※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल २, मंगलवार, वि०स० २०७१


** गोपियोंका विशुद्ध प्रेम अथवा रासलीला का रहस्य **
गत ब्लॉग से आगे......बहुत-से लोग कहते हैं कि श्रुतियां ही गोपियों के रूप में होकर आयी थीं, कई कहते हैं कि बालखिल्य आदि ऋषिगण हो गोपियों के रूपमें होकर आये थे, कई लोग यह भी कहते हैं कि जो भक्त भगवान् के परम धाम में उनकी सामीप्य-मुक्ति को प्राप्त हो गये थे, वे ही गोपियों के रूपमें भगवान् के परिकर होकर आये थे | अतः समझना चाहिए कि गोपियाँ कितनी अद्भुत और उच्चकोटि की थीं | वे भगवान् से कहती हैं—आप केवल गोपीचंदन ही नहीं है, आप तो परब्रह्म परमात्मा हैं, समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहनेवाले उनके साक्षी हैं, अन्तर्यामी हैं | अतः आप जगत्पति के पास आना और आपकी सेवा करना हमारा परम धर्म है |

          यह गोपियों का आदर्श प्रेम है | जिन गोपियों के स्मरण करनेमात्र से भी स्मरण करनेवाले का कामभाव नष्ट हो जाता है, उनमें काम-वासना की कल्पना करना महान मूर्खता है; किन्तु उनके दर्शन से कामवासना नष्ट हो जाती है, इसपर श्रद्धा एवं विश्वास होना चाहिए | गोपियों का भगवान् के प्रति बड़ा ही उच्च कोटि का प्रेम था | ऋषि-मुनियों की पत्नियाँ भी ऐसी ही थीं | एक समय वे भगवान् श्रीकृष्ण के लिए थालियों में मिठाई भरकर लायीं थीं, किन्तु उनका भाव भी अश्लील नहीं था, सर्वथा विशुद्ध था | उनके घरवाले भी उनको भगवान् के पास जाने से रोकते नहीं थे | यदि कोई रोकते तो वे इच्छा से नहीं रुकतीं और जबरन रोकने पर उनकी आत्मा वहाँ पहले पहुँच जाती | मुनि-पत्नियों का प्रेम विशुद्ध था, वे श्रीकृष्ण को भगवान् समझकर उनसे प्रेम करती थीं |

          फिर श्रीराधिकाजी के प्रेम का तो कहना ही क्या है, वह तो बिलकुल विशुद्ध था ही, काम की तो उनमें गन्ध ही नहीं थी | वे तो भगवान् की प्रेममयी शक्ति थीं | वे भगवान् को आह्लादित करने के लिए ही प्रकट हुई थीं | उनका परस्पर आमोद-प्रमोद एवं प्रेमका व्यवहार लीलामय था | दोनों एक ही थे | दोनों परस्पर एक-दूसरे को आह्लादित करते रहते थे |

          वात्सल्य, माधुर्य, दास्य, सख्य और शान्त आदि जितने भी भाव हैं, उन सबसे बढ़कर विशुद्ध प्रेम का जो भाव है, वह सबसे ऊँचा है | भक्ति से भी यह भाव ऊँचा है, यह भक्ति का ही फल है | यहाँ प्रेम और प्रेमास्पद में इतनी एकता है कि उसके लिए कोई उदाहरण ही नहीं है | जैसे दोनों हाथ जोड़नेपर एकही-से हो जाते हैं, वैसे ही उनकी एकता बतलायी जा सकती है; किन्तु यह तुलना भी समीचीन नहीं; क्योंकि यहाँ तो विलक्षण नित्य संयोग है | गंगा सागर में गिरती है, वहाँ एक हो जाती है | तब उसे केवल सागर ही कहा जाता है, वहाँ गंगा का नाम-रूप नहीं रहता | प्रयाग में गंगा और यमुना—दोनों धाराएँ जाकर मिल जाती हैं; किन्तु उसको गंगा ही कहते हैं, वहाँ यमुना का नाम-रूप अलग नहीं रहता | जैसे समुद्रमें जाकर सब नदियाँ समाप्त हो जाती हैं, नदियों के नाम-रूप समुद्र से अलग नहीं रहते, वहाँ केवल समुद्र ही रहता है, इसी प्रकार सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त भक्तगणों के नाम-रूप भगवान् से अलग नहीं रहते, यानी तद्रूप हो जाते हैं, वहाँ केवल एक भगवान् ही रह जाते हैं, किन्तु इस परम प्रेम में उपर्युक्त उदाहरणों की-ज्यों एकता नहीं है | यहाँ तो जाति से वास्तव में एक होते हुए भी प्रेमास्पद और प्रेमी स्वरुप से अलग-अलग रहते हैं |

         श्रीभगवान् एवं श्रीराधाजी दोनों प्रेम की मूर्ति हैं | भगवान् की सारी चेष्टाएँ श्रीराधाजी को आह्लादित करने के लिए ही होती हैं | इसी प्रकार श्रीराधाजी की सारी चेष्टाएँ भगवान् को आह्लादित करने के लिए ही होती हैं | वह प्रेम अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता | उस प्रेम को प्रकट करने के लिए ही भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ |

        उपर्युक्त श्रीकृष्ण और राधाजी के-जैसे परम प्रेमको प्राप्त होनेपर फिर वहाँ प्रेमी और प्रेमास्पद में कोई छोटा-बड़ा नहीं रहता | दास्यभाव में भगवान् सेव्य और भक्त सेवक होता है; किन्तु इस परम प्रेम में यह बात नहीं है; यहाँ तो दोनों एक हैं | इस परम प्रेम में सब भावों से ऊपर उठकर प्रेमी एकीभाव को प्राप्त हो जाता है | भगवान् के प्रति जो दास्यभाव होता है, उसमें दोनों समान नहीं हैं, स्वामी-सेवक-भाव है | श्रीहनुमानजी भगवान् के दास हैं, वे भगवान् की गद्दी पर कभी नहीं आ सकते | भगवान् बुलावें तब भी हनुमानजी यह कहें कि यह क्या कर रहे हैं, मैं सेवक हूँ एवं आप स्वामी; क्या स्वामी की जगह सेवक आ सकता है | हाँ, भगवान् अपनी सेवा के लिए कहें तो हनुमानजी तैयार हैं; किन्तु उक्त प्रेमभाव में इस प्रकार से छोटा-बड़ा नहीं है | यह तन्मयता प्रधान अवस्था है | इसमें दोनों एक-दूसरे को आह्लादित करते हैं | जैसे हमारे दोनों हाथ हमें एक समान लगते हैं | हमने इनमें भेददृष्टि कर ली है | दायें को ऊँचा एवं बायें को नीचा मान लिया है, वास्तव में आत्मदृष्टि से देखा जाय तो दोनों एक ही हैं | यदि बायें हाथ में फोड़ा होगा तो हम उसको हटाने की उतनी ही कोशिश करेंगे, जितनी कि दायें हाथके फोड़े को हटाने की करते हैं | उस समय यह नहीं सोचेंगे कि यह नीचा हाथ है, इसे छोड़ दो |..शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!