भगवान् से शीघ्र प्रेम हो सकता है एवं कामभाव यदि कहीं छिपा हुआ हो तो वह भी भगवान् श्रीकृष्ण के प्रभाव से नष्ट हो सकता है |

          अबतक मैंने आपको रासलीला के विषय में थोड़ी-सी बातें बतलायीं हैं | रासपंचाध्यायी के कुछ श्लोकों को, जिनमें खुला श्रृंगार या अश्लीलतायुक्त बातें हैं, छोड़कर शेष सभी बातें प्रेम की वृद्धि करनेवाली हैं | उन सबका आदर करना चाहिए और विशुद्ध भाव रखना चाहिये | यदि वास्तव में विशुद्ध एवं सच्चा प्रेम हो तो वाणी गद्गद् हो जाती है, शरीर में कपकपी और रोमांच होने लगता है | प्रेम की अधिकता से वाणी और कंठ दोनों रुक जाते हैं एवं अश्रुपात होने लगते हैं | भगवान् श्यामसुन्दर की मोहिनी छबि के आगे नेत्रों की पलक गिरती नहीं, बल्कि आँखे उनके स्वरुप का पान करती ही रहती हैं | भाव की बात है | विशुद्ध और उच्चकोटि की श्रद्धा तथा प्रेम हो तो उपर्युक्त बातें घट सकती हैं | भगवान् श्रीकृष्ण आनन्द के समुद्र हैं, गोपियाँ उनके संकेत पर नाचती थीं, भगवान् जो भी आज्ञा देते या संकेत करते, वे उसका पालन करती थीं |

          यदि कहें कि संकेत पर चलनेवाली गोपियों को जब भगवान् ने वापस अपने घर जाने के लिए कहा, तब उनकी आज्ञा मानकर वे घर क्यों नहीं लौट गयीं तो इसका उत्तर यह है, उस समय भगवान् के प्रेम से वे इस प्रकार स्तम्भित हो गयीं कि उनके पैर चलने में असमर्थ हो गये | स्वयं गोपियों ने कहा है—
चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये |
पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद् यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा ||
(श्रीमद्भा० १० | २९ | ३४)
‘हमारा जो चित्त घर में आसक्त था तथा हमारे हाथ भी जो घर के कामों लगे थे, उनको आपने सुखपूर्वक—अनायास ही चुरा लिया | एवं हमारे पैर भी आपके चरणप्रान्त से एक पग भी इधर-उधर नहीं चलते | अब हम किस प्रकार घर जायँ और वहाँ जाकर करें भी क्या ?’

          जैसे, पद्मपुराण के पातलखण्ड के ५६ वें और ५८ वें अध्यायों में आता है कि लोकापवाद को सुनकर भगवान् श्रीराम ने सीताको वाल्मीकि मुनि के आश्रम के पास वन में छोड़ आने के लिए शत्रुघ्न और भरत को आज्ञा दी, किन्तु ऐसी बात सुनकर वे स्तम्भित और मिर्छित हो गये | उन्होंने जान-बुझकर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, वरं वे वैसा करने में ही असमर्थ हो गये थे, इसी प्रकार गोपियों के विषय समझना चाहिए |

          असल बात यह है कि भगवान् सबके परम पति हैं, उनके पास गोपियों का जाना न्याययुक्त ही था | स्मृतियाँ जो आज्ञा देती हैं, उससे भी अधिक भगवान् की आज्ञा का महत्त्व है; क्योंकि वे परमपति हैं, उनकी आज्ञा के सामने पति की आज्ञा भी गौण है | गोपियाँ भगवान् के प्रेम में इतनी विवश थीं कि किसी के रोकनेपर वे रुक नहीं सकती थीं | जब गोपियों ने भगवान् की वंशीध्वनि सुनी,तब वे इतनी प्रेमविवश हो गयीं कि घर का सब काम-काज ज्यों-का-त्यों छोड़कर वे भगवान् के पास चली आयीं |

          ऊपर जो कामदेव का अभिमान नष्ट करने के लिए नारद जी के प्रति भगवान् ने मनुष्यरूप में अवतार लेने की बात कही है, यह लोकोक्ति चली आती है | आपलोगों ने भी सम्भव है यह बात सुनी हो | मेरा हृदय इसे मानता है और शायद शास्त्रों में भी कहीं यह कथा मिल सकती है | मुसलामानों के शासनकाल में हमारे बहुत-से धार्मिक ग्रन्थ नष्ट कर दिए गये, इस कारण शास्त्र में यह प्रसंग न भी मिले तो भी इसे ही मानना चाहिए; क्योंकि यह बात रहस्यमयी तथा युक्तियुक्त एवं विशुद्ध प्रेम की है |..शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!